वीर सपूतों की भूमि राजस्थान राकी इस पावन प्रसूता धरा के कण कण में वीर योद्धाओं की आत्मा बसी हुई है। राजा रजवाड़ों की इस भूमि से अनेक वीर योद्धाओं क्रांतिकारियों ने अपनी शक्तियों और वीरता के कौशल से अपने पराक्रम के बल पर अपने शत्रुओं को नाकों चने चबवाए हैं ।अपनी मातृभूमि की आबरु बचाने के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर अपने प्राणों की आहुति यहां के योद्धाओं ने दी है ।इस मिट्टी के बारे में जानने के लिए महान कवि रामधारी सिंह दिनकर
की यह पंक्तियां पढ़ें…..
“जब जब में राजस्थान की धरती पर आता हूं तो मेरी रूह यह सोचकर
कांप उठती है कि कहीं मेरे पैर के नीचे किसी वीर की समाधि तो नहीं है,
किसी विरांगना का थान तो नहीं है ,जिससे कि उसका अपमान हो जाए “
जीवन
उदयपुर में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे तथा राणा रायमल के सबसे छोटे पुत्र थे। यह वीर, उद्धार, कृतज्ञ, बुद्धिमान और न्यायपरायण शासक थे रायमल के जीवनकाल में ही सत्ता के लिए पुत्रों के बीच आपसी संघर्ष प्रारंभ हो गया। कहा जाता है, कि एक बार कुवंर पृथ्वीराज, जयमल और संग्राम सिंह ने अपनी-अपनी जन्मपत्रीयाँ एक ज्योतिषी को दिखाते हैं। उन्हें देखकर उसने कहा कि गृह तो पृथ्वीराज और जयमल के भी अच्छे हैं, परंतु राजयोग संग्राम सिंह के पक्ष में होने के कारण मेवाड़ का स्वामी वही होगा। यह सुनते ही दोनों भाई संग्राम सिंह पर टूट पड़े।
पृथ्वीराज ने हूल मारी जिससे संग्राम सिंह की एक आंख फूट गई थी। इस समय तो सारंगदेव (रायमल के चाचाजी) ने बीच-बचाव कर किसी तरह उन्हें शांत किया। किंतु दिनों-दिन कुंवरों में विरोध का भाव बढ़ता ही गया। सारंगदेव ने उन्हें समझाया कि ज्योतिषी के कथन पर विश्वास कर आपस में संघर्ष नहीं करना चाहिए। इस समय सांगा अपने भाइयों के डर से श्रीनगर(अजमेर) के क्रमचंद पंवार के पास अज्ञात वास बिता रहे थे | रायमल ने राणा सांगा बुलाकर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
राज्याभिषेक
सांगा कई वर्षों तक भेष बदल कर रहे और इधर-उधर दिन काटते रहे, इसी क्रम में वे एक घोड़ा खरीदकर श्रीनगर (अजमेर जिले में) के करमचंद परमार की सेवा में जाकर चाकरी करने लगे। इतिहास में प्रसिद्ध है कि एक दिन करमचंद अपने किसी सैनिक अभियान के बाद जंगल में आराम कर रहा था। उसी वक्त सांगा भी एक पेड़ के नीचे अपना घोड़ा बाँध आराम करने लगा और उसे नींद आ गई।
सांगा को सोते हुए कुछ देर में उधर से गुजरते हुए कुछ राजपूतों ने देखा कि सांगा सो रहे है और एक सांप उनपर फन तानकर छाया कर रहा है। यह बात उन राजपूतों ने करमचंद को बताई तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने खुद ने जाकर यह घटना अपनी आँखों से देखी।इस घटना के बाद करमचंद को सांगा पर सन्देह हुआ कि हो ना हो, यह कोई महापुरुष है या किसी बड़े राज्य का वारिश और उसने गुप्तरूप से रह रहे सांगा से अपना सच्चा परिचय बताने का आग्रह किया। तब सांगा ने उसे बताया कि वह मेवाड़ राणा रायमल के पुत्र है और अपने भाइयों से जान बचाने के लिए गुप्त भेष में दिन काट रहा है।करमचंद पवार ने राणा सांगा को अज्ञात वास में रखा और जब तक उनका राज तिलक न हो गया तब तक वह उन के आश्रयदाता बने रहे। उनके बड़े भाइयों की मृत्यु के उपरांत राणा सांगा 24 मई 1509 को मेवाड़ की गद्दी पर आसीन हुए।
सांगा के समकालीन विरोधी
सांगा जब मेवाड़ की बागडोर अपने हाथों में ली तब मेवाड़ की स्थिति न केवल सोचनीय थी बल्की मेवाड़ चारों ओर से शत्रुओं से भी गिरी थी। राणा सांगा ने अपने कौशल और वीरता के बल पर सभी को सबक सिखाया |दिल्ली सल्तनत से? राज्याभिषेक के समय सिकंदर लोदी, गुजरात में महमूद शाह बेगड़ा, और मालवा में नासिर शाह खिलजी उनके चारो और मंडरा रहे थे।
राणा सांगा के प्रमुख युद्ध:-
1. खतौली का युद्ध : 1517 (बूंदी)
2. बाड़ी या बारी का युद्ध : 1518 (धौलपुर)
3. गागरोन का युद्ध : 1519 (झालावाड़)
4.बयाना का युद्ध : 16 फरवरी 1527 (भरतपुर)
5.खावना का युद्ध : 17 मार्च 1527 (भरतपुर)
राजपूतों को किया एकजुट : राणा सांगा सिसोदिया राजवंश के सूर्यवंशी शासक थे। यह पहली बार ऐसा था जबकि उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ सभी राजपूतों को एकजुट कर लिया था। उन्होंने दिल्ली, गुजरात, मालवा के मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य कि बहादुरी से रक्षा की थी।
शरीर पर थे 80 घाव : राणा सांगा ने इब्राहिम लोधी, महमूद खिलजी और बाबार के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ी थी। उन्होंने सभी को धूल चटाई थी। युद्ध में उनके शरीर पर लगभग 80 घाव हो गए थे फिर भी वे लड़ते रहे। उनकी एक आंख, एक हाथ और एक पैर क्षतिग्रस्त हो गया था। इसके बावजूद वे लड़ने जाते थे। उनके घावों के कारण उन्हें 'मानवों का खंडहर' भी कहा जाता था। खातोली के युद्ध में महाराणा सांगा का एक हाथ कट गया और एक पैर ने काम करना बंद कर दिया था।
गुजरात-मालवा के सुल्तान को हराया : गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर से राणा सांगा का संघर्ष ईडर के कारण हुआ। ईडर के राव भाण के 2 पुत्र सूर्यमल और भीम थे। सूर्यमल के बाद उसका बेटा रायमल ईडर की गद्दी पर बैठा, परंतु रायमल के चाचा भीम ने गद्दी पर कब्जा कर लिया तो रायमल ने मेवाड़ में शरण ली जहां महाराणा सांगा ने अपनी पुत्री की सगाई उसके साथ कर दी थी। 1516 में रायमल ने महाराणा सांगा की सहायता से भीम के पुत्र भारमल को हटाकर ईडर पर पुन: अधिकार कर लिया था। इससे गुजरात का का सुल्तान मुजफ्फर भड़क गया और उसने अहमदनगर में जागीरदार निजामुद्दीन को युद्ध के लिए भेजा परंतु निजामुद्दीन को हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद सुल्तान ने मुवारिजुल्मुल्क को भेजा और उसे भी हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद सुल्तान ने 1520 में मलिक अयाज तथा किवामुल्मुल्क की अध्यक्षता में दो अलग-अलग सेनाएं मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजी। मालवा का सुल्तान महमूद भी इस सेना के साथ आ मिला था किंतु मुस्लिम अफसरों में अनबन के कारण मलिक अयाज आगे नहीं बढ़ सका था और संधि कर उसे वापस लौटना पड़ा था। यह भी कहा जाता है कि राणा सांगा ने मालवा के
शासक महमूद खिलजी को युद्ध में हराने के बाद आगरा के निकट एक छोटी-सी नदी पीलिया खार तक अपने साम्राज्य को बढ़ा लिया था।
इब्राहिम लोदी को हराया : महाराणा सांगा ने सिकंदर लोदी के समय ही दिल्ली के कई इलाकों पर अपना अधिकार करना शुरू कर दिया था। सिकंदर लोदी के उत्तराधिकारी इब्राहिम लोदी ने 1517 में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया था। खातोली (कोटा) नामक स्थान पर दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ जिसमें महाराणा सांगा की विजय हुई। कहते हैं कि इस युद्ध में सांगा का बायां हाथ कट गया था और घुटने पर तीर लगने से वह हमेशा के लिए लंगड़े हो गए थे। खातोली की पराजय का बदला लेने के लिए 1518 में इब्राहिम लोदी ने मियां माखन की अध्यक्षता में महाराणा सांगा के विरुद्ध एक बड़ी सेना भेजी जिसे भी पराजय का सामना करना पड़ा था।
माण्डु के सुल्तान को हराया : कहते हैं कि राणा सांगा ने माण्डु के शासक सुलतान मोहम्मद को युद्ध में हराने के बाद उन्हें बन्दी बना लिया था परंतु बाद उन्होंने उदारता दिखाते हुए उन्हें उनका राज्य पुनः सौंप दिया था।
बाबर से नहीं किया समझौता : इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि राणा सांगा ने बाबर के साथ क्या समझौता किया था। ऐसा कहा जाता है कि बाबर चाहता था कि राणा सांगा इब्राहिम लोदी के खिलाफ युद्ध में मेरा साथ दे, लेकिन राणा सांगा ने दिल्ली और आगरा के अभियान के दौरान बाबर का साथ नहीं दिया था और न ही उन्होंने बाबर को कोई न्योता दिया था। राणा को लगता था कि बाबर भी तैमूर की भांति दिल्ली में लूटपाट करके लौट जाएगा। किंतु 1526 ईस्वी में राणा सांगा ने देखा कि इब्राहीम लोदी को 'पानीपत के युद्ध' में परास्त करने के बाद बाबर दिल्ली में शासन करने लगा है तब राणा ने बाबर से युद्ध करने का निर्णय कर लिया।
कहते हैं कि खानवा युद्ध शुरू होने से पहले राणा सांगा के साथ हसन खां मेवाती, महमूद लोदी और अनेक राजपूत अपनी-अपनी सेना लेकर राणा के साथ हो लिए थे और आगरा को घेरने के लिए सभी आगे बढ़े। बाबर से बयाना के शासक ने सहायता मांगी और ख्वाजा मेंहदी को युद्ध के लिए बयाना भेजा परंतु राणा सांगा ने उसे पराजित करके बयाना पर अधिकार कर लिया। लगातार मिल रही हार से मुगल सैनिक में डर बैठ गया था। ऐसे में बाबर ने मुसलमानों को एकजुट करने के लिए उन पर से टैक्स हटाकर जिहाद का नारा दिया और बड़े स्तर पर युद्ध की तैयारी की।
खानवा का युद्ध : 1527 में राणा सांगा और मुगल बादशाह बाबर के भयानक युद्ध हुआ। खानवा के मैदान में दोनों सेनाओं के बीच जबरदस्त खूनी मुठभेड़ हुई। बाबर 2 लाख मुगल सैनिक थे और ऐसा कहा जाता है कि राणा सांगा के पास भी बाबर जितनी सेना थी। बस फर्क यह था कि बाबार के पास गोला-बारूद का बड़ा जखीरा था और राणा के पास साहस एवं वीरता। युद्ध में बाबर ने राणा के साथ लड़ रहे लोदी सेनापति को लालच दिया जिसके चलते सांगा को धोखा देकर लोदी और उसकी सेना बाबर से जा मिली। लड़ते हुए राणा सांगा की एक आंख में तीर भी लगा, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की और युद्ध में डटे रहे। इस युद्ध में उन्हें कुल 80 घाव आए थे। उनकी लड़ाई में दिखी वीरता से बाबर के होश उड़ गए थे। लोदी के गद्दारी करने की वजह से राणा सांगा की सेना शाम होते-होते लड़ाई हार गई थी।
समृद्ध प्रदेश मेवाड़ : कहते हैं कि राणा सांगा के समय मेवाड़ एक समृद्ध राज्य हुआ करता था। महाराणा सांगा के समय मेवाड़ दस करोड़ सालाना आमदनी वाला प्रदेश था। राणा सांगा ने एक आदर्श शासक बनकर राज्य की उन्नति और रक्षार्थ अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया था।
राणा सांगा का निधन : कहते हैं कि खानवा के युद्ध में सांगा बेहोश हो गए थे जहां से उनकी सेना उन्हें किसी सुरक्षित जगह ले गई थी। वहां होश में आने के बाद उन्होंने फिर से लड़ने की ठानी और चित्तौड़ नहीं लौटने की कसम खाई। कहते हैं कि यह सुनकर जो सामंत लड़ाई नहीं चाहते थे उन्होंने राणा को जहर दे दिया था जिसके चलते 30 जनवरी 1528 में कालपी में उनकी मृत्यु हो गई। उनके देहांत के बाद अगला उत्तराधिकारी उनका पुत्र रतन सिंह द्वितीय हुआ था।
राणा सांगा का विधि विधान से अन्तिम संस्कार माण्डलगढ (भीलवाड़ा) में हुआ। इतिहासकारों के अनुसार उनके दाह संस्कार स्थल पर एक छतरी बनाई गई थी। ऐसा भी कहा जाता है कि वे मांडलगढ़ क्षेत्र में मुगल सेना पर तलवार से गरजे थे। युद्ध में महाराणा का सिर अलग होने के बाद भी उनका धड़ लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। कहते हैं कि युद्ध में महाराणा का सिर माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) की धरती पर गिरा, लेकिन घुड़सवार धड़ लड़ता हुआ चावण्डिया तालाब के पास वीरगति को प्राप्त हुआ।