सूरदास ने क्यों मांगा कृष्ण से दृष्टिहीन होने का वरदान | The Voice TV

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तुम खुद अपने भाग्य के निर्माता हो - स्वामी विवेकानंद

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सूरदास ने क्यों मांगा कृष्ण से दृष्टिहीन होने का वरदान

Date : 25-Apr-2023

सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता नामक गाँव में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही  नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1584 ईस्वी में हुई।

 सूरदास का नाम कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सर्वोपरि है। हिंन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। हिंदी कविता कामिनी के इस कमनीय कांत ने हिंदी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान दिया है, वह अद्वितीय है। सूरदास हिंन्दी साहित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्ण-भक्ति उपशाखा के महान कवि हैं।

श्री वल्लभाचार्य से पुष्टिमार्ग में दीक्षा हासिल की

इसी स्थान पर महान कवि और गायक सूरदास की मुलाकात श्री वल्लभाचार्य से हुई थी। इसके बाद इन्होंने श्री वल्लभाचार्य से पुष्टिमार्ग में दीक्षा हासिल कर उनके शिष्य बन गए। कालांतर में सूरदास को भगवान श्रीकृष्ण के भक्त और सगुण भक्ति में प्रथम स्थान दिया गया। सूरदास बचपन से ही गायन और संगीत में रुचि रखते थे। इन्होंने कई ऐसी काव्य रचनाएं की हैं, जिनमें भगवान श्रीकृष्ण के बाल्यकाल की लीलाओं का वर्णन किया है। इनकी मुख्य रचनाएं साहित्य-लहरी, नल-दमयंती, सूरसारावली, ब्याहलो सूरसागर आदि हैं।

मुगल शासक इनसे मिलने मथुरा घाट आए

जब सूरदास गऊघाट पर गायन करते थे तो उनकी इस रचना का श्रवण आम जनमानस भी करते थे। इनकी एक रचना उस समय काफी प्रसिद्ध हुई थी, जिसे सुनने मुगल शासक अकबर खुद गऊघाट आए थे। इसके बाद अकबर ने सूरदास को दरबारी कवि बनने का आमंत्रण दिया, लेकिन सूरदास ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस बारे में सूरदास का कहना था कि वे केवल अपने प्रभु के लिए गाते हैं। इसके बाबजूद अकबर ने राज्य सरकार में जगह दी।

सूरदास के जीवन का महत्व

भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त, सगुण भक्ति के कवि और गायक सूरदास ने अपने जीवन में हजारों दोहे, छंदों की रचना की है, जो आज भी प्रासंगिक हैं। इनकी रचनाओं में भक्ति भावना कूट-कूट कर भरी है, जिसे सुनकर लोग आनंदित-आह्लादित हो उठते हैं। भले ही सूरदास बचपन से जन्मांध रहे हों, लेकिन उनकी ज्ञान के चक्षु हमेशा जागृत रहते थे, जिनसे वे अपने भगवान के दर्शन करते रहते थे। आज भी धार्मिक स्थलों पर सूरदास की जीवनी का बखान और उनकी रचनाओं का गुणगान किया जाता

सूरदास ने क्यों मांगा कृष्ण से अंधे होने का वरदान?

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, एक बार सूरदास जी श्रीकृष्ण भक्ति में डूबे कहीं जा रहे थे तभी रास्ते में वे एक कुंआ पड़ा. दिखाई ना देने की वजह से सूरदास कुएं में जा गिरे. भक्त को मुश्किल में देखकर भगवान कृष्ण ने खुद प्रकट होकर उनकी जान बचाई और उन्हें दृष्टि दे दी. उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर श्री कृष्ण ने सूरदास से कोई वरदान मांगने को कहा. सूरदास ने भगवान से उन्हें फिर से दृष्टिहीन कर देने का वरदाना मांगा. सूरदास जी ने कहा ​कि वे अपने प्रभु के अतिरिक्त किसी और को नहीं देखना चाहते. इस घटना से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि सूरदास जी भगवान श्रीकृष्ण के कितने बड़े भक्त थे.

ग्रंथ और काव्ये:

सूरदास के मत अनुसार श्री कृष्ण भक्ति करने और उनके अनुग्रह प्राप्त होने से मनुष्य जीव आत्मा को सद्गति प्राप्त हो सकती है। सूरदास ने वात्सल्य रस, शांत रस, और श्रिंगार रस को अपनाया था। सूरदास ने केवल अपनी कल्पना के सहारे श्री कृष्ण के बाल्य रूप का अदभूत, सुंदर, दिव्य वर्णन किया था। जिसमे बाल-कृष्ण की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, और आकांक्षा का वर्णन कर के विश्वव्यापी बाल-कृष्ण स्वरूप का वर्णन प्रदर्शित किया था।

सूरदास ने अत्यंत दुर्लभ ऐसा “भक्ति और श्रुंगार” को मिश्रित कर के, संयोग वियोग जैसा दिव्य वर्णन किया था जिसे किसी और के द्वारा पुनः रचना अत्यंत कठिन होगा। स्थान संस्थान पर सूरदास के द्वारा लिखित कूट पद बेजोड़ हैं। यशोदा मैया के पात्र के शील गुण पर सूरदास लिखे चित्रण प्रशंसनीय हैं। सूरदास के द्वारा लिखी गईं कविताओं में प्रकृति-सौन्दर्य का सुंदर, अदभूत वर्णन किया गया है। सूरदास कविताओं में पूर्व कालीन आख्यान, और ईतिहासिक स्थानों का वर्णन निरंतर होता था। सूरदास हिन्दी साहित्य के महा कवि माने जाते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के गायन में सूरदास जी की रूचि बचपन से ही थी और आपसे भक्ति का एक पद सुनकर महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने आपको अपना शिष्य बना लिया और आप श्रीनाथजी के मंदिर में कीर्तन करने लगे| अष्टछाप के कवियों में सूरदास जी सर्वश्रेष्ठ कवि माने गए हैं, अष्टछाप का संगठन वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ ने किया था|यह कैसे एक अंधे कवि ऐसे सावधानीपूर्वक और रंगीन विस्तार में मंच द्वारा कृष्ण के बचपन, चरण चित्रित सकता साहित्य के स्थानों में चमत्कार की एक है. कृष्ण अपनी पहली दाँत काटने, अपने पहले शब्द के बोले, उसकी पहली बेबस कदम उठा, सूरदास के लिए सभी अवसरों के लिए प्रेरित गाने जो भी इस दिन के लिए गाया जाता है |

रचनाएं :सूरदास की रचनाओं में निम्नलिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं –

·         सूरसागर

·         सूरसारावली

·         साहित्य-लहरी

·         नल-दमयन्ती

·         ब्याहलो

मृत्यु  

सूरदास की मृत्यु वर्ष 1580 ईस्वी में हुई थी। सूरदास का जीवन काल “वर्ष 1478 से वर्ष 1580 तक” यानी कुल 102 वर्ष का रहा था। अपने दिर्ध आयु जीवन काल में सूरदास ने कई ग्रंथ लिखे और काव्य पद की रचना की। सूरदास का जीवन कृष्ण भक्ति के लिए समर्पित था।

कृष्ण भक्त सूरदासजी के दोहे

 

दोहे के माध्यम से सूरदास जी भगवान श्री कृष्ण की प्रशंसा करते हुए कहते हैं

चरन कमल बन्दौ हरि राई

जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई।

बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई

सूरदास स्वामी करुनामय बार-बार बंदौं तेहि पाई।।

 सूरदास जी ने भगवान् बालकृष्ण की शयनावस्था का सुंदर चित्रण करते हुए

जसोदा हरि पालनैं झुलावै।

हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥

मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै।

तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥

कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं।

सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै॥

इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।

जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥

सूरदासजी श्री कृष्ण की बाललीला का वर्णन करते हुए

मैया मोहि मैं नहि माखन खायौ,

भोर भयो गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायो,

चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो।।

मैं बालक बहियन को टो, छीको किही बिधि पायो,

ग्वाल बाल सब बैर पड़े है, बरबस मुख लपटायो।।

तू जननी मन की अति भोरी इनके कहें पतिआयो,

जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो।।

यह लै अपनी लकुटी कमरिया, बहुतहिं नाच नचायों,

सूरदास तब बिहँसि जसोदा लै उर कंठ लगायो।।

 

 

 
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