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भारतीय दर्शन और संस्कृति जैसी श्रेष्ठता कहीं नहीं

Date : 29-Aug-2024

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय दर्शन को दुनिया के देशों में प्रचारित किया। उन्होंने पूरे विश्व को यह सन्देश देने का प्रयास किया कि भारतीय दर्शन और संस्कृति जैसी श्रेष्ठता कहीं नहीं है। हम पूरी पृथ्वी पर एक श्रेष्ठतम राष्ट्र हैं। हम सभी सभ्यताओं का स्वागत करते हैं। हम गहन तमस से भरे विश्व को मार्ग दिखा सकते हैं। हम सब भारत के लोग एक गौरवशाली संस्कृति के वाहक हैं। हमारा सामना विश्व की भोग विलास में लिप्त संस्कृतियां नहीं कर सकती। हम भारत के लोग बर्बर नही हैं। हम भिन्न भाषा-भाषी संस्कृतियों, बोलियों को आत्मसात करते हुए चलते हैं। भारत की संस्कृति में हमेशा उच्चतम विचारों को प्राथमिकता दी गयी है। हम किसी को मतान्तरित कर अपनी संख्या नहीं बढ़ाते। हम युद्ध के माध्यम से साम्राज्य का विस्तार करने वाली संस्कृति के पुत्र नहीं हैं। हम पूरी दुनिया को परिवार मानने वाले हैं। हमारा राष्ट्र सृष्टि से जुड़े प्रश्नों पर काम करने वाला रहा है । जहां तक यह सृष्टि है, वह सब एक ही है। एक ही शक्ति है जो पूरे विश्व को चलाती है। वही शक्ति हमारे भीतर वही सबके अंतस में है। इसी को आदि शंकराचार्य अद्वैत कहते हैं। उसी शक्ति को श्रीकृष्ण परम शक्ति कहते हैं।

ऋषियों ने भी देखा कि वह एक है, दो नहीं है। तब ही कहा कि ज्योर्तिएकम। हम फूलों को देखते हैं। अनंत रंग के फूल हजारों लाखों तरह के फूल, हजारों लाखों के तरह के जीव-जंतु भी देखते हैं। इसी तरह पहाड़ हैं। नदियां हैं, झरने हैं। पक्षियों के गीत है। प्रभात की अरुणिमा है। चंद्रमा में पूर्णिमा है। साथ ही अमावस्या है। अरबों नक्षत्र राशियां हैं। आकाश गंगा हैं। मेघ हैं। जल भरे मेघों के दृश्य हैं। फिर बरसात है। उसमें नील कमल हैं। आनंदित प्रकृति में मनुष्य सहित सभी जीव हैं। पूरी दुनिया में हजारों नदियां हैं। महासागर हैं। लाल सागर, पीला सागर और न जाने कितने सागर है। हिमाच्छादित हिमालय है। इस सबमें वही चेतना है। वही ज्योति परम ज्योति, परम सत्ता, अखंड सत्ता विद्यमान दिखाई पड़ती है। बस आवश्यकता है तो उसी परम दृष्टि की जिसे केन उपनिषद में कहा गया है कि उपासना करो। उन नेत्रों की नहीं जिनसे देखते हो। उस शक्ति की करो जिससे नेत्रों मे देखने की शक्ति है । ऊर्जा आती है। वह उपासना श्रेष्ठ है। विवेकानंद के सपने भारत को पूरे विश्व में अनंत ऊंचाई वाला राष्ट्र बनाने की परिकल्पना है। और यह विवेकानंद का सपना कहेंगे तो लगता है कि थोड़ा कम है।

वे कह रहे हैं कि हमारे भारत के महान ऋषियों की ओर से देखो-वे कैसे थे ? वे क्या चाहते थे उन ऋषियों का सनातन राष्ट्र, आर्यावर्त, भारत, भरतजनों का राष्ट्र कैसा था ? विवेकानंद भारत के ऋषि दृष्टाओं वाला भारत निर्मित करने के लिए अपने जीवन काल मे बिना रुके काम करते हैं। उसी में उन्हें विश्व मानवता के दर्शन हुए। कम समय में अधिकतम और उच्चतम विचार दृष्टि देने वाले हमारे आधुनिक ऋषि हैं विवेकानंद। स्वामी जी ने कठोपनिषद की ऋचा उत्तिष्ठित जागृत प्राप्य वरान्निबोधयत को अपना ध्येय वाक्य बनाया। वे कहते हैं उठो जागो और जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए रुको मत। यहां पर विवेकानन्द कह रहे है उठो जागो। थोड़ा समझने की बात है। आप सोचेंगे कि हम जब उठ गए हैं मतलब जागे हैं तभी तो उठे है। मगर यहां उनका सूत्र है, कि उठ तो गए हो। दिन भर कुछ न कुछ करते हो। अपने लिए, मित्रों के लिए परिवार के लिए यह करने वह करना पर्याप्त नहीं है।

वे कह रहे हैं उठो किस लिए, राष्ट्र के लिए, भारत के वैभव के लिए, करोड़ों भारतीयों के लिए ,वंचितों के लिए जिन्हें अपने होने का ज्ञान नहीं है। जिन्हें राष्ट्र समाज के इतिहास का पता नहीं है। जो अबोध है वे राष्ट्र के निमित्तों को नहीं जानते, उनके लिए उठ जाओ। फिर कह रहे हैं जागो ? यह और गहरी बात कहना चाह रहे हैं स्वामी जी। जागो ? कई बार आप जागे हैं मगर वह आपका जो जागरण है , वह थोड़ा कम मात्रा में है। अपने लिए लग रहा है। तो तुम जागो, भारतवासियों के लिए जागो। भारत की वसुधैव कुटुम्बकम की संस्कृति, वैदिक संस्कृति, भरतजनों की संस्कृति से पूरे विश्व को सींच डालो। एक नई ऊर्जा से भर दो भारत को। और भारत ऊर्जावान होगा, शक्तिशाली होगा तो विश्व पर उसकी छाया पड़ना तय है।

भारत के समत्व, ममत्व के स्नेह से विश्व मानवता को पल्लवित-पोषित करो। मानवीय मूल्यों को उच्चतम बनाओ। भविष्य के धार्मिक आदर्शों को सम्पूर्ण जगत में जो कुछ भी सुन्दर और महत्वपूर्ण है, उन सबको समेटकर चलना पड़ेगा और साथ भाव विकास के लिए अनन्त क्षेत्र प्रदान करना पड़ेगा। अतीत में जो कुछ भी सुन्दर रहा है, उसे जीवित रखना होगा। साथ वर्तमान के भंडार को और समृद्ध बनाने के लिए भविष्य का विकास द्वार भी खुला रखना होगा। धर्म को ग्रहणशील होना चाहिए और ईश्वर सम्बन्धी अपने आदर्शो में भिन्नता का कारण एक-दूसरे का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। मैंने अपने जीवन में अनेक महापुरुषों को देखा है जो ईश्वर मे एकदम विश्वास नहीं करते थे। अर्थात हमारे और तुम्हारे ईश्वर में, किन्तु वे लोग ईश्वर को हमारी अपेक्षा अधिक तरह समझते थे। ईश्वर सम्बन्धी सभी सिद्धांत, सगुण निर्गुण अनंत नैतिक नियम अथवा आदर्श- मानव धर्म की परिभाषा के अंतर्गत आने चाहिए। और जब धर्म इतने उदार बन जाएंगे तब उनकी कल्याणकारी शक्ति सौ गुनी अधिक हो जाएगी। (स्वामी विवेकानंद साहित्य पुस्तक खण्ड दो पृष्ठ दो सौ) स्वामी जी यहां पर ईश्वर और धर्म विषयक जिस समझदारी की बात कर रहे हैं, वह अति गम्भीर गहनतम है। साथ ही कह रहे है कि धर्म ग्रहणशील होना चाहिए। यह बात और भी उच्च मूल्यों को स्थापित करती है।

धर्म हमारा ग्रहणशील हो तभी बात बनेगी। तभी हमारे विचार मूल्यवान हो सकते हैं। गहराई में जा सकते है। छिछली बातें धर्म का प्राण तत्व नहीं होती है। जहाँ क्षमा ज्ञान, सहिष्णुता, उदारता का विज्ञान होता है। वहां धर्म घटित होता है। जब प्रत्येक मनुष्य के कल्याण के लिए ही कार्य करना ध्येय हो वही धर्म को आत्म सात कर सकता है। फिर वह मनुष्य चाहे जिस समाज- राष्ट्र का हो। यहां भी लगता है कि सामंजस्य बने तो साथ चला जा सकता है। और सभी को साथ लेकर चलने की संभावनाएं और नए द्वारों, मार्गों को खुला रखना ही जीवित समाज के लिए पथप्रदर्शक हो सकता है। विश्व में अधिकार ही सब कुछ नहीं हो सकता है। विश्व मानवता के लिए कार्य करना अधिक श्रेयष्कर प्रतीत होता है। हमें देखना चाहिए कि ज्ञान का अर्थ मात्र साहित्य नहीं है। साहित्य मात्र से कुछ होने वाला नहीं है।

राष्ट्र निर्माण में शस्त्र-शास्त्र दोनों के ज्ञान का प्रयोग करने की एक अदभुत शक्ति होनी चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा आंतरिक सुरक्षा का ज्ञान होना चाहिए । विश्व के साथ भारत का व्यवहार कैसा हो। विश्व के देश भारत के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। क्या वे ईमानदारी से संबंधों का निर्वाह कर रहे हैं। किसी भी कार्यवाही का विश्व में और अपने राष्ट्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह भी ज्ञान होना अति आवश्यक है। दुनिया के देश भारतीय संस्कृति पर लंबे समय से हमलावर हैं। चाहे वस्त्र हो, चाहे विदेशी शैक्षिक प्रणाली हो, आध्यात्मिक, पौराणिक स्थल हो ,सब जगहों पर अलग-अलग तरह से हमले किए गए। भारत के अनेक विद्वान विदेशी शिक्षा से प्रभावित हुए। उन्होंने इस राष्ट्र को उसी दिशा में ले जाने का प्रयत्न किया, जबकि विदेशी प्रणाली वाली शिक्षा, ढंग तौर तरीके भारत के सांस्कृतिक ,सामाजिक मूल्यों से मेल नहीं खाते थे। अभी भी यह दुष्प्रभाव लंबे कालखंड तक रहने वाला है। स्वामी जी के विचारों और सपनों वाला भारत अपने स्वयं के आदर्शों मूल्यों और ज्ञान-विज्ञान से निर्मित होगा। उधार के ज्ञान-विज्ञान से कुछ होने वाला नहीं है।




लेखक:- 
अरुण कुमार दीक्षित

 
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