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भारतीय संस्कृति-विश्व संस्कृति- 05

Date : 28-Dec-2024

भारतीय संस्कृति में धर्म और सभ्यता को सर्वथा पृथक रखा गया है। धर्म के 10 लक्षण भगवान मनु ने बताए हैं, योग शास्त्र में उन्हें यम- नियम कहा गया है। सभ्यता में प्रथा- परंपरा के प्रचलनो की गणना होती है। धर्म शाश्वत है अर्थात व्यक्तिक और सामाजिक सदाचार के आधार मूल सिद्धांत सनातन है। प्रथा परंपराएं सामयिक हैं। स्मृतिकार समय अनुसार उनमें हेर-फेर करते रहे हैं। यह परिवर्तन प्रचलन आवश्यकतानुसार सदा ही होता रहेगा। धर्म और सभ्यता का अन्य धर्मानुयायी अंतरग्ड्ं  उद्देश्य एक ही है। वह है व्यक्तित्वो को उत्कृष्टतम स्थिति तक पहुंचाने और उसे लोकमंगल के लिए आधिकाधिक त्याग बलिदान करने के लिए प्रशिक्षित करना। 

योग और तप के फलस्वरुप अनेका नेक रिद्धि -सिद्धियां मिलने के बात कही गई है। उन्हें जादूगरी के चमत्कारी दु:खों की तरह बाल -विनोद की श्रेणी में तो नहीं जाना जाना चाहिए, पर इतना निश्चित है कि महामानवों की भूमिका में परिपक्व हुए मनुष्यों के व्यक्तित्व एवं कर्तव्य इतने महान होते हैं कि उनसे असंख्य मनुष्य अनुकरणीय प्रेरणा प्राप्त करते हैं और ऊंचे उठते हैं। इतिहास के पृष्ठ उनकी उत्कृष्टता की अनंतकाल तक भूरी-भूरी प्रशंसा करते हैं। अपने साथ अपने समय और साथियों का गौरव बढ़ाने वाले इन देवात्माओं को रिद्धि- सिद्धि संपन्न कहा जाए तो इसमें अत्युक्ति की कोई गुंजाइश नहीं है।
भारत में जब उसकी महान संस्कृति को व्यावहारिक रूप में अपनाया जाता था, तब यहां का प्रत्येक परिवार नररत्नों की खदान था। महामानवों का मूल्य करोड़ रूपों के लागत से बनने वाले उद्योग प्रतिष्ठानों की अपेक्षा कहीं अधिक होता है।  कोई देश धन- संपत्ति के आधार पर ही विकासवान नहीं मान लिया जाता। उसका असली बल तो राष्ट्रीय चरित्र और महामानवो का बाहुल्य ही होता है।  प्राचीन भारत में भले ही आज जितनी साधन -सुविधा का, धन संपदा का बाहुल्य न रहा हो ,पर उस समय यहां घर-घर में जन्मने वाले नररत्नों से न केवल इस देश का गौरव बढ़ा था वरन्ं उनके  सत्प्रयत्नो से समस्त संसार ने असीम लाभ उठाया था।
भारतीय जीवन की पारिवारिक आदर्शवादिता देखते ही बनती थी । पिता माता को संतुष्ट रखने में राम, भीष्म ,श्रवण कुमार, सत्यवान जैसे तथा भ्रात प्रेम में राम -भारत, पांडवों  जैसे, मित्रता निर्वाह में कृष्ण-सुदामा, कृष्ण अर्जुन ,राम -सुग्रीव जैसे, पतिव्रत धर्म निर्वाह में सीता ,सावित्री, शैव्या, गांधारी, दमयंती ,अनसूया, सुकन्या जैसे, पत्नी व्रत पालन में राम ,लक्ष्मण ,अर्जुन, शिवाजी जैसे लोगों की भरमार रही है। संतान को आदर्श बनाने में शकुंतला ,कुंती, सुभद्रा, मदालसा, गंगा ,सीता आदि ने जो भूमिका निभाई उसकी सराहना किए बिना नहीं रहा जा सकता और उपकार के लिए शिवि, दधीचि, हरिश्चंद्र, भागीरथ आदि के त्याग कितने प्रेरणा प्रद थे? राजकुमार बुद्ध और राजकुमार महावीर ने राज पाठ छोड़कर लोकहित के लिए किस प्रकार साधु जीवन अपनाया ? इन परंपराओं के अनेक उदाहरण मौजूद हैं। प्रचारक नारद, साहित्य सृर्जेता व्यास, स्वास्थ्य विज्ञानी चरक, सुश्रुत ,बाणभट्ट ,ज्योतिर्रविज्ञानी- आर्यभट्ट, भास्कराचार्य ,रसायनवेत्ता, नागार्जुन जैसे अशंख्य महामनीषियों ने अपने-अपने क्षेत्र में लोकोपयोगी कार्यों की सलंग्नता के आदर्श उपस्थित किए थे।
महान ऋषि- मुनियों में  विश्वामित्र, वशिष्ठ,जमदग्नि, कश्यप, भारद्वाज, कपिल, कणाद ,गौतम , जैमिनि, पाराशर, याज्ञवल्क्य ,कात्यायन गोमल, पिप्लाद ,सुखदेव ,श्रृंगी ,लोमश, धौम्य, जरुत्कार, वैशम्पायन जैसे सहस्त्रों महामन्वो ने अपने आदर्श चरित्र और महान कर्तव्य से विश्वमानव की कितनी सेवा-साधना की इसका स्मरण करने मात्र से हमारी छाती गर्व से फूल उठती है।
आध शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट ,गुरु नानक देव, गुरु गोविंद सिंह, ज्ञानेश्वर,तुकाराम, समर्थ रामदास, चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, संत कबीर ,दयानंद, विवेकानंद आदि की संत परंपरा ने युग चेतना का किस प्रकार संचार किया था ? यह किसी से छिपा नहीं है। ध्रुव प्रहलाद जैसे बालक तब घर-घर में पैदा होते थे। जनक जैसे राजा कृषि कार्य से अपना गुजारा करते थे और राज्य कोष की पाई-पाई प्रजाहित में खर्च करते थे। कर्ण, अशोक, हर्ष, मांधाता, वाजीश्रवा, भामाशाह जैसे उदार दानी अपनी संपदा का सत प्रयोजनों के लिए समय-समय पर सर्वमेध करते रहे हैं। धर्म हेतु प्राण होमने वाले बलिदानी वीरों में गोरा, बादल ,जोरावर ,फतेह सिंह ,अभिमन्यु जैसे बालक तक पराक्रम दिखाते थे। रानी       लक्ष्मीबाई ,दुर्गावती ,कर्मावती जैसी नारियां तलवार लेकर अनीति से निपटने के लिए अद्भुत शौर्य दिखाती थी। परशुराम और चाणक्य जैसे ऋषियों ने अनीति से जूझने के लिए योजना बनाई थी। वशिष्ठ से लेकर बंदा बैरागी, गुरु गोविंद सिंह, रामदास तक ने धर्मतंत्र की तरह राजतंत्र को भी विकृत न होने देने के लिए साहसिक भूमिका निभाई थी।
कोई क्षेत्र ऐसा बचा न था जिसमें महामानवो का बाहुल्य दृष्टिगोचर न होता हो । आदर्शवादियों के नाम गिनाना असंभव है । जब घर-घर में नररत्नों और महामानवो का उत्पादन होता था और उन चंदन वृक्षो से सारा वातावरण ही महक रहा था, तो गणना किस-किस की जाए? वर्षा होती है तो सर्वत्र हरियाली उगी दिखती है। भारतीय संस्कृति की तुलना अमृत वर्षा से की जाती है, वह जहां भी गिरेगी वही नयनाभिराम जीवन दाहिनी हरितिमा उत्पन्न करती रहेगी। 
आज आदर्शवादिता कहने-सुनने भर की वस्तु रह गई है। उसका उपयोग कथा -प्रवचनों और स्वाध्याय- सत्संगों तक ही सीमित है। व्यवहार में उतारने की आवश्यकता नहीं समझी जाती और जीवन सिद्धांत के रूप में उसे नहीं अपनाया जाता फलतः इस विश्व संस्कृति का सृजन कर्ता भारत भी आज उन लाभो से वंचित हो रहा है । जो प्राचीन काल में उसे व्यवहार में उतारने वाले हमारे महान पूर्वजों द्वारा उठाए जाते रहे हैं। आदर्शों की दुहाई देने और प्रचलनों की लकीर पीटने से कुछ बनता नहीं । इन दिनों वैसा ही हो रहा है अस्तू " दीपक तले अंधेरा" होने जैसी उपहासास्पद स्थिति बन रही है। आज तो हमारा मुंह यह कहकर बंद कर दिया जाता है कि जब आपकी संस्कृति इतनी महान है, तो उनके अनुयाई होते हुए भी आप इस दुर्दशाग्रस्त स्थिति में क्यों पड़े हैं?   
 
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