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गुरूजी लिखते हैं...” जब हम एक साथ थे, हम सबसे ज्यादा शब्दों से खेला करते थे

Date : 07-May-2023

 7 अगस्त 1941 को रबीन्द्रनाथ टैगोर इस संसार छोड़ कर चले गए थे। कोलकाता के एक अमीर परिवार में जन्मे टैगोर पहले भारतीय हैं  जो साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाज़े गए। रबीन्द्रनाथ टैगोर के बारे में अभी तक कई कहानियां पढ़ी गईं यहां तक की वो पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने जलियांवाला कांड के बाद अंग्रेजों के दिए गए 'सर' सम्मान को वापस कर दिया था। उनकी 76वीं पुण्यतिथि पर उनके आध्यात्मिक प्रेम की कुछ परतें खोलने की कोशिश की है। 


ये एक ऐेसी प्रेम कहानी है जिसे न तो सुना ही गया न ही बहुत अधिक पढ़ा गया। एकेडमिक ग्रुप में तो उनके आध्यात्मिक (प्लैटोनिक) प्रेम की चर्चा होती रही है लेकिन अब आम जनता को भी भारत के पहले ब्रांड एंबेसडर और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित रबीन्द्रनाथ टैगोर की अनसुनी प्रेम कहानी को जानना चाहिए।

यह प्रेम कहानी है गुरूजी और अर्जेंटीना की पत्रकार विक्टोरिया ओकैम्पो की। दोनों में आध्यात्मिक प्रेम था। दोनो का प्यार अर्जेंटीना की प्लाटा नदी के किनारे फला फूला। इस दौरान दोनों ने कभी न भूलनेवाले पल साथ साथ बिताए। 

गुरूजी लिखते हैं...” जब हम एक साथ थे, हम सबसे ज्यादा शब्दों से खेला करते थे और अपने बेहतरीन पलों में हंसने की कोशिश करते थे, मेरा दिमाग, एक प्रवासी पक्षी की तरह, आकाश में उड़ कर मदमस्त जी  लेने की कोशिश करता है ... दूर तट के उड़ान के लिए।रबीन्द्र नाथ टौगोर पर शोध करने वाले बताते हैं कि दोनो ने 1924 के आखिरी महीनों में एक साथ समय बिताया। टैगोर ओकैम्पो के मेहमान बनकर करीब ढाई महीने तक उनके साथ उनके घर पर रहे थे।

 कहते हैं कि टैगोर की पत्रिका "पूर्वी" की एक तिहाइ कविताएं बिजया यानी विक्योरिया को ही समर्पित थीं।
वो लिखते हैं।

1924 में गुरूजी विश्व भ्रमण पर थे और वे जब यूरोप से पेरू जा रहे थे तब उनकी तबियत खराब हो गई थी। गुरूजी के पास अस्पताल और अस्पताल में देने के लिए पैसे तक नहीं बचे थे। टैगोर के बीमार होने की बात जब ओकैम्पो को पता चली तब वे उन्हे अपने साथ सैन इसिद्रो ले आईं थीं। यह अर्जेनटीना के ब्यूनोस एरिस का बाहरी इलाका है। यह दोनों की पहली मुलाकात थी। दोनों मे घनिष्ठता इतनी थी की गुरूजी उन्हें प्यार से विक्टोरिया की जगह बिजया बुलाया करते थे।

इस दौरान दोनों एकदूसरे के साथ ही समय बिताया करते थे। टैगोर ने इस दौरान बिताए गए पलों पर बेहतरीन कविताओं का संकलन भी तैयार किया था। उन्होंने ओकैंम्पों पर 30 से अधिक कविताएं लिख डाली थीं। 

इस संग्रह को टैगोर ने 1926 में विक्टोरिया को भेजा था। उनमें से एक कविता थी अतिथी जो कुछ ऐसी शुरू होती है ,
 
"विदेश में मेरे प्रवास के दिन, मेरी जिंदगी को तुमने ए औरत, अपनी मिठास के अमृत  से भर दिया।"
 
 विक्टोरिया ओकेम्पो ने 1914 में ही गुरूजी की फ्रेंच में ट्रांसलेट हो चुकी किताब गीतांजलि पढी थी। जब से ओकैमपो ने गुरूजी को पढ़ा था वो उन्हें अपना आदर्श मानने लगी थीं। टैगोर जब वापस भारत आ गए तो ओकैम्पो ने लिखा था- 
प्यारे गुरुदेव जब से आप गए हैं आपकी यादें खत्म नहीं हो रहीं "

टैगोर और ऑकेम्पो की बातचीत का जरिया पत्र था। वे एकदूसरे से पत्रों के जरिए 20 साल से अधिक समय तक जुड़े रहे। टैगोर अपनी फीलिंग्स को कविताओं के द्वारा जाहिर किया करते थे। और ओकैम्पो इसे अपनी साहित्यिक पत्रिका सुर में छापा करती थीं।

टैगोर को 1913 में नोबेल प्राइज भी मिल चुका था। टैगोर विश्वभर में एक स्थापित कवि थे और उनके प्रशंसको की कतार लंबी थी। दूसरी बार 1930 में पेरिस में ओकैम्पो ने गुरूजी की पेंटिंग प्रदर्शनी का आयोजन किया था। इसके बाद ये दोनों कभी नहीं मिले। लेकिन दोनों की मुलाकातें पत्रों के जरिए होता रहा। इस बीच गुरूजी ने कई बार ओकैमपो को भारत बुलाया था लेकिन बार बार बुलाने के बाद भी ओकैम्पो कभी भारत नहीं आईं।स्रोत - अमरउजाला 

 

 

 
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