सारंगढ़ के जंगल में जेजे बंगला और गुमर्डा बनने की कहानी | The Voice TV

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सारंगढ़ के जंगल में जेजे बंगला और गुमर्डा बनने की कहानी

Date : 19-Apr-2023

 वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम बनने के बाद गुमर्डा आकार लेने वाला भारत का सबसे पहला अभयारण्यसारंगढ़ नगर से लगे हुए गुमर्डा अभयारण्य में एक रेस्ट हाऊस पास के गांव टमटोरा के नाम पर जाना जाता रहा है। 1999 में  खुशी हुई देखकर कि इस रेस्टहाउस का नाम "जे.जे.दत्ता हट" रख दिया गया है। छत्तीसगढ राज्य बना तो अफसर बदले। 2003 में फिर यहां पहुंचा तो देखा नाम मिटा दिया गया था। बात यहां नहीं रुकी। कुछ सालों के बाद एक अधिकारी ने सामने के पहाड़ के नाम पर रेस्टहाउस का नाम राठन-हट कर दिया। फिर अधिकारी बदले और वर्तमान में इसका नाम जे.जे. बंगला है।

मेरा यह लेख इस उम्मीद को समर्पित है कि वन विभाग का कोई ज़िम्मेदार अधिकारी इसे पढ़कर सुनिश्चित करे कि इस अभयारण्य और जेजे दत्ता के संबंधों के महत्व से मैदानी अधिकारियों और पर्यटकों की वाकफ़ियत हो और उनके नाम से इस अभयारण्य के जुड़ाव को स्थायित्व मिले। सच तो यह है कि किसी भी सरकारी योजना, स्थान, स्मारक आदि का नामकरण बहुत सोच-विचार के बाद किया जाना चाहिए और आम लोगों को ऐसे नामकरण के आधार, औचित्य, पृष्ठभूमि और तर्क के साथ नाम के महत्व से परिचित कराने की व्यवस्था होना चाहिए।

आज़ादी के बाद के पच्चीस साल भारत के वनों और वन्य-प्राणियों के लिए बर्बादी का काल था। अधिकतम नुकसान वनों के उन इलाकों में हुआ जो आज़ादी से पहले तक राजाओं के अपने निजी शिकार-गाह थे और जिन संरक्षित वनों को राज्यों के विलय के बाद राजाओं ने अपनी निजि सम्पत्ति के रूप में अपने पास न रख कर भारतीय संघ के हवाले कर दिया था। राजाओं का जो आदर, सम्मान, प्रेम, डर और ख़ौफ़ (अलग-अलग अनुपात में) आम जनता को वृक्षों की कटाई और जानवरों के शिकार से रोकता था, उसे आज़ादी ने हटा दिया था।

आज देश मे जो कुल 617 नेशनल पार्क और अभयारण्य अधिसूचित हैं उनमे से आधे से अधिक ऐसे हैं जो आज़ादी से पहले शिकार के लिए आरक्षित वन थे - 277 राजाओं के इलाकों में और 87 अंग्रेज़ों द्वारा प्रशासित इलाकों में।

सारंगढ़ के राजाओं का अपना ऐसा ही आरक्षित वन और शिकार-गाह था गुमर्डा। गुमर्डा के भीतर जवाहर नगर, नरेशनगर, कमलापानी जैसे गांवों और राजा-खपान, राजा-मचान जैसे स्थानों की अपनी कहानियां हैं। कुछ अन्य प्रसिद्ध नामों में छत्तीसगढ में सरगुजा का सेमरसोत, दंतेवाड़ा का इन्द्रावती, बस्तर का कांगेर-वैली, कोरिया का गुरू घासीदास, गुजरात में सिंह के लिए विख्यात जूनागढ़ का गिर, केरल में ट्रावनकोर महाराजा का पेरियार पार्क, मध्यप्रदेश मे पन्ना, बांधवगढ़, सीधी का संजय-डुबरी, शिवपुरी का माधव राष्ट्रीय उद्यान, पालपुर-कूनो, सैलाना जैसे नाम शामिल हैं। इसी तरह काॅर्बेट (उत्तराखंड), कान्हा (मप्र), ताडोबा (महाराष्ट्र) अंग्रेज़ों के आरक्षित वन थे।

शिकार और संरक्षण, मानव और वन्य-प्राणियों का सह-अस्तित्व, इन सब के बीच संतुलन बैठाने का कार्य हाथों में लम्बा बांस लेकर हवा में झूलती रस्सी पर चलने जैसा होता है। इस दायित्व का निर्वहन वर्षों और पीढ़ियों के अनुभव और समझ की मांग करता है।

सरगुजा के महाराजा रामानुजशरण सिंह का नाम दुनिया के इतिहास में सबसे अधिक शेर मारने वाले व्यक्ति के रूप मे दर्ज़ है। हालांकि शेरों की संख्या 1150 पर पहुंचने के बाद उन्होने रिकाॅर्ड रखना छोड़ दिया था पर अनुमान के अनुसार यह संख्या 1400 है। जब सन 1918 में महाराजा रामानुजशरण सिंह ने राजकाज संभाला तब राज्य में आदमखोरों समेत शेरों की संख्या इतनी अधिक हो चुकी थी कि बड़ी तादाद में लोग राज्य छोड़कर भागने लगे थे। एक समय आया जब यह तय करना ज़रूरी हो गया कि सरगुजा में आदमी रहेंगे या शेर। सरगुजा से लगे हुए हैं कोरिया राज्य के जंगल। और कोरिया से लगे हुए हैं रीवा राज्य के जंगल। एक अनुमान के अनुसार प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति से द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बीच इस क्षेत्र में कोई तीन हज़ार शेर मारे गये थे। उसी अनुमान के अनुसार 1924 में भारत में सत्तर हज़ार शेर थे। अधिकांश मध्य क्षेत्र में।

जूनागढ़ राज्य में 1891 में सिंह की अनुमानित आबादी 31 थी। लाॅर्ड कर्ज़न ने नवाब की ओर से आया शिकार का न्योता स्वीकार कर लिया था। लेकिन 1899-1901 के भीषण अकाल के बाद सिंहों की संख्या में भारी कमी हो गयी। दोनों ने तय किया गया कि शिकार के स्थान पर वे मिल कर सिंह के संरक्षण की दिशा में काम करेंगे।

आज़ादी से पहले शिकार का अधिकार चंद लोगों के पास सुरक्षित था। इस अभिजात्य वर्ग की कैद से निकला अधिकार जब सर्व-सुलभ हुआ तो यह अवसर अघोषित उत्सव में तब्दील होते समय नहीं लगा। दुर्भाग्य से इस उत्सव पर प्रभावी रोक लगने में पच्चीस साल लग गये।

प्रकृति, वन और वन्य-जीवों से अपने अगाध प्रेम के कारण प्रधानमंत्री बनने के बाद  इंदिरा गांधी ने इनके संरक्षण को अपनी प्राथमिकता बनाया। किन्तु राह आसान नहीं थी। आज़ादी के बाद के दशकों में भारत विदेशी मुद्रा की भीषण कमी के दौर से गुज़र रहा था। पर्यटन विदेशी मुद्रा की आमदनी का बड़ा स्रोत था और उन दिनों शिकार के साथ इसका अटूट संबंध था। शिकार-टूरिज़्म लाॅबी बहुत मज़बूती से किसी भी प्रतिबंध के ख़िलाफ थी। यह संयोग नही था अप्रेल 1952 से अस्तित्व में रहे इंडियन बोर्ड फ़ाॅर वाईल्डलाईफ़ (आईबीडव्लूएल) ने कभी भी देश मे शेरों के शिकार पर प्रतिबंध की सिफ़ारिश नहीं की थी। वन्य-प्राणियों, विशेषकर शेर, चीते, सांप, मगरमच्छ आदि की खाल का निर्यात विदेशी मुद्रा कमाने का बड़ा ज़रिया था। इसके अतिरिक्त रिसर्च के लिए हज़ारों की संख्या में बन्दर भी निर्यात किये जाते थे।

तब तक देश में इंडियन फ़ॉरेस्ट एक्ट 1927 के प्रावधान के तहत शेर (बाघ) और अन्य वन्य-प्रणियों के शिकार के लिए परमिट जारी किये जाते थे। प्रधानमंत्री बनने के छह महीने के भीतर एक जुलाई 1966 के दिन  इंदिरा गांधी ने देश में "इंडियन फ़ॉरेस्ट सर्विस" लागू कर एक छोटी शुरुआत की। इंदिरा जी ने राजा कर्ण सिंह को आईबीडव्लूएल का नया अध्यक्ष बनाया और एक जुलाई 1970 को परमिट प्रणाली को बंद करते हुए शेरों के शिकार को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया। वन चूंकि राज्यों का विषय था इसलिए सभी मुख्य मंत्रियों को इसके क्रियान्वयन के लिए पत्र लिखे गये। कुछ महिनों के बाद जब उन्हे पता चला कि इस रोक को लागू करने में सबसे अधिक कोताही मध्यप्रदेश में हो रही है तो उन्होने मुख्यमंत्री  श्यामाचरण शुक्ल को एक के बाद एक तीन पत्र लिखे और हर एक की भाषा में उनकी नाराज़गी और तल्ख़ी पहले से अधिक थी।

उस वर्ष मध्यप्रदेश ने प्रतिबंध के बावज़ूद शेरों के शिकार के लिए 29 परमिट जारी किये थे। मुख्यमंत्री के भाई विद्याचरण शुक्ल उन दिनों इंदिरा जी के मंत्रीमंडल के सदस्य भी थे और एल्विन-कूपर नामक शिकार-पर्यटन कम्पनी के मालिक भी। इन्दिरा जी की अत्यधिक नाराज़गी का एक परिणाम यह हुआ कि कुछ समय में जब वन्य-प्राणी संरक्षण अधिनियम आया तो मध्यप्रदेश उसे लागू करने वाला देश का पहला राज्य बना।

इंदिरा जी को वन्य-प्राणी और पर्यावरण के लिए अपने लक्ष्यों को हासिल करने में भूतपूर्व राजाओं के योगदान की क्षमता पर पूरा विश्वास था। सारंगढ़ के राजा नरेशचन्द्र सिंह, भावनगर के राजा धर्मकुमार सिंहजी, ध्रंगधरा के राजा जैसे अपने मित्रों से समय समय पर वे चर्चा करती रही थीं।

10 सितम्बर 1971 के दिन जब इंदिरा जी ने अपने कुछ विश्वासपात्रों को बुलाकर वन्य-प्राणियों के संरक्षण के लिए कानून बनाने पर विचारमंथन किया तो उसमें अधिकारी कम, राजपरिवारों के सदस्य अधिक थे। कश्मीर के अंतिम राजा के पुत्र डाॅ. कर्ण सिंह, कपूरथला राजघराने के "बिली" अर्जन सिंह, मशहूर पक्षी-मित्र सालेम अली के परिवार के ज़फ़र फ़तेह अली और दिल्ली ज़ू के मुखिया रह चुके राजस्थान काडर के कैलाश सांखला जैसे अधिकारियों के अलावा आमंत्रित थे महाराज कुमार रणजीत सिंह जी।

 एम. के. रणजीत सिंह गुजरात में शिकार की परम्परा वाले वांकानेर राजघराने मे जन्म लेने के बाद भी युवावस्था में ही शिकार हमेशा के लिए तज कर अपने आप को वन्य-प्राणियों के संरक्षण के लिए समर्पित कर चुके थे। 1961 में आई.ए.एस. में चयन के बाद इन्हे मध्यप्रदेश काडर दिया गया। उन दिनों प्रथा थी कि युवा अधिकारियों के अंदर छुपी विशिष्ट योग्यताओं और अभिरुचि को ढूंढ़कर, पहचान कर, उसके अनुसार नियुक्तियां और ज़िम्मेदारियां देकर उन्हे प्रोत्साहित भी किया जाता था और देश तथा प्रशासन के व्यापक हित में लाभ भी लिया जाता था। मध्यप्रदेश में शिक्षा के क्षेत्र में उन्ही के बैच के  शरदचन्द्र बेहार, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में  अशोक वाजपेयी, पुरातत्व के क्षेत्र में के.के. चक्रवर्ती, और वन तथा पर्यावरण के क्षेत्र में डूंगरपुर राजघराने के  समर सिंह ऐसे ही कुछ उदाहरण रहे हैं।

राजा नरेशचन्द्र सिंह  की बेटियां - मेरी पत्नी मेनका देवी तथा उनकी बहनें - जिन दिनों सागर के सेन्ट जोसेफ काॅन्वेन्ट के होस्टल में रह रहे थे,  रणजीत सिंह वहां असिस्टेंट कलेक्टर के रूप में पदस्थ थे और इन बच्चों के लोकल गार्जियन थे। मंडला में कलेक्टर रहने के दौरान कान्हा मे उनके किये कामों ने इंदिरा जी का ध्यानाकर्षण किया और वे दिल्ली बुला लिये गये। तब से प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ के रूप में वे  गांधी के पास उपलब्ध रहे। वन्य-प्राणि (संरक्षण) अधिनियम की पूरी परिकल्पना और कानून की ड्राफ्टिंग से लेकर बाद के क्रियान्वयन तक का कार्य इन्होने किया।

वन्य-प्राणी (संरक्षण) अधिनियम नवम्बर 1972 में अस्तित्व में आया। जनवरी 1973 में यह मध्यप्रदेश में लागू हुआ। राज्य में वन विभाग के ही अन्दर वन्य-प्राणियों के लिये एक नया विभाग खड़ा करना था। विभाग के अधिकारियों की तब तक की समझ और अनुभव वनों के संरक्षण और उनके व्यावसायिक दोहन तक सीमित थी। वन्य-प्राणी एक सर्वथा नया विषय था। मुख्य धारा से हटना अधिकारियों की पदोन्नति की संभावना को प्रभावित करेगा कि नहीं इसे लेकर भी संशय था। ऊपर से तुर्रा यह कि इस विभाग के कामकाज पर प्रधानमंत्री की चौकस नज़र रहने वाली थी। आम अधिकारी अपनी सेवाएं देने के लिए उत्सुक नहीं थे।

यहां कहानी में एन्ट्री होती है वन्य-प्राणी प्रेमी और राज्य के श्रेष्ठतम वरिष्ठ वन अधिकारियों में एक  जगत ज्योति (जे.जे.) दत्ता की। जिन दिनों वे राज्य के सर्वश्रेष्ठ साईन्स काॅलेज नागपुर में पढ़ रहे थे, उन दिनों एम.एस.सी. में गोल्ड-मैडिल प्राप्त करने वाले विद्यार्थी को मार्कशीट के साथ ही उसी काॅलेज में लेक्चरर के रूप में नियुक्ति पत्र भी पकड़ा दिया जाता था। 1946 में ज़ूलाॅजी विषय में गोल्ड-मैडिलिस्ट रहे  दत्ता ने दो वर्ष शिक्षक के रूप में कार्य किया। 1948 में देहरादून के इंडियन फ़ॉरेस्ट काॅलेज में दाखिल हुए और दो वर्ष के बाद ए.सी.एफ. के पद पर काम शुरू किया। वन्य-प्राणियों में शुरू से  दत्ता की बहुत रुचि रही। 1967 में इनका चयन नेहरू-फेलोशिप के लिए हुआ और इन्हे कनाडा और अलास्का में वाईल्ड-लाइफ़ प्रबंधन की ट्रेनिंग के लिए भेजा गया था। सरगुजा और जगदलपुर जैसे स्थानों में कंज़र्वेटर फ़ॉरेस्ट रह चुके  दत्ता को मध्यप्रदेश का प्रथम चीफ़ वाईल्ड-लाईफ़ वाॅर्डन नियुक्त किया गया। उसी दौरान दिल्ली में  रणजीत सिंह भारत के प्रथम डायरेक्टर वाईल्ड लाइफ़ नियुक्त किये गये।

दत्ता के जिम्मे, अन्य बातों के अलावा, राज्य में नये अभयारण्यों को चिन्हांकित करने का काम था।  दत्ता तथा  रणजीत सिंह के साझा निर्णय के परिणामस्वरूप शुरुआत सारंगढ़ से हुई। गुमर्डा वन को राजा नरेशचन्द्र सिंह जी उतनी ही अच्छी तरह जानते थे जितना लोग अपनी हथेलियों की लकीरों को जानते हैं। सारंगढ़ स्टेट के पुराने नक्शे निकाले गये। राजा साहब के साथ  दत्ता ने न केवल गुमर्डा का चप्पा-चप्पा घूमा बल्कि अभयारण्य की सीमा का निर्धारण भी दोनों ने साथ मिलकर किया। नतीजा : अधिनियम बनने के बाद गुमर्डा आकार लेने वाला भारत का सबसे पहला अभयारण्य बना। यह महत्व है रेस्टहाउस के नामकरण का जो भारत में वन्य-प्राणि संरक्षण के इतिहास में  जेजे दत्ता के साथ साथ सारंगढ़ की भूमिका को रेखांकित करता है।

 
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