स्वामी रामतीर्थ (Swami Rama Tirtha) आधुनिक भारत के महान संत, वेदांत के ज्ञाता, तेजस्वी विचारक और प्रेरणादायक वक्ता थे। उनका जन्म 22 अक्टूबर 1873 को तत्कालीन भारत के पंजाब प्रांत (अब पाकिस्तान में) स्थित गुजरांवाला ज़िले में हुआ था। उनका असली नाम 'तीरथ राम' था। बचपन में ही मां का निधन हो जाने के बाद उन्होंने कठिन परिस्थितियों में अपना जीवन बिताया। वह बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और चिंतनशील थे।
पढ़ाई में उनकी विशेष रुचि थी। उन्होंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से गणित में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की और 'फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज' में गणित के प्रोफेसर बन गए। उनके जीवन का निर्णायक मोड़ वर्ष 1897 में आया जब उन्होंने स्वामी विवेकानंद का एक भाषण सुना। इससे प्रभावित होकर उन्होंने संन्यास लेने का निर्णय किया और जीवन को अध्यात्म और समाजसेवा के मार्ग पर समर्पित कर दिया।
1901 में स्वामी रामतीर्थ ने गृहस्थ जीवन त्यागकर हिमालय की ओर प्रस्थान किया और वहां संन्यास ग्रहण किया। यहीं उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ और वे तीरथ राम से 'स्वामी रामतीर्थ' बन गए। उन्होंने किसी परंपरागत गुरुकुल से दीक्षा नहीं ली, न ही कोई शिष्य बनाया। वे अद्वैत वेदांत के सच्चे साधक और व्याख्याता थे।
स्वामी रामतीर्थ ने पश्चिमी देशों का दौरा किया और जापान व अमेरिका में भारतीय संस्कृति और वेदांत दर्शन का प्रचार-प्रसार किया। वे अमेरिका में दो वर्षों तक रहे, जहाँ उन्होंने कई विश्वविद्यालयों और संस्थानों में व्याख्यान दिए। उनका भाषण शैली अत्यंत प्रभावशाली और काव्यात्मक थी, जिससे श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। उन्होंने हिंदुत्व को एक धर्म से अधिक, एक संपूर्ण जीवन-दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।
स्वामी रामतीर्थ का मानना था कि भारत को स्वतंत्रता केवल राजनीतिक रूप से नहीं, बल्कि आत्मिक और बौद्धिक रूप से भी चाहिए। वे भारतीय युवाओं को आत्मनिर्भर, शिक्षित और आत्मगौरव से भरा देखना चाहते थे। उन्होंने भारत में शिक्षा के प्रसार, सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन, और जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए कई प्रयास किए। उन्होंने गरीब और निम्न वर्ग के लिए शिक्षा अभियान भी चलाया।
स्वामी रामतीर्थ ने यह भी कहा था कि भारत को ईसाई मिशनरियों की नहीं, बल्कि शिक्षित और संकल्पित युवाओं की आवश्यकता है। उन्होंने युवाओं को अमेरिका भेजने की योजना बनाई ताकि वे वहां से ज्ञान प्राप्त कर भारत के पुनर्निर्माण में योगदान दें।
1904 में वे भारत लौटे और कुछ समय बाद पुनः हिमालय चले गए। वहाँ उन्होंने 'वेदांत दर्शन' और जीवन के गहरे अनुभवों को पुस्तक रूप देने का प्रयास किया। लेकिन 17 अक्टूबर 1906 को दीपावली के दिन टिहरी के पास गंगा नदी में स्नान करते समय वे भंवर में फँस गए और वहीं उनका निधन हो गया। वे मात्र 32 वर्ष के थे।
उनकी प्रमुख रचनाओं में "गैर मुल्कों के तजुर्बे", "उन्नति का मार्ग", "सफलता की कुंजी", "विश्वधर्म", और "भारत का भविष्य" प्रमुख हैं। वे हिंदी के प्रबल समर्थक थे और राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूतों में गिने जाते हैं। उनकी मृत्यु आज भी कई लोगों के लिए रहस्य है, लेकिन उनके विचार और जीवन दर्शन आज भी प्रासंगिक हैं।
