विजया राजे सिंधिया, जिन्हें पूरे भारत में राजमाता सिंधिया के नाम से जाना जाता है, भारतीय राजनीति की एक ऐसी प्रतिष्ठित और प्रेरणादायक शख्सियत थीं, जिन्होंने अपने शाही जीवन का त्याग कर देश और जनता की सेवा को अपना जीवन-धर्म बना लिया। वे केवल एक रियासत की महारानी नहीं रहीं, बल्कि लोकतांत्रिक भारत की राजनीति में महिलाओं की सशक्त भागीदारी का एक ऐतिहासिक उदाहरण बन गईं।
राजमाता सिंधिया का जन्म 12 अक्टूबर 1919 को मध्य प्रदेश के सागर जिले में एक प्रतिष्ठित और राजसी परिवार में हुआ था। उनके जन्म का नाम लेखराजी लक्ष्मी देवी था। वे नेपाल के शाही परिवार से संबंधित थीं और उनका पालन-पोषण एक पारंपरिक, लेकिन शिक्षित वातावरण में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा भारत में प्राप्त करने के बाद, उन्होंने इंग्लैंड में उच्च शिक्षा ली, जहाँ से उनकी सोच और दृष्टिकोण में आधुनिकता और राष्ट्रवादी विचारों का समावेश हुआ।
1941 में उनका विवाह ग्वालियर के अंतिम शासक महाराजा जीवाजीराव सिंधिया से हुआ। विवाह के बाद वे ग्वालियर रियासत की महारानी बनीं और राजघराने की सारी जिम्मेदारियाँ निभाईं। लेकिन भारत के स्वतंत्र होने और रियासतों के विलय के बाद, उन्होंने राजनीति में प्रवेश करने का निर्णय लिया—a निर्णय जो उनके जीवन की दिशा और पहचान को पूरी तरह बदल देने वाला साबित हुआ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने सबसे पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़कर 1957 में ग्वालियर से लोकसभा चुनाव जीता। हालांकि कांग्रेस की नीतियों और नेतृत्व शैली से वे असहमत रहीं, इसलिए उन्होंने पार्टी छोड़ दी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित होकर भारतीय जनसंघ का हिस्सा बन गईं। यहां से उनके राजनीतिक जीवन की असली शुरुआत हुई।
राजनीति में वे सिद्धांतों पर अडिग, संघर्षशील, और जनहित के लिए समर्पित नेता के रूप में प्रसिद्ध हुईं। वे अक्सर अपने स्पष्ट विचारों और बेबाक भाषणों के लिए जानी जाती थीं। भारतीय जनसंघ के ज़रिए उन्होंने एक वैकल्पिक राष्ट्रवादी विचारधारा को देश भर में मजबूती देने का कार्य किया।
1980 में जब भारतीय जनसंघ के नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) की स्थापना की, तो राजमाता सिंधिया उन प्रमुख संस्थापक सदस्यों में शामिल थीं जिन्होंने पार्टी को एक वैचारिक और जनाधार वाला स्वरूप देने में अहम भूमिका निभाई।
अपने राजनीतिक जीवन में वे कई बार लोकसभा और राज्यसभा के लिए चुनी गईं। उन्होंने ग्वालियर और गुना जैसे संसदीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व किया और संसद में आम जनता की समस्याओं को दृढ़ता और निडरता के साथ उठाया। उन्होंने महिलाओं, किसानों, दलितों और समाज के वंचित वर्गों की आवाज को मंच दिया।
राजमाता सिंधिया की एक विशेषता यह थी कि उन्होंने राजनीति को सत्ता का साधन नहीं, बल्कि सेवा और सिद्धांतों का माध्यम माना। उन्होंने अपने जीवन में कभी दिखावे या विलासिता को महत्व नहीं दिया, बल्कि अत्यंत सादा जीवन जीते हुए राजसी वैभव से स्वयं को दूर रखा।
उनकी सोच में राष्ट्रवाद, संस्कृति, नैतिकता और महिलाओं के अधिकारों के लिए विशेष प्रतिबद्धता थी। उन्होंने महिलाओं को राजनीति और समाज में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया और स्वयं इसका उदाहरण बनकर दिखाया।
25 जनवरी 2001 को जब उनका निधन हुआ, तो भारत ने एक ऐसी नेता को खो दिया, जिसने राजनीति को एक मिशन की तरह जिया। उनका योगदान केवल राजनीति तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज को यह दिखाया कि एक महिला, चाहे किसी भी पृष्ठभूमि से हो, यदि ठान ले तो वह देशहित में असाधारण योगदान दे सकती है।
उनकी राजनीतिक विरासत आज भी जीवित है। उनके बेटे माधवराव सिंधिया और पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया भी भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे हैं। उनकी पुत्रवधू वसुंधरा राजे राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं और भारतीय जनता पार्टी की प्रमुख नेताओं में से एक हैं।
भारत सरकार ने उनके जन्म शताब्दी वर्ष (2020) पर उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी कर उन्हें श्रद्धांजलि दी—यह एक संकेत है कि राष्ट्र उनकी सेवाओं को कभी नहीं भूलेगा।
विजया राजे सिंधिया का जीवन भारत की राजनीतिक और सामाजिक चेतना का महत्वपूर्ण हिस्सा है। वे उन गिने-चुने नेताओं में से थीं जिन्होंने अपने पद, प्रभाव और प्रतिष्ठा का उपयोग केवल जनसेवा के लिए किया। उनके आदर्श और योगदान आज भी राजनीति में नैतिकता और सच्चाई के प्रतीक के रूप में याद किए जाते हैं।
