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नदियां लिखेंगी विकास की गाथा

Date : 25-Dec-2024

 मध्यप्रदेष और राजस्थन के बीच पार्वती, कालीसिंध और चंबल का पानी एक बड़े जलस्रोत के रूप में बहता है। मध्यप्रदेष में केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना की षुरूआत के बाद अब उपरोक्त नदियों को जोड़े जाने की आधारषिला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जयपुर में रख दी है। इसके प्रतीकस्वरूप तीनों नदियों के पानी को एक घड़े में भरा गया। तत्पष्चात भारत सरकार और राजस्थान एवं मध्यप्रदेष राज्य सरकारों के बीच एक त्रिपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। 72000 करोड़ रुपए इस परियोजना पर खर्च होंगे। इसमें 90 प्रतिषत राषि केंद्र सरकार देगी। इस राषि में से 35000 करोड़ रुपए मध्यप्रदेष और 37000 करोड़़़ रुपए राजस्थान सरकार खर्च करेगी। इसमें मध्यप्रदेष के 13 जिलों के 3217 ग्रामों की सूरत बदल जाएगी। दोनों प्रदेषों में मिलाकर 27 नए बांध बनेंगे और 4 पुराने बांधों पर नहरों की जलग्रहण क्षमता बढ़ाई जाएगी। इसी के साथ 64 साल पुरानी ग्वालियर-चंबल संभाग की चंबल-नहर प्रणाली का उद्धार नए तरीके से किया जाएगा। तय है, ये नदियां निर्धारित अवधि में जुड़ जाती हैं, तो सिंचाईं के लिए कृशि भूमि का रकबा बढ़ने के साथ अन्न की पैदावार बढ़ेगी। किसान खुषहाल होंगे और उनके जीवन स्तर में सुधार आएगा।

 नदियों की धारा मोड़ने का दुनिया में पहला उदाहरण ऋग्वेद में मिलता है। इंद्र ने सिंचाई और पेयजल की सुविधा सुगम कराने की दृश्टि से सिंधु नदी की धारा को मोड़ा था। इसके बाद अरुणाचल प्रदेष में ब्रह्मपुत्र नदी की धारा को पहाड़ तोड़कर भगवान परषुराम ने मोड़ा था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी ने नदी जोड़ो अभियान की जो परिकल्पना की थी, उसे  नरेंद्र मोदी ने साकार करने की षुरूआत केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना के साथ कर दी थी। ये परिययोजनाएं जल-षक्ति अभियान ‘कैच द रन‘ के तहत अमल में लाई जा रही हैं। बाढ़ और सूखे से परेषान देष में नदियों के संगम की परियोजना मूर्त रूप ले रही हैं, यह देषवासियों के लिए प्रसन्नता की बात है। इन परियोजनाओं को जोड़ने का अभियान सफल होता है तो भविश्य में 57 अन्य नदियों के मिलन का रास्ता खुल जाएगा। दरअसल बढ़ते वैष्विक तापमान, जलवायु परिवर्तन और बदलते वर्शा-चक्र के चलते जरूरी हो गया है कि नदियों के बाढ़ के पानी को इकट्ठा किया जाए और फिर उसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों में नहरों के जरिए भेजा जाए। ऐसा संभव हो जाता है तो पेयजल की समस्या का निदान तो होगा ही, सिंचाई के लिए भी किसानों को पर्याप्त जल मिलने लग जाएगा। वैसे भी भारत में विष्व की कुल आबादी के करीब 18 प्रतिषत लोग रहते हैं और उपयोगी जल की उपलब्धता महज 4 प्रतिषत है। हालांकि पर्यावरणविद् इन परियोजनाओं को यह कहकर विरोध कर रहे हैं कि नदियों को जोड़ने से इनकी अविरलता खत्म होगी, नतीजतन नदियों के विलुप्त होने का संकट बढ़ जाएगा।

कृत्रिम रूप से जीवनदायी नर्मदा और मोक्षदायिनी क्षिप्रा नदियों को जोड़ने का काम मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चैहान पहले ही कर चुके थे। चूंकि ये दोनों नदियां मध्य-प्रदेष में बहती थीं, इसलिए इन्हें जोड़ा जाना संभव हो गया था। केन और बेतवा नदियों को जोड़ने की तैयारी में मध्य प्रदेष और उत्तर प्रदेष की सरकारें बहुत पहले से जुटी थीं। इस परियोजना को वर्श 2005 में मंजूरी भी मिल गई थी, लेकिन पानी के बंटवारे को लेकर विवाद बना हुआ था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दोनों राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें होने के कारण एकमत नहीं हुईं। कालांतर में केंद्र समेत उप्र और मप्र में भी भाजपा की सरकारें बन गईं। नतीजतन परियोजनाओं पर सहमति बन गई। केन नदी जबलपुर के पास कैमूर की पहाड़ियों से निकलकर 427 किमी उत्तर की और बहने के बाद बांदा जिले में यमुना नदी में जाकर गिरती है। वहीं बेतवा नदी मध्य-प्रदेष के रायसेन जिले से निकलकर 576 किमी बहने के बाद उत्तर-प्रदेष के हमीरपुर में यमुना में मिलती है। केन-बेतवा नदी जोड़ो योजना पर भूमि अधिग्रहण के साथ तेज गति से बांधों एवं नहरों का काम षुरू हो गया है।

      जीवनदायी नदियां हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। नदियों के किनारे ही ऐसी आधुनिकतम बढ़ी सभ्यताएं विकसित हुईं, जिन पर हम गर्व कर सकते हैं। सिंधु घाटी और सारस्वत (सरस्वती) सभ्यताएं इसके उदाहरण हैं। भारत के सांस्कृतिक उन्नयन के नायकों में भागीरथी, राम और कृष्ण का नदियों से गहरा संबंध रहा है। भारतीय वांगमय में इंद्र और कुबेर विपुल जलराशि के प्राचीनतम वैज्ञानिक-प्रबंधक रहे हैं। भारत भूखण्ड में आग, हवा और पानी को सर्वसुलभ नियामत माना गया है। हवा और पानी की शुद्धता और सहज उपलब्धता नदियों से है। दुनिया के महासागरों, हिमखण्ड़ों, नदियों और बड़े जलाशयों में अकूत जल भण्डार हैं। लेकिन मानव के लिए उपयोग जीवनदायी जल और बढ़ती आबादी के लिए जल की उपलब्धता का बिगड़ता अनुपात चिंता का बड़ा कारण बना हुआ है। ऐसे में भी बढ़ते तापमान के कारण हिमखण्डों के पिघलने और अवर्षा के चलते जल स्त्रोतों के सूखने का सिलसिला जारी है। वर्तमान में जल की खपत कृषि, उद्योग, विद्युत और पेयजल के रूप में सर्वाधिक हो रही है। हालांकि पेयजल की खपत मात्र आठ फीसदी है। जिसका मुख्य स्त्रोत नदियां और भू-जल हैं। औद्योगिकिकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के दबाव के चलते एक ओर नदियां सिकुड़ रही हैं, वहीं औद्योगिक कचरा और मल मूत्र बहाने का सिलसिला जारी रहने से गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियां इतनी प्रदूषित हो गईं हैं कि यमुना नदी को तो एक पर्यावरण संस्था ने मरी हुई नदी तक घोषित कर दिया है।

प्रस्तावित करीब 120 अरब डालर अनुमानित खर्च की नदी जोड़ों परियोजना को दो हिस्सों में बांटकर अमल में लाया जाएगा। एक प्रायद्वीप स्थित नदियों को जोड़ना और दूसरे, हिमालय से निकली नदियों को जोड़ना। प्रायद्वीप भाग में 16 नदियां हैं, जिन्हें दक्षिण जल क्षेत्र बनाकर जोड़ा जाना है। इसमें महानदी, गोदावरी, पेन्नार, कृष्णा, पार, तापी, नर्मदा, दमनगंगा, पिंजाल और कावेरी को जोड़ा जाएगा। पशिचम के तटीय हिस्से में बहने वाली नदियों को पूर्व की ओर मोड़ा जाएगा। इस तट से जुड़ी तापी नदी के दक्षिण भाग को मुंबई के उत्तरी भाग की नदियों से जोड़ा जाना प्रस्तावित है। केरल और कर्नाटक की पशिचम की ओर बहने वाली नदियों की जलधारा पूर्व दिशा में मोड़ी जाएगी। यमुना और दक्षिण की सहायक नदियों को भी आपस में जोड़ा जाना इस परियोजना का हिस्सा है। हिमालय क्षेत्र की नदियों के अतिरिक्त जल को संग्रह करने की दृष्टि से भारत और नेपाल में गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र तथा इनकी सहायक नदियों पर विशाल जलाशय बनाने के प्रावधान हैं। ताकि वर्षाजल इकट्ठा हो और उत्तर-प्रदेश, बिहार एवं असम को भंयकर बाढ़ का सामना करने से छुटकारा मिले। इन जलाशयों से बिजली भी उत्पादित की जाएगी। इसी क्षेत्र में कोसी, घांघरा, मेच, गंड़क, साबरमती, शारदा, फरक्का, सुन्दरवन, स्वर्णरेखा और दमोदर नदियों को गंगा, यमुना और महानदी से जोड़ा जाएगा। करीब 13,500 किमी लंबी ये नदियां भारत के संपूर्ण मैदानी क्षेत्रों में अठखेलियां करती हुईं मनुष्य और जीव-जगत के लिए प्रकृति का अनूठा और बहुमूल्य वरदान बनी हुईं हैं। 2528 लाख हेक्टेयर भू-खण्डों और वनप्रांतरों में प्रवाहित इन नदियों में प्रति व्यक्ति 690 घनमीटर जल है। कृषि योग्य कुल 1411 लाख हेक्टेयर भूमि में से 546 लाख हेक्टेयर भूमि इन्हीं नदियों की बदौलत प्रति वर्ष सिंचित की जाकर फसलों को लहलहाती हैं।

 दरअसल बढ़ते वैष्विक तापमान, जलवायु परिवर्तन, अलनीनो और बदलते वर्शा चक्र के चलते जरूरी हो गया है कि नदियों के बाढ़ के पानी को इकट्ठा किया जाए और फिर उसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों में नहरों के जरिए भेजा जाए। ऐसा संभव हो जाता है तो पेयजल की समस्या का निदान तो होगा ही, सिंचाई के लिए भी किसानों को पर्याप्त जल मिलने लग जाएगा। वैसे भी भारत में विष्व की कुल आबादी के करीब 18 प्रतिषत लोग रहते हैं और उपयोगी जल की उपलब्धता महज 4 प्रतिषत है। इसलिए नदी जोड़ो परियोजनाओं को भवश्यि के लिए लाभदायी माना जा रहा है।

 

लेखक - प्रमोद भार्गव

 
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