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विश्व की सभी विचार धाराओं के मूल में हैं, भारतीय संस्कृति के चिंतन-स्वर

Date : 16-Oct-2024

उपनिषदों का भाव संदेश किस प्रकार दुनिया के हर कोने तक पहुंचता- फैलता गया ? इसके विषय में आधुनिक पीढियो को शायद कल्पना भी न उभरें। इसके व्यापक प्रसार को साधन, भाषण देने वालों की कुशलता ,मिशनरी लोगों द्वारा किए जा रहे प्रलोभन के भांती -भांति के प्रयोगों जैसी कुछ न होकर अपनत्व का बोध कराना रही है। विचारों की प्रमाणिकता, उत्कृष्टता उनकी जीवन में सार्थकता स्वयं अपनी व्यापकता का कारण बनी है। व्यक्ति अथवा समूह की बैसाखियां किसी ने कभी नहीं स्वीकारी इसी आश्चर्य से अभिभूत होकर ए. ए. मैकडॉनल्ड - "ए हिस्ट्री ऑफ़ संस्कृत लिटरेचर" में कह उठा-  " विश्व के सांस्कृतिक मंच पर यदि कोई सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जा सकती है तो वह है संस्कृत साहित्य की जानकारी।" एन.ए. नोटोविक ने अपनी पुस्तक " अननोन लाइफ आफ जीसस क्राइस्ट " में  इस तथ्य का सत्यापन किया है कि-  " भारत भूमि के विचारों और साधना पद्धतियों ने इस ईश्वर पुत्र के हृदय में इतना गहरा आकर्षण उत्पन्न किया कि वह 16 वर्षों तक यहां के ब्राह्मणों और साधुओं के साथ रहे।" 

चार्ल्स विलकिंस इस परंपरा का पहला व्यक्ति था। जिसकी प्रशंसा करते हुए संस्कृत पंडित के जन्मदाता एच .टी . कोलबुक ने कहा है कि- पाइथागोरस से लेकर उस समय तक ऐसा कोई विदेशी विद्वान नहीं रहा जिसने विलकिंस की तरह यहां के विचारों को आत्मसात न किया हो। विलकिंस ने हितोपदेश ,श्रीमदभगवदगीता , महाभारत के शाकुंतलो पाख्यान सहित अन्य कई रचनाओं का भावपूर्ण अनुवाद किया। बिलकिंस की परंपरा में विलियम जॉन्स, बर्क , गिवन, सेरिडोंन, गैरिक और जॉनसन जैसे अनगिनत विचारों के उपासक दीक्षित होते चले गए। यूजीवरनाफ ने अपने गहन शोध के द्वारा अवेस्ताे के नियमों पर भारत के सांस्कृतिक वोध की छाप प्रभावित की। अध्ययन की इस परंपरा में उसने एक शिष्य को गढ़ा। मैक्समूलर के नाम से विख्यात इस शिष्य ने अपने गुरु की भावनाओं का कितना सम्मान किया यह किसी से छुपा नहीं है।
 जर्मनी के विचारक तो भारतीय विचारशीलता की गहरी अनुभूति कर स्वयं के जीवन की सार्थकता पर विभोर हो उठे। जॉर्ज फास्टर ने जब लोक विख्यात मनीषी हार्डर को शाकुंतल का जर्मन अनुवाद भेजा तो वह कह उठा  -  "मानव मस्तिष्क की इससे अधिक आनंद प्रद और कोई कल्पना मुझे नहीं मिली - पूर्व का एक विकसित पुष्प, सुंदरता में भी वेजोड़।" उसने शाकुंतल का विश्लेषण करते हुए दावा किया कि इस कृति से यह प्रचलित विश्वास अमान्य हो जाता है कि नाटक का अविष्कार प्राचीन ग्रीकों ने किया है। जर्मन कवि गेटे ने शाकुंतल के बारे में अपनी अनुभूति लिखी- "यह मेरे जीवन के एक अति महत्वपूर्ण युग का प्रतीक है।" 
18 वीं सदी में जर्मनी में भारतीय साहित्य को पढ़ने- समझने की ऐसी ललक पैदा हुई कि चिंतकों के समूह जैसे सामान्य जन तक यहां तक की समय अभाव से ग्रसित राजनीतिज्ञ भी इसे पढ़ने और जीवन में अपनाने की आतुरता न रोक सके। विटरनित्ज की-  " हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर" के प्रश्नों से पता चलता है कि - फान, थीलिमान, रोजन साल्ट और विल्हेनवान आदि राजनीतिज्ञ अवकाश मिलते ही ऋषि संस्कृति के चिंतन सूत्रों में अपने को खोने लगते थे। हमबोल्ट ने भागवत गीता को पढ़ने के बाद अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए कहा कि - " वह परमात्मा को जीवन प्रदान करने के लिए धन्यवाद देता है क्योंकि इस कारण ही उसे भगवतगीता जैसा उत्कृष्टतम विचारकोष अध्ययन के लिए मिल सका।" 
प्राच्य विद्याविदों ,सामान्य अध्यताओं की ही भांति पश्चिम के दार्शनिकों ने भी भारतीय संस्कृति के चिंतन के प्रति स्वयं को ऋणी माना है। शोपेनहार ,विक्टर कजिन ,पाल डायसन, श्लेगिल आदि पश्चिमी तत्व वेताओं ने अपने तत्व चिंतन में ऋषियों की विचारधारा को पूरे गौरव के साथ अभिव्यक्त किया है। कई जगह तो सिर्फ शब्दों की फेर बदल भर दिखाई देती है। मनीषी टामलिन इसे स्वीकारते हुए कहते हैं - "शंकर दर्शन की दिशा लगभग वही थी जिसे बाद में जाकर कांट ने अपनाया।" 
 मैक्समूलर के ग्रंथ -  "थ्री लेक्चर ऑन द वेदांत फिलासफी" पढ़े तो पता चलता है कि -उपनिषदों ने जिस 'ब्रह्मा' का प्रतिपादन किया है उसी को स्पिनोजा ने ' सबस्टेशिया ' स्वतंत्रतत्व ' नाम दिया है। इसी तरह शंकराचार्य की ' माया ' को लाइबिनज ने " मैटेरिया प्राइम " कहकर स्वीकार किया है। फिक्ते ने इसी को अपने चिंतन में ' अंशटास ' नाम दिया है। इसी तत्व को सेलिंग ने अपने दर्शन में ' डार्कग्राउंड ' कहकर उल्लेख किया है शोपेनहावर  का ' संकल्पवाद ' छांदोग्य उपनिषद के 7/4/2 अंश की व्याख्या भर है ।  छान्दोग्य उपनिषद के इस अंश में संकल्प को ब्रह्म रूप देते हुए कहा है की जो इस 'संकल्प ब्रह्म' की उपासना करता है, वह भगवान के रूप को प्राप्त करता है।
विभिन्न रूपों में-  विभिन्न पद्धतियों में-  विभिन्न देशों में ऋषि संस्कृति के ये सभी चिंतन स्वर जिस एक बात का उद्घोष करते हैं, वह है उसका अपनत्व और यही वह पृष्ठभूमि है। जो इसे "विश्व संस्कृति" का गौरव प्रदान करेगी । संस्कृति का उद्देश्य हृदय पर अधिकार पाना है और हृदय की राह समर भूमि की लालकीच नहीं सहिष्णुता का शीतल प्रदेश है, उदारता का उज्जवल क्षीर समुद्र है। ऋषि चिंतन की वही ऊर्जस्विता विश्व मानव को वैचारिक संघर्ष से मुक्ति देगी। कल का भविष्य जिस महानतम आश्चर्य को साकार करेगा ,वह है संसार की सभी विचारधाराओं का अपने मूल स्वर से सामंजस्य। इसी घटना के साथ विश्व संस्कृति/ भारतीय संस्कृति के चिंतन स्वर गूंज उठेंगे- " समानो मंत्र: समिति समानी, समानो मन: सह चित् मेंसाम" सब लोग एक विचार वाले हो जाएं, सभी के मन एक समान हो जाएं, सभी के चित्त में एक से संवेदन उठने लगे। यही वैदिक दर्शन की मान्यता रही व वही अगले दिनो साकार रुप लेने जा रही है ।
 
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