जगत गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी | The Voice TV

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तुम खुद अपने भाग्य के निर्माता हो - स्वामी विवेकानंद

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जगत गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी

Date : 16-Apr-2023

जगत गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी मध्य काल में सगुण भक्ति के उपासक थे. अग्नि अवतार (वैश्वानरावतार) के रूप में जाने गये वल्लभ चार्य जी कृष्ण भक्ति शाखा के स गुण धारा के मुख्य भक्त कवि थे. महाप्रभु वल्लभाचार्य के सम्मान में भारत सरकार ने सन 1977 में प्रथम बार भारतीय मुद्रा पर उनके नाम का डाक टिकट जारी किया गया.  भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता माने जाते हैं। जिनका प्रादुर्भाव ईः सन् 1479, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ। उन्हें 'वैश्वानरावतार अग्नि का अवतार' कहा गया है। वे वेद शास्त्र में पारंगत थे। श्री रुद्रसंप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें 'अष्टादशाक्षर गोपाल मन्त्र' की दीक्षा दी गई। त्रिदंड सन्न्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से प्राप्त हुई। विवाह पंडित श्रीदेव भट्ट जी की कन्या महालक्ष्मी से हुआ, और यथासमय दो पुत्र हुए- श्री गोपीनाथ व विट्ठलनाथ।

जीवन परिचय

श्री वल्लभाचार्य जी विष्णुस्वामी संप्रदाय की परंपरा में एक स्वतंत्र भक्ति-पंथ के प्रतिष्ठाता, शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत के समर्थक प्रचारक और भगवत-अनुग्रह प्रधान एवं भक्ति-सेवा समन्वित 'पुष्टि मार्ग' के प्रवर्त्तक थे। वे जिस काल में उत्पन्न हुए थे, वह राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सभी दृष्टियों से बड़े संकट का था

 

पूर्वज और माता-पिता

श्री वल्लभाचार्य जी के पूर्वज आंध्र राज्य में गोदावरी तटवर्ती कांकरवाड़ नामक स्थान के निवासी थे। वे भारद्धाज गोत्रीय तैलंग ब्राह्मण थे उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट दीक्षित प्रकांड विद्वान और धार्मिक महापुरुष थे। उनका विवाह विद्यानगर (विजयनगर) के राजपुरोहित सुशर्मा की गुणवती कन्या इल्लम्मगारू के साथ हुआ था; जिससे रामकृष्ण नामक पुत्र और सरस्वती एवं सुभद्रा नाम की दो कन्याओं की उत्पत्ति हुई थी।

जन्म

श्री लक्ष्मण भट्ट अपने संगी-साथियों के साथ यात्रा के कष्टों को सहन करते हुए जब वर्तमान मध्य प्रदेश में रायपुर ज़िले के चंपारण्य नामक वन में होकर जा रहे थे, तब उनकी पत्नी को अकस्मात प्रसव-पीड़ा होने लगी। सांयकाल का समय था। सब लोग पास के चौड़ा नगर में रात्रि को विश्राम करना चाहते थे; किन्तु इल्लमा जी वहाँ तक पहुँचने में भी असमर्थ थीं। निदान लक्ष्मण भट्ट अपनी पत्नी सहित उस निर्जंन वन में रह गये और उनके साथी आगे बढ़ कर चौड़ा नगर में पहुँच गये। उसी रात्रि को इल्लम्मागारू ने उस निर्जन वन के एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे अठमासे शिशु को जन्म दिया। बालक पैदा होते ही निष्चेष्ट और संज्ञाहीन सा ज्ञात हुआ, इसलिए इल्लम्मागारू ने अपने पति को सूचित किया कि मृत बालक उत्पन्न हुआ है। रात्रि के अंधकार में लक्ष्मण भट्ट भी शिशु की ठीक तरह से परीक्षा नहीं कर सके। उन्होंने दैवेच्छा पर संतोष मानते हुए बालक को वस्त्र में लपेट कर शमी वृक्ष के नीचे एक गड़ढे में रख दिया और उसे सूखे पत्तों से ढक दिया। तदुपरांत उसे वहीं छोड़ कर आप अपनी पत्नी सहित चौड़ा नगर में जाकर रात्रि में विश्राम करने लगे।

दूसरे दिन प्रात:काल आगत यात्रियों ने बतलाया कि काशी पर यवनों की चढ़ाई का संकट दूर हो गया। उस समाचार को सुन कर उनके कुछ साथी काशी वापिस जाने का विचार करने लगे और शेष दक्षिण की ओर जाने लगे। लक्ष्मण भट्ट काशी जाने वाले दल के साथ हो लिये। जब वे गत रात्रि के स्थान पर पहुंचे, तो वहाँ पर उन्होंने अपने पुत्र को जीवित अवस्था में पाया। ऐसा कहा जाता है उस गड़ढे के चहुँ ओर प्रज्जवलित अग्नि का एक मंडल सा बना हुआ था और उसके बीच में वह नवजात बालक खेल रहा था। उस अद्भुत दृश्य को देख कर दम्पति को बड़ा आश्चर्य और हर्ष हुआ। इल्लम्मा जी ने तत्काल शिशु को अपनी गोद में उठा लिया और स्नेह से स्तनपान कराया। उसी निर्जन वन में बालक के जातकर्म और नामकरण के संस्कार किये गये। बालक का नाम 'वल्लभ' रखा गया, जो बड़ा होने पर सुप्रसिद्ध महाप्रभु वल्लभाचार्य हुआ। उन्हें अग्निकुण्ड से उत्पन्न और भगवान की मुखाग्नि स्वरूप 'वैश्वानर का अवतार' माना जाता है।

कुटुम्ब-परिवार 

काफ़ी बड़ा और समृद्ध था, जिसके अधिकांश व्यक्ति दक्षिण के आंध्र प्रदेश में निवास करते थे। उनकी दो बहिनें और तीन भाई थे। बड़े भाई का नाम रामकृष्ण भट्ट था। वे माधवेन्द्र पुरी के शिष्य और दक्षिण के किसी मठ के अधिपति थे। उन्होंने तपस्या द्वारा बड़ी सिद्धि प्राप्त की थी। संवत 1568 में वे वल्लभाचार्य जी के साथ बदरीनाथ धाम की यात्रा को गये थे। अपने उत्तर जीवन में वे सन्न्यासी हो गये थे। उनकी सन्न्यासावस्था का नाम केशवपुरी था। वल्लभाचार्य जी के छोटे भाई रामचन्द्र और विश्वनाथ थे। रामचंद्र भट्ट बड़े विद्वान और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनके एक पितृव्य ने उन्हें गोद ले लिया था और वे अपने पालक पिता के साथ अयोध्या में निवास करते थे। उन्होंने अनेक ग्रंथो की रचना की थी, जिनमें 'श्रृंगार रोमावली शतक' (रचना-काल संवत 1574), 'कृपा-कुतूहल', 'गोपाल लीला' महाकाव्य और 'श्रृंगार वेदान्त' के नाम मिलते हैं। वल्लभाचार्य जी का अध्ययन सं. 1545 में समाप्त हो गया था। तब उनके माता-पिता उन्हें लेकर तीर्थ यात्रा को चले गये थे। वे काशी से चल कर विविध तीर्थों की यात्रा करते हुए जगदीश पुरी गये और वहाँ से दक्षिण चले गये। दक्षिण के श्री वेंकटेश्वर बाला जी में संवत 1546 की चैत्र कृष्ण 9 को उनका देहावसान हुआ था। उस समय वल्लभाचार्य जी की आयु केवल 11-12 वर्ष की थी, किन्तु तब तक वे प्रकांड विद्वान और अद्वितीय धर्म-वेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। उन्होंने काशी और जगदीश पुरी में अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। वल्लभाचार्य जी के दो पुत्र हुए थे। बड़े पुत्र गोपीनाथ जी का जन्म संवत 1568 की आश्विन कृष्ण द्वादशी को अड़ैल में और छोटे पुत्र विट्ठलनाथ का जन्म संवत 1572 की पौष कृष्ण 9 को चरणाट में हुआ था। दोनों पुत्र अपने पिता के समान विद्वान और धर्मनिष्ठ थे।

अद्वैतवाद

 अद्वैत वेदान्त की प्रतिक्रियास्वरूप ही वेदान्त के अन्य सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ। रामानुज, निम्बार्क, मध्व और वल्लभ ने ज्ञान के स्थान पर भक्ति को अधिक प्रश्रय देकर वेदान्त को जनसामान्य की पहुँच के योग्य बनाने का प्रयास किया। उपनिषद, 'गीता' और ब्रह्मसूत्र के विश्लेषण पर ही शंकर के अद्वैतवाद का भवन खड़ा हुआ था। इसी कारण अन्य आचार्यों ने भी प्रस्थानत्रयी के साथ साथ भागवत को भी अपने मत का आधार बनाया। यद्यपि वल्लभाचार्य ने वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र तथा श्रीमद्भागवत की व्याख्याओं के माध्यम से अपने मत का उपस्थान किया, किन्तु उनका यह भी विचार रहा है कि उपर्युक्त स्रोत ग्रन्थों में से उत्तरोत्तर का प्रामाण्य अधिक है। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि शुद्धाद्वैत के संदर्भ में वल्लभाचार्य द्वारा भागवत पर रचित सुबोधिनी टीका का महत्त्व बहुत अधिक है। दर्शन में भक्ति का पुट श्रीमद्भागवत से अधिक शायद ही किसी अन्य ग्रन्थ में उपलब्ध होता हो। अत: वल्लभाचार्य के लिए यह स्वाभाविक ही था कि वह श्रीमद्भागवत को अधिक महत्त्व देते।

जगत् और संसार

वल्लभाचार्य के मतानुसार जगत् और संसार में अंतर है। जगत् उसे कहते हैं, जो ईश्वर की इच्छा व विलास से आविर्भूत हो। इसके विपरीत, जीव अविद्या के प्रभाव से कल्पना तथा ममता द्वारा अर्थात् अविद्या के स्वरूपज्ञान, देहध्यास, इन्द्रियाध्यास, प्राणाध्यास तथा अंत:करणाध्यास- इन 'पर्वी' द्वारा जीवों की बुद्धि में जो द्वैतमूलक भ्रम उत्पन्न होता है, उससे जिस पदार्थ वर्ग की सृष्टि करता है वह संसार कहलाता है। ज्ञान होने पर संसार का नाश हो जाता है, किन्तु जगत् ब्रह्मरूप होने के कारण नष्ट नहीं होता। शुद्धाद्वैतवाद के अनुसार जगत् ब्रह्म और जीव के समान नित्य है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो विश्व दो प्रकार का होता है, एक पृथ्वी, सूर्य, चंद्र आदि से बना हुआ जड़ जगत्, जिसमें चेतन जीव रहते हैं और दूसरा जीवों के ममत्व से उत्पन्न हुआ संसार। ब्रह्म जगत् का निमित्त कारण शरीर और उपादान कारण दोनों है। ब्रह्म को समवायिकारण भी कहा गया है, क्योंकि वह सत्, चित् और आनंद रूप में सर्वव्यापक है।

मोक्ष और माया

अद्वैतवाद में माया को उपादान कारण माना गया है। वल्लभाचार्य ने माया के दो भेद बताये हैं- अविद्या माया और विद्या माया। अविद्या माया जीव में भ्रान्ति उत्पन्न करती है, जिससे कि वह अपने चित् रूप को भूल जाता है। विद्या माया अज्ञान नाशिनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के संदर्भ में प्राय: तीन मार्गों का उल्लेख किया जाता है- कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग। वेदान्त के विभिन्न सम्प्रदायों में इनके सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद रहा है। शुद्ध द्वैतवाद के अनुसार अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, पशुयाग, चातुर्मास्य और सोमयाग करने से मोक्ष प्राप्त होता है। किन्तु ऐसा मोक्ष देवयान मार्ग का अनुसरण करके ही प्राप्त होता है। जो व्यक्ति ज्ञान मार्ग का अनुसरण करता है यानी यह ज्ञान प्राप्त कर लेता है कि जगत् में जो कुछ है, वह सब ब्रह्म ही है, वह अक्षर ब्रह्म में विलीन होता है, न कि परब्रह्म में, क्योंकि ज्ञानमार्गी की सीमा अक्षर ब्रह्म तक ही है। ज्ञानमार्गी अक्षर ब्रह्म का ही अंतिम सत्ता समझता है। हाँ, यदि ब्रह्मज्ञान में भक्ति का सामंजस्य हो जाये तो व्यक्ति परब्रह्म में लीन हो सकता है। इससे भी उत्तम स्थिति वह है, जिसमें परब्रह्म अपनी ही इच्छा से किसी जीव का अपने अंदर से आविर्भाव करके उसके साथ स्वयं नित्यलीला करता है। यही भजनानंद या स्वरूपानंद की स्थिति है। शंकर ने मतानुसार जीव ब्रह्मक्य रूप मुक्ति का प्रतिपादन किया था, किन्तु वल्लभाचार्य के मतानुसार भगवद माहात्म्यज्ञानपूर्विका भक्ति ही मुक्ति का कारण है। यद्यपि भक्ति मुक्ति का साधन, परन्तु उसका महत्त्व मुक्ति से भी अधिक है। वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैतवाद को स्पष्ट रूप से समझने के लिए यह भी आवश्यक है कि वेदान्त के अन्य सम्प्रदायों और विशेष रूप से शंकर के सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में उसकी सरसरी समीक्षा कर ली जाये।

शुद्धाद्वैतवाद का तुलनात्मक विश्लेषण

वल्लभाचार्य का दार्शनिक सिद्धांत शुद्धाद्वैत नाम से प्रचलित हुआ। शंकराचार्य ने अद्वैतवाद का प्रवर्तन करते हुए यह कहा था कि ब्रह्म और जीव में पारमार्थिक अमेद है। मध्वाचार्य ने शंकर के अद्वैतवाद के एकदम विपरीत द्वैतवाद की स्थापना की और यह प्रतिपादित किया कि ब्रह्म, जीव एवं जड़ जगत् में पारमार्थिक अमेद है। इन परस्पर विरोधी मतों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हुए रामानुजचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद का प्रवर्तन किया, जिसके अनुसार ब्रह्म, जीव एवं जगत् की पृथक् सत्ता तो है और तीनों नित्य भी हैं, किन्तु जीव और जगत् ब्रह्म के विशेषण हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि शंकर के अनुसार जीव एकदम भिन्न सत्तायें हैं, जबकि रामानुज के अनुसार जीव की पृथक् सत्ता तो है, किन्तु वह ब्रह्म का एक प्रकार (विशेषण) है। उनमें अंशाशिभाव है। निम्बार्क के द्वैताद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म, जीव और जगत् में आश्रयाश्रयिभाव सम्बन्ध है। ईश्वर आश्रय है और जीव तथा जगत् की सत्ता आश्रय रूप ईश्वर के बिना संभव नहीं है। अत: ईश्वर, जीव और जगत् में भेद भी है और अभेद भी। वल्लभाचार्य के अनुसार जगत में ब्रह्म की आविर्भाव दशा है। जीव अणु है और ईश्वर का अंश है (अग्नि और स्फुलिंग के समान) जीव सर्वव्यापक है, किन्तु सर्वज्ञ नहीं है, फिर भी जीव और ब्रह्म में अभिन्नत्व है। जीव के समान जगत भी ईश्वर का ही रूप है। अत: वह भी ईश्वर से अभिन्न है। वल्लभ ने माया के सम्बन्ध में अलिप्त होने के कारण ब्रह्म को शुद्ध कहा है। अत: उनका सिद्धांत शुद्धाद्वैतवाद के रूप में प्रचलित हुआ है। शुद्धाद्वैत पर का विग्रह दो प्रकार से किया जा सकता है- (क) शुद्धं चेदम् अद्वैतं च (कर्मधारय) (ख) शुद्धयो: अद्वैतम् (षष्ठी तत्पुरुष)।

वल्लभाचार्य और अष्टछाप

वल्लभाचार्य ने विशिष्टाद्वैत वादी पुष्टिमार्ग की स्थापना की. आगे चलकर उनके पुत्र विठ्ठलनाथ ने अष्टछाप कवियों की परि कल्पना की, जिन्हें कृष्ण सखा भी कहा गया. इनमे चार वल्लभाचार्य के शिष्यभी हैं. सूरदास, कुम्भनदास, परमानन्ददास और कृष्णदास. विट्ठलनाथ के शिष्य नंददास, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी और चतुर्भजदास. वल्लभ संप्रदाय के अष्टछाप कवियों का विशेष स्थान हैं.

 

कहा जाता हैं कि जब गोवर्धन में श्रीनाथ की प्रतिष्ठा हो गई तब ये भक्ति कवि अष्टछाप सेवा में संलग्न रहते थे. मंगलाचरण श्रृंगार से लेकर संध्या आरती और शयन तक. अष्टछाप के कवियों में सूरदास सर्वोपरि हैं. जिन्हें भक्तिकाव्य में तुलसी के समकक्ष माना गया हैं.

 

 

वल्लभाचार्य और सूरदास का मिलन

वृंदावन की ओर जाने के लिए जब वल्लभाचार्य आगरा-मथुरा रोड पर यमुना नदी के किनारे किनारे जा रहे थे, तभी उन्हें वहां पर एक ऐसा अंधा व्यक्ति दिखाई देगा, जो रो रहा था। जिस पर वल्लभाचार्य उसके पास गए और वल्लभाचार्य ने उस व्यक्ति से कृष्ण लीला का गान करने के लिए कहा। इस पर अंधे व्यक्ति जिसका नाम सूरदास था, उसने कहा कि मेरी तो आंखें ही नहीं है मैं क्या जानू की कृष्ण लीला क्या होती है।

तब वल्लभाचार्य ने सूरदास के माथे पर हाथ रखा। इतना करने पर ही सूरदास को स्वाभाविक तौर पर 5000 सालों से ब्रज में चली आ रही श्री कृष्ण की सभी लीला कथाएं बंद आंखों से ही स्मरण हो गई और उसके बाद वल्लभाचार्य सूरदास को अपने साथ लेकर के वृंदावन पहुंचे और यहां पर आने के बाद उन्होंने सूरदास को श्रीनाथजी के मंदिर में होने वाली आरती में नए पद की रचना करके गाने का सुझाव दिया। बता दें कि इन्हीं सूरदास के हजारों पद सूरसागर में शामिल किए गए हैं।  सूरदास ने जितने भी पद लिखे थे उनमें से अधिकतर पदों का गायन आज भी जहां जहां पर भगवान श्री कृष्ण को पुरुषोत्तम पुरुष माना जाता है, वहां वहां पर होता है और लगातार सूरदास के द्वारा तैयार किए गए पद की निर्मलता धारा बहती चली जा रही है।

वल्लभाचार्य की मृत्यु

बावन वर्ष की आयु में उन्होंने स्वयं को संसार से अलग कर लिया और ध्यान और श्रीकृष्ण की स्तुति के गीत गाने लगे। विक्रम संवत् 1587, आषाढ शुक्ल तृतीया (सन 1531) को उन्होंने इस लोक से जीवन लीला का अंत हुआ।

 
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