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‘नाइट कमांडर ऑफ़ द ब्रिटिश इंडियन एम्पायर’-एम.मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या

Date : 14-Apr-2023

भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या (एम. विश्वेश्वरैया) एक प्रख्यात इंजीनियर और राजनेता थे। उन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत के निर्माण में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें वर्ष 1955 में देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्नसे अलंकृत किया गया था। भारत में उनका जन्मदिन अभियन्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है। जनता की सेवा के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नाइट कमांडर ऑफ़ ब्रिटिश इंडियन एम्पायर’ (KCIE) से सम्मानित किया। वो हैदराबाद शहर के बाढ़ सुरक्षा प्रणाली के मुख्य डिज़ाइनर थे और मुख्य अभियंता के तौर पर मैसोर के कृष्ण सागर बाँध के निर्माण में मुख्या भूमिका निभाई थी।

जीवन परिचय

सर एम. विश्वेश्वरैया के जन्मदिन को 'अभियन्ता दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया बहुत ही सौम्य विधारधारा वाले इंसान थे। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का जन्म मैसूर (जो कि अब कर्नाटक में है) के 'मुद्देनाहल्ली' नामक स्थान पर 15 सितम्बर, 1861 को हुआ था। बहुत ही ग़रीब परिवार में जन्मे विश्वेश्वरैया का बाल्यकाल बहुत ही आर्थिक संकट में व्यतीत हुआ। उनके पिता वैद्य थे। वर्षों पहले उनके पूर्वज आंध्र प्रदेश के 'मोक्षगुंडम' से यहाँ पर आये और मैसूर में बस गये थे। दो वर्ष की आयु में ही उनका परिचय रामायण, महाभारत और पंचतंत्र की कहानियों से हो गया था। ये कहानियाँ हर रात घर की वृद्ध महिलाएँ उन्हें सुनाती थीं। कहानियाँ शिक्षाप्रद मनोरंजक थी। इन कहानियों से विश्वेश्वरैया ने ईमानदारी, दया और अनुशासन जैसे मूल्यों को आत्मसात किया।

शिक्षा

पढ़ने लिखने में बाल्यकाल से ही तीव्र बुद्धि के स्वामी विश्वेश्वरैया ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल से प्राप्त की। विश्वेश्वरैया 'चिक्बल्लापुर' के मिडिल हाईस्कूल में पढ़े। आगे की शिक्षा के लिए उन्हें बैंगलोर जाना पड़ा। आर्थिक संकटों से जुझते हुए उन्होंने अपने रिश्तेदारों और परिचितों के पास रहकर और अपने से छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर किसी तरह बड़े प्रयास से अपना अध्ययन ज़ारी रक्खा। 19 वर्ष की आयु में बैंगलोर के कॉलेज से उन्होंने बी.. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इस कॉलेज के प्रिंसिपल, जो एक अंग्रेज़ थे, विश्वेश्वरैया की योग्यता और गुणों से बहुत प्रभावित थे। उन्हीं प्रिंसिपल साहेब के प्रयास से उन्हें पूना के इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश मिल गया। अपनी शैक्षिक योग्यता के बल पर उन्होंने छात्रवृत्ति प्राप्त करने के साथ साथ पूरे मुम्बई विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। सन् 1875 में विश्वेश्वरैया ने 'सेन्ट्रल कॉलेज' में प्रवेश लिया। उनके मामा उन्हें मैसूर राज्य सरकार के एक उच्च अधिकारी 'मुडइया' के पास ले गये। मुडइया के दो छोटे बच्चे थे। बच्चों को पढ़ाने के लिए विश्वेश्वरैया को रख लिया गया। उन्होंने अपने संरक्षक का धन्यवाद दिया। उन्होंने तुरन्त ही कार्य आरम्भ कर दिया। प्रतिदिन वह अपने मामा के घर से अपने कॉलेज और मुडइया के घर आने-जाने के लिए पन्द्रह किलोमीटर से ज़्यादा चलते। बाद में जब उनसे अच्छे स्वास्थ्य का रहस्य पूछा गया, तो उन्होंने कहा, 'मैंने चलकर अच्छा स्वास्थ्य पाया है।' अपने काम में उन्होंने अपनी समस्त मुश्किलों का मरहम पाया। ईमानदारी और निष्ठा से उन्होंने अपने कार्य को आभा प्रदान की। इससे 'सेन्ट्रल कॉलेज' के प्रिंसिपल चार्ल्स का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ।

वाटर्स का उपहार

अपने प्रिय छात्र पर कॉलेज के दौरान और कॉलेज छोड़ने पर भी वाटर्स कड़ी नज़र रखते रहे। वह इंग्लैंड लौट गये पर अपने भूतपूर्व छात्र में गहरी दिलचस्पी लेते रहे। अपनी वसीयत में वे उपहार के रूप में विश्वेश्वरैया के लिए अपना 'कफलिंक' छोड़ गये। श्रीमती वाटर्स इग्लैंड से उन्हें यह उपहार देने के लिए स्वयं आईं। उस समय विश्वेश्वरैया बम्बई के 'लोक निर्माण विभाग' में 'इंजीनियर' के पद पर कार्यरत थे। डिग्री परीक्षा में सन् 1880 में विशिष्टता के साथ सफल होने के पश्चात् विश्वेश्वरैया ने पुणे के 'साइन्स कॉलेज' में प्रवेश लिया। मैसूर राज्य सरकार से छात्रवृत्ति पाने के कारण ही वह ऐसा कर पाये थे। सन् 1883 में 'सिविल इंजीनियरिंग' के समस्त छात्रों में वह 'प्रथम' आये। तुरन्त ही उन्हें बम्बई के लोक निर्माण विभाग में सहायक इंजीनियर की नौकरी मिल गई।

वैज्ञानिक आविष्कार

विश्वेश्वरैया को सन् 1894-95 में सिन्ध (जो कि अब पाकिस्तान में है) के सक्खंर क्षेत्र में पीने के पानी की वितरण परियोजना का कार्य पूरा करने का काम सौंपा गया। उन्होंने इस कार्य को स्वीकार कर लिया। वह नगर में पहुँचे और जब उन्होंने सिन्धु नदी का सर्वेक्षण और परीक्षण किया, तो उन्हें गहरा आघात लगा। पानी गंदला मिट्टी से भरा हुआ था। जो कि मनुष्यों के इस्तेमाल के लिए पूर्णतया बेकार था। पानी को कैसे स्वच्छ किया जाए, इसके लिए उन्होंने तकनीकी पत्रों, व्यावसायिक पत्रिकाओं और रसायन की किताबों को पढ़ा। इस समस्या पर चिन्तन करते हुए उन्होंने कई रातें जागकर बिताईं। फिर समाधान निकल आया। उन्होंने पहले क्यों नहीं इस विकल्प के बारे में सोचा। वह प्रकृति की असीमित प्रक्रिया को समझ गये थे। वह पानी को छानने के लिए नदी की रेत का इस्तेमाल कर सकते हैं। उन्होंने परियोजना की रूपरेखा बनाई, डिजाइन को तैयार किया और कितनी कीमत लगेगी, इसका अनुमान लगाया। अपने साथ काम करने वालों को उन्होंने योजना के लाभ बताये। उनसे उनके विचार पूछे और यह पता लगा कि वे पूर्णतया सहमत हैं। नदी के तल में एक गहरा कुंआ बनाया जाए। कुंए तक पहुँचने से पहले पानी रेत की अनगिनत परतों में से गुजरेगा। जैसे ही पानी इस प्रक्रिया से रिसेगा, वह स्वच्छ हो जायेगा। रेत की असंख्य परतों से छन कर निकला हुआ पानी मनुष्य इस्तेमाल के योग्य होगा। अदन (दक्षिणी यमन) जो कि उस समय ब्रिटिश उपनिवेश था, के लिये पानी वितरण के लिए भी उन्होंने इसी सिद्धान्त को लागू किया। इस प्रकार जो कीमत थी, वह कम हो गई। इस नवीन कार्य के लिए सरकार ने विश्वेश्वरैया 'केसर--हिन्द' की उपाधि से सम्मानित किया।

त्यागपत्र

विश्वेश्वरैया आरक्षण के विरुद्ध थे। इस मामले में उनमें और महाराजा में मतभेद हो गया। विश्वेश्वरैया ने ज़ोर दिया कि वह सरकारी पदों की गुणवत्ता को कम नहीं करेंगे। यह आलस्य अकार्यकुशलता को जन्म देता है। जब उन्होंने यह देखा कि महाराजा निम्न पिछड़े वर्ग के लोगों की भलाई के लिए नियमों में ढील देने के दृढ़ संकल्प हैं तो उन्होंने सन् 1919 में त्यागपत्र दे दिया। नौकरी छोड़ने के बाद विश्वेश्वरैया सरकारी कार का प्रयोग करके अपनी कार में घर लौट आये। यह प्रमाणित करता है कि वह सरकारी सुविधाओं का इस्तेमाल करने में कितनी सतर्कता बरतते थे। जब वह व्यक्तिगत काम से जाते थे, जब सरकारी वाहन का इस्तेमाल कभी नहीं करते थे। और जब वह व्यक्तिगत पत्र लिखते, तो अपने काग़ज़  डाक सामग्री का प्रयोग करते।

उपलब्धियाँ

चीफ़ इंजीनियर और दीवान के पद पर कार्य करते हुए विश्वेश्वरैया ने मैसूर राज्य को जिन संस्थाओं योजनाओं का उपहार दिया, वे हैं-

मैसूर बैंक (1913),

मलनाद सुधार योजना (1914),

इंजीनियरिंग कॉलेज, बंगलौर (1916),

मैसूर विश्वविद्यालय और ऊर्जा बनाने के लिए पावर स्टेशन (1918)

लेखक के रूप में

जब उन्होंने नौकरी छोड़ी तब उनकी आयु 58 वर्ष से अधिक थी। कोई और व्यक्ति होता तो लम्बी सार्थक नौकरी के बाद अपने अवकाश पर आनन्द उठाता, पर विश्वेश्वरैया ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने 'भारत का पुनर्निर्माण' (1920), 'भारत के लिये नियोजित अर्थ व्यवस्था' (1934) नामक पुस्तकें लिखीं और भारत के आर्थिक विकास का मार्गदर्शन किया।

गोलमेज सम्मेलन का समर्थन

विश्वेश्वरैया सन् 1921 में राष्ट्रवादियों में सम्मिलित हो गये और वाइसराय से विचार-विमर्श किया। स्वराज की मांग पर विचार करने के लिए उन्होंने 'गोलमेज सम्मेलन' पर ज़ोर दिया।

विकास योजनाओं में उत्साहपूर्वक भाग लेते हुए, वह गतिविधियों के बीच रहे।

भद्रावती इस्पात योजना के पीछे इन्हीं का हाथ था।

बंगलौर में 'हिन्दुस्तान हवाई जहाज़ संयंत्र' की स्थापना में इन्होंने दिलचस्पी दिखाई।

उन्होंने विजाग पोत-कारख़ाना बनाने पर ज़ोर दिया और निर्माण के समय कई अच्छे सुझाव भी दिये।

निष्पक्ष

उस समय वह क़रीब 92 वर्ष के थे, जब पंडित नेहरू ने यह सुझाव दिया कि गंगा पर पुल बनाने के लिए वह विभिन्न राज्य सरकारों के प्रस्तावों की जांच करें। उन्हें बिहार में मोकामेह, राजमहल, सकरीगली घाट, और पश्चिम बंगाल में फ़रक्का में से दो स्थलों को चुनना था। नेहरू ने यह कहकर उन्हें चुना कि 'वह ईमानदार, चरित्रवान उदार राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखने वाले इंजीनियर हैं, जो पक्षपातरहित निर्णय ले सकते हैं। स्थानीय दवाबों से ऊपर उठ कर कार्य कर सकते हैं और उनके विचारों का सब लोग सम्मान करते हैं, एवं वे सब उनको स्वीकार करते हैं।' विश्वेश्वरैया उन स्थलों पर गये। उन्होंने सह पायलट की सीट पर, कॉकपिट में बैठकर, नदी और नदी के तटों का बारीकी से जांच करने के लिये हवाई सर्वेक्षण किया। ताकि पुल बनाने के लिए सही स्थल को चुना जा सके। इस दौरे के दौरान वह पटना में रुके। राज्यपाल एम. एस. आणे ने उन्हें राजभवन में रहने का निमंत्रण दिया। विश्वेश्वरैया ने यह कहते हुए अस्वीकार किया कि यह उनके लिए अनुचित होगा कि वह राज्यपाल की मेहमानवाज़ी का आनन्द उठायें। जबकि समिति के अन्य सदस्य होटलों में रहेंगे। राज्यपाल ने तब समिति के सारे सदस्यों को आमंत्रित किया। बाद में एम. एस. आणे ने कहा, 'सुविधा से पहले कर्तव्य विश्वेश्वरैया का आदर्श है।' अन्तत: विश्वेश्वरैया ने पुल बनाने के लिए मोकामेह और फ़रक्का नामक स्थानों का सुझाव दिया।

भारत रत्न

पनी शताब्दी पूरी करने के बाद भी यह महान् व्यक्ति पूरी तरह स्वस्थ था। वह सुबह-शाम सैर पर जाते। वह सदा समय के पाबन्द रहे और उनमें जीने का उत्साह सदा बना रहा। वह अपने विचारों में पूर्णरूप से स्वतंत्र थे। जब उन्हें सन् 1955 में भारत रत्न प्रदान किया गया, तो उन्होंने पंडित नेहरू को लिखा, 'अगर आप यह सोचते हैं कि इस उपाधि से विभूषित करने से मैं आपकी सरकार की प्रशंसा करूँगा, तो आपको निराशा ही होगी। मैं सत्य की तह तक पहुँचने वाला व्यक्ति हूँ।' नेहरू ने उनकी बात की प्रशंसा की। उन्होंने विश्वेश्वरैया को आश्वासन दिया कि राष्ट्रीय घटनाओं विकास पर टिप्पणी करने के लिए वह स्वतंत्र हैं। यह सम्मान उन्हें उनके कार्यों के लिये दिया गया है। इसका मतलब उन्हें चुप कराना नहीं है।

अंतिम समय

102 वर्ष की आयु में भी वह काम करते रहे। उन्होंने कहा, "जंग लग जाने से बेहतर है, काम करते रहना।" जब तक वह कार्य कर सकते थे, करते रहे। 14 अप्रैल सन् 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। लेकिन वह अपने कार्यों के द्वारा अमर हो गये। अन्त समय तक भी उनका ज्ञान पाने का उत्साह कम नहीं हुआ था। वह एकाग्रचित्त होकर ज्ञान की तलाश करते रहे। जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया, उससे उन्हें प्रकृति और प्रकृति में निहित शक्ति ऊर्जा को जन कल्याण के लिए काम में लगाने में सहायता मिली। विश्वेश्वरैया महान् व्यक्ति के रूप में नहीं जन्मे थे। ही महानता उन पर जबरदस्ती थोपी गई थी। कठिन परिश्रम, ज्ञान को प्राप्त करने के अथक प्रयास, परियोजनाओं योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए ज्ञान का उपयोग, जिसके द्वारा जनसमुदाय की आर्थिक सामाजिक स्थिति को सुधारने के अधिक अवसर मिले, द्वारा महानता प्राप्त की। विश्वेश्वरैया में बहुमूर्तिदर्शी जैसा कुछ था। जितनी बार भी हम उन्हें देखते हैं, उनकी महानता का एक नया उदाहरण सामने आता है। चाहे उन्होंने किसी भी दृष्टिकोण से सोचा हो, उनकी महानता का कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता। उनकी गहन राष्ट्रीयता की भावना ही है जो हमारा ध्यान आज भी उनकी ओर आकर्षित करती है। दूसरी ओर हम उनके काम के प्रति दृष्टिकोण से प्रभावित हैं, और आगे देखें तो ग़रीबों के प्रति उनके स्थाई प्रेम को देखते हैं, और फिर देखें तो हम उनके अच्छे स्वास्थ्य में झांकते हैं। उनकी महानता के पहलू असीमित हैं।

 

 

 
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