अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद शफ़ीक़ उल्ला ख़ाँ था और माता का नाम मज़हूरुन्निशाँ बेगम था। उनकी माता बहुत सुंदर थीं और परिवार समृद्ध था। परिवार के सभी सदस्य सरकारी नौकरी करते थे। अशफ़ाक़ को छात्र जीवन से ही विदेशी दासता बुरी लगती थी और वे देश के लिए कुछ बड़ा करने की इच्छा रखते थे। बंगाल के क्रांतिकारियों का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव था।
बाल्यकाल में अशफ़ाक़ पढ़ाई में ज्यादा रुचि नहीं रखते थे। उन्हें तैराकी, घुड़सवारी और शिकार का शौक था। वे स्वस्थ और सुडौल जवान थे और सभी से प्रेम करते थे। बचपन से ही उनमें देश के प्रति गहरा अनुराग था। वे देश की भलाई के लिए चल रहे आंदोलनों की कहानियाँ बड़ी रुचि से पढ़ते थे।
अशफ़ाक़ को कविता का शौक था और वे अपनी कविताएँ ‘हसरत’ नाम से लिखते थे। उन्होंने अपनी कविताओं को कभी प्रकाशित नहीं कराया क्योंकि उनका मानना था कि उनका मकसद नाम कमाना नहीं बल्कि क्रांतिकारी काम करना है। उनकी कविताएँ अक्सर काकोरी कांड के क्रांतिकारी गाया करते थे। अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा था कि जमीं और जमां दोनों दुश्मन हैं, जो अपने थे वे पराए हो गए हैं, और उनकी हालत को समझने के लिए दास्तान सुनो।
देश में क्रांतिकारी गतिविधियों के बढ़ने पर अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ में भी देशभक्ति और क्रांतिकारी भाव उत्पन्न होने लगे। वे ऐसे किसी व्यक्ति से मिलने के लिए उत्सुक थे जो क्रांतिकारी दल का सदस्य हो। उस समय मैनपुरी षड़यंत्र के मामले में रामप्रसाद बिस्मिल फरार थे। जब शाही ऐलान से सभी राजनीतिक कैदी छोड़े गए, तब रामप्रसाद बिस्मिल भी शाहजहाँपुर लौटे। अशफ़ाक़ ने उनसे मिलने की कोशिश की और धीरे-धीरे उनकी दोस्ती गहरी हो गई। इस प्रकार उनका क्रांतिकारी जीवन शुरू हुआ। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के बड़े समर्थक थे और चाहते थे कि मुस्लिम युवा भी क्रांतिकारी दल में शामिल हों।
महात्मा गांधी का प्रभाव अशफ़ाक़ के जीवन पर था, लेकिन चौरी चौरा घटना के बाद गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने से उन्हें बहुत दुख पहुंचा। 8 अगस्त 1925 को शाहजहाँपुर में हुई एक बैठक में ट्रेन से ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई गई। 9 अगस्त 1925 को अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद और अन्य क्रांतिकारियों ने लखनऊ के पास काकोरी में ट्रेन लूट की। इस घटना को भारतीय इतिहास में काकोरी कांड के नाम से जाना जाता है। इस घटना में अशफ़ाक़ ने ‘कुमारजी’ नाम इस्तेमाल किया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने कड़ी कार्रवाई की और कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया, लेकिन चन्द्रशेखर आज़ाद और अशफ़ाक़ पुलिस से बच निकले।
काकोरी कांड के बाद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ शाहजहाँपुर छोड़कर बनारस चले गए और वहां दस महीने तक एक इंजीनियरिंग कंपनी में काम किया। विदेश जाकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने और कमाई से क्रांतिकारी साथियों की मदद करने की योजना बनाई। लेकिन एक मित्र ने उन्हें अंग्रेज़ पुलिस के हवाले कर दिया और वे गिरफ्तार हो गए।
जेल में उन्हें कड़ी यातनाएँ दी गईं, लेकिन वे किसी भी तरह का समझौता नहीं कर सके। अंग्रेज़ अधिकारी उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश करते रहे, लेकिन अशफ़ाक़ ने कभी किसी के खिलाफ गवाही नहीं दी। उन्होंने कहा कि हिन्दू-मुस्लिमों में फूट डालकर आज़ादी की लड़ाई नहीं रोकी जा सकती। उनका मानना था कि भारत आज़ाद होकर रहेगा और देशवासियों को एकजुट रहना होगा।
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ को 19 दिसंबर 1927 को फैजाबाद जेल में फांसी दी गई। उनकी शहादत ने देश की आज़ादी की लड़ाई में हिन्दू-मुस्लिम एकता को मजबूत किया। उनका बलिदान आज भी एकता और देशभक्ति की प्रेरणा देता है।
