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मंदिर श्रृंखला -आस्था व भक्ति का केन्द्र माता भद्रकाली का परम पावन दरबार

Date : 29-May-2023

 

आस्था व भक्ति का केन्द्र माता भद्रकाली का परम पावन दरबार

 उत्तराखंड राज्य के बागेश्वर जिले के कमस्यार घाटी में स्थित माता भद्रकाली का परम पावन दरबार सदियों से आस्था   भक्ति का केन्द्र है। कहा जाता है कि माता भद्रकाली के इस दरबार में मांगी गई मन्नत कभी भी व्यर्थ नहीं जाती है। जो श्रद्धा भक्ति के साथ अपनी आराधना और श्रद्धा के साथ मां के चरणों में पुष्प अर्पित करता है। वह परम कल्याण का भागी बनता है।

माता भद्रकाली का यह धाम बागेश्वर जनपद में महाकाली के स्थान, कांडा से करीब 15 किमी और जिला मुख्यालय से करीब 40 किमी की दूरी पर सानिउडियार होते हुए बांश पटान,सेराघाट निकलने वाली सड़क पर भद्रकाली नाम के गांव में स्थित है। यह स्थान इतना मनोरम है कि इसका वर्णन करना वास्तव में बेहद कठिन है।

माता भद्रकाली का प्राचीन मंदिर करीब 200 मीटर की चौड़ाई  के एक बड़े भूखंड पर स्थित है भद्रकाली गुफा। इस गुफा के अन्दर एक सुरम्य पर्वतीय नदी बहती है। जो कि विशाल शक्ति कुंड के नाम से जाना जाता है। मां भद्रकाली को पूर्ण रूप से वैष्णवस्वरूप में पूजा जाता है, मां भद्रकाली को ब्रह्मचारिणी के नाम से भी जाना जाता है। वैष्णोंदेवी मन्दिर के अलावा भारत भूमि में यही एक अदभुत स्थान है। जहां माता भद्रकाली की महाकाली, महालक्ष्मी महासरस्वती तीनो  रूपों में पूजा होती है। इन स्वरूपों में पूजन होने के कारण इस स्थान का महत्व प्राचीन काल से पूज्यनीय रहा है, आदि गुरू शंकराचार्य ने इस स्थान के दर्शन कर स्वयं को धन्य माना।

 माता भद्रकाली मंदिर की मान्यता

माना जाता है कि यहां पर मंदिर का निर्माण लगभग सन् 930 में एक महायोगी संत ने कराया था देवी के इस दरबार में समय-समय पर अनेकों धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न होते  रहते है। मंदिर में पूजा के लिए चंद राजाओं के समय से आचार्य एवं पूजारियों की व्यवस्था की गई थी। माता भद्रकाली का जिक्र श्रीमद देवी भागवत के अतिरिक्त शिव पुराण और स्कन्द पुराण के मानस खंड में आता है, कहते है कि माता भद्रकाली ने स्वयं इस स्थान पर छः माह तक तपस्या की थी,यहां नवरात्री की अष्टमी के दिन श्रद्धालु पुरी रात्रि हाथ में दीपक लेकर मनवांछित फल प्राप्त करने के लिए तपस्या करते है।

क्या माता भद्रकाली मंदिर को अंग्रेजों ने कर रहित किया

मंदिर में ही पिछले करीब डेढ़ दशक से साधनारत बाबा निर्वाण  चेतन मुनि उदासीन मुनि बताते हैं कि अंग्रेजी दौर से ही यह स्थान कर रहित रहा है। अंग्रेजों ने भी इस स्थान को अत्यधिक धार्मिक महत्व का मानकर कर रहित घाषित किया था। आज भी यहाँ  किसी प्रकार शुल्क नहीं लिया जाता है। यह भी माना जाता है कि माता भद्रकाली भगवान श्रीकृष्ण की कुलदेवी यानी ईष्टदेवी थीं।उनका एक मंदिर कुरूक्षेत्र हरियाणा, दूसरा झारखंड एवं तीसरा नेपाल के भद्रकाली जिले में भी स्थित है।

कहा जाता हैं कि आदि- अनादि काल में सृष्टि की रचना के समय आदि शक्ति ने त्रिदेवों-ब्रह्मा, विष्णु महेश के साथ उनकी शक्तियों-सृष्टि का पालन ज्ञान प्रदान करने वाली ब्रह्माणी यानी माता सरस्वती, पालन वाली वैष्णवी यानी माता लक्ष्मी और बुरी शक्तियों का संहार करने वाली शिवा यानी माता महाकाली का भी सृजन किया। कम ही लोग जानते है कि माता सरस्वती, लक्ष्मी और महाकाली तीनो एक ही स्थान पर आदि-अनादि काल से एक साथ माता भद्रकाली के रूप में विराजती है। और सच्चे मन से आने वाले भक्तों को साक्षात दर्शन देकर उनके कष्टों को दूर करती है।

हनुमानगढ़ का भद्रकाली माता का अनूठी परम्परा वाला मंदिर जहाँ आज भी चढ़ती है बलि

आज जिस मंदिर की बात कर रहे हैं वह हनुमानगढ़ स्थित भद्रकाली माता का मंदिर है।मंदिर का इतिहास थोड़ा अतीत में है। कथा का प्रसंग इस प्रकार है कि तकरीबन 500 वर्ष पहले मुगल बादशाह अकबर इस इलाके से गुजर रहा था उस समय यह पूरा बियाबान जंगल था। इस जंगल में उसे एक बुढ़िया दिखायी दी। यह बुढ़िया वर्तमान भद्रकाली माता ही थी। बुढ़िया से अकबर ने कहा की माई मुझे प्यास लगी है पानी मिल सकता है। बुढ़िया ने उसे जमीन से थोड़ा पानी निकालकर पानी दिया। जैसे पानी की कमी हुई तो वापस जमीन से पानी निकाल कर दिलाया तो अकबर को लगा कि यह कोई दैवीय  शक्ति है और अकबर ने माता के पैर पकड़ लिए और कहा कि माता मुझे खाना खिलाओ।

माताजी ने खाना खिलाया और आगे टोकरी रखी और कहा कि इसको हटाना मत एक ही जगह पड़ी रहने देना और इस प्रकार पूरी सेना को खाना खिला दिया। सरकार ने बलि पर जाने कब रोक लगा दी लेकिन गांवों में आज भी देवी-देवताओं आदि के बलिया चढ़ती है। ठीक वैसे ही भद्रकाली माता के मंदिर में बलि चढ़ाने  की  परंपरा है। यहां मंदिर में शराब भी चढ़ती है। हालांकि कागजों में ऐसा नहीं है लेकिन गैर कानूनी रूप से ही सही यहां पर बलि का चढ़ाना  शुभ माना जाता है।

विशेष दिन

माता के यहां पधारने का विशेष दिन चैत्र की अष्टमी और रामनवमी को होता है। इस दिन माता के यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।अपनी श्रद्धा अनुसार कोई नारियल चढ़ाता है।कोई शराब चढ़ाता है।कोई बलि चढ़ाता है। प्रसाद घर पर भी बनाते हैं और यहां चढ़ावे के रूप में इसे लाया जाता है।पुजारी जी बताते हैं कि वे पुजारी वर्ग की चौथी पीढ़ी में हैं उनकी दादा परदादाओं को महाराजा गंगा सिंह लेकर आए थे और उसके बाद से हमारी परंपरा चली रही है। मंदिर में मूर्ति की पुनर्स्थापना महाराजा गंगा सिंह ने करवाई। भद्रकाली माता की दूसरी मूर्ति महाराजा गंगा सिंह ने लालगढ़ में स्थापित करवाई। यहां पर मूर्ति स्थापना करवाने के पीछे तर्क यह दिया जा रहा है मुस्लिम आक्रांता होने की वजह से यहाँ कब्जा कर लें।

मन्नतों का मकबूल होना

हर श्रद्धालु के अपनी मन्नतें होती हैं वे इन मन्नतों का मकबूल होना माता पर छोड़ देते हैं।हाथ में धागा बांध लेते हैं, भभूति पीने के लिए ले जाते हैं जिसे सप्ताह भर पीते हैं। तांती भी बंधवाते हैं। लोक में गहरी आस्था वाले ये लोग मीलों चलकर माता के धोक देने आते हैं। एक श्रद्धालु से जब मनोकामना सिद्ध बाबत पूछा गया तो उन्होंने बताया कि बिल्कुल मनोकामना पूर्ण होती है, मैंने बेटी के लिए मन्नत मांगी थी, वो हो गयी। मंदिर में पहले माताजी के प्रसाद चढ़ता है फिर भैंरूजी के।भैंरूजी उनके सहायक के रूप में है।

बावन शीश और महात्मा की जीवित समाधि

मंदिर परिसर में एक जीवित समाधि बनी हुई है।यह समाधि मंदिर की प्रथम पुजारी की है ऐसा माना जाता है कि भटनेर की भाटी शासकों ने भटनेर दुर्ग बनवाने या कहें कि उसका जीर्णोद्धार करवाने का फैसला लिया और उसे बनवाना शुरू किया। लेकिन वहां एक आश्चर्य भरी घटना हुई।वह यह कि जैसे ही रात को किले को खोदा जाता है उसका निर्माण शुरू होता, वैसे ही रात को वह वापस वह गिर जाता।इससे परेशान होकर भाटी शासक मंदिर आया और पुजारी जी से इस बात पर सलाह-मशवरा किया तो पुजारी जी ने कहा कि माताजी बलि मांग रही है।बलि देनी होगी। नर के बावनशीश की बलि राजा ने आसपास के राजे-रजवाड़ों को आदेश दिया और बावन शीश कटवा कर दुर्ग में चुन दिए और तब से वह स्थिर रहने लगा और दुर्ग का निर्माण सम्पन्न हुआ। आज भी देखा जा सकता है

भटनेर दुर्ग में बावन बुर्ज है। राजा एक दिन फिर महात्मा जी के पास आए और बोले कि बाबा जी मेरे पास धन खत्म हो गया है। राजा के प्रति आस्था गहरी होती थी हर व्यक्ति की, बाबाजी ने उसे अपनी गुदडी़ पकड़ाते हुए कहा कि रोज़ मेरी धूप अगरबत्ती करना, और गुदड़ी से पैसा निकाल लेना लेकिन एक शर्त है जब तुम्हारी आवश्यकता पूरी हो जाए तब मुझे ये वापिस लाकर देना। राजा उस समय हामी भरकर चला गया लेकिन बाद में उसकी नीयत में खोट आने की वजह से उसने गुदड़ी देने का फैसला लिया और पुजारी जी की हत्या की योजना बनायी और उन्हें बुलवाया। पुजारी जी को राजा के लोगों ने कहा कि आपको किले में आने का बुलावा है, बहुत बात करने के बाद वे उनके साथ निकल पड़े और जब किले में गए तो किला दिखाते वक़्त उनको एक बुर्ज से धक्का दे दिया और वे नीचे गिर पड़े, कथा यह है कि उनको  कुछ नहीं हुआ और वे उठकर सीधे मंदिर गए और हनुमानगढ़ को उस दिन से श्राप दे दिया कि अब इस दुर्ग में कोई राज नहीं करेगा, और कुछ समय बाद उन्होंने जीवित समाधि ले ली।

 
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