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बैगा जनजाति की परंपरा का अमिट हस्ताक्षर

Date : 29-Dec-2024

 

बैगा जनजाति में गोदना अर्थात टैटू गुदवाने (बनवाने) की प्राचीन परंपरा है। यह परंपरा उनकी संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं से गहराई से जुड़ी हुई है। गोदना  बैगा जनजाति की पहचान है , जो सौंदर्य,पारंपरिक परंपराओं और आध्यात्मिकता का प्रतीक है। इस जनजाति में ऐसा माना जाता है गोदना लिखवाने से बुरी आत्माओं और नकारात्मक ऊर्जा से उनकी सुरक्षा होती है साथ ही यह उनकी पारंपरिक पीढ़ियों को अपना एक चिन्ह हस्तांतरित करने की प्रथा भी है। ऐसा माना जाता है कि शरीर पर गोदना मृत्यु के बाद आत्मा को नई पहचान देता है अर्थात बिना गोदने के आत्मा को परलोक में प्रवेश नहीं मिलता।
जोधइया बाई ने यह कला निश्चित ही बचपन में अपनी माँ, दादी , नानी के लेखने और गोंदने की पारंपरिक प्रथा से सीखी इसीलिए उनके चित्रों में भी बैगा जनजाति की प्रमुख चिन्ह अर्थात प्रतीकों के साथ-साथ प्रकृति से जुड़ी हुई बातों का मूल रूप से चित्रण मिलता है। उनके पति के निधन के पश्चात् जब उनके जीवन को नियति ने रंगविहीन कर दिया तब जोधइया बाई ने प्रकृति रंगों से बाहरी संसार को रंगना प्रारंभ किया। उन्होंने 67 वर्ष की आयु में आशीष  स्वामी के मार्गदर्शन में अपने अंदर के सोए चित्रकार को जगाया और इतिहास रच कर यह प्रमाणित कर दिया की कलाकार की कोई आयु नहीं होती।
जोधइया बाई की चित्रकला की मुख्य विशेषता यही थी कि उन्होंने अपने चित्रों में प्राकृतिक तत्वों का समावेश किया जिसमें जंगल, पेड़-पौधे, पक्षी, जानवर और प्राकृतिक दृश्यों के साथ बैगा समुदाय के धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक भी सम्मिलित होते थे। जोधइया बाई की चित्र शैली साधारण होने के साथ गहरा संदेशों की प्रधानता लिए हुए थी। उनके चित्रों में सरलता, सहजता, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संदेश छिपे होते थे। जोधइया बाई की चित्रकारी में बाघ, हिरण, हाथी, पक्षी, नाग , वृक्ष, पर्वत इन चिन्हों के साथ-साथ देवी देवताओं के प्रतीक चिन्हों (ऊँ, त्रिशूल, स्वास्तिक)  को भी स्थान दिया गया। जो यह प्रमाणित करते हैं कि बैगा जनजाति में शिव- शक्ति, गणेश ,अग्नि ,सूर्य, नदी, पर्वतों आदि का पूजन प्रकृति देवी-देवताओं के रुप में आदिकाल से किया जा रहा है।
जोधइया बाई की चित्रकारी में सबसे प्रमुख बात यह थी कि वह जिन रंगों का प्रयोग करती थी वह प्राकृतिक थे जो उनके चित्रों को अद्वितीय बनाते थे। इन रंगों का निर्माण वह मिट्टी (पीरोठा,गेरु, छुई) पत्तों और फूलों (गैंदा, टेसू, पलाश, गुलाब आदि) कोयला ,चारकोल , पेड़ों की छाल आदि से किया जाता था। प्रकृति और परंपराओं से जुड़ी इन सभी विशेषताओं के कारण जोधइया बाई की कला को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली। उन्होंने बैगा जनजाति  की पारंपरिक कला को पहचान दिलाई । इसे वैश्विक मंच पर पहुँचाया। उन्हें कई सम्मान भी प्राप्त हुए जिसमें सन 2022 में उनके कार्य की प्रशंसा करते हुए पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद जी ने जोधइया बाई को "नारी शक्ति" सम्मान और 2023 में राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपति मुर्मू जी ने "पद्मश्री" पुरस्कार से सम्मानित किया था
जोधइया बाई की कला पहले स्थानीय गाँवों और मेलों तक सीमित थी, किन्तु कला संगठनों और संस्कृति-प्रेमी व्यक्तियों ने उनकी प्रतिभा को पहचाना। इसके पश्चात् उनके चित्रों ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में स्थान बनाया। उनकी कला को भारत के विभिन्न कला समारोहों में प्रदर्शित किया गया, जैसे भारत भवन, भोपाल और राष्ट्रीय आदिवासी कला प्रदर्शनी।
विदेशों में आयोजित कला प्रदर्शनियों में भी उनकी चित्रकला ने भारतीय "बैगा जनजाति कला" को पहचान दिलाई।  कला समीक्षकों ने भी जोधइया बाई की कला को एक अनूठी विधा के रूप में सराहा, जो बैगा जनजाति के संस्कृति और प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव को दर्शाती थी। जोधइया बाई की कला ने न केवल उन्हें प्रसिद्धि दिलाई, बल्कि बैगा जनजाति की पारंपरिक कला को एक नई पहचान और सम्मान भी प्रदान किया। उनके उत्कृष्ट कार्य से विभिन्न जनजाति समुदाय की मातृ शक्तियों को अपनी कला को उजागर करने का आत्मविश्वास मिला है। जोधइया बाई ने इस क्षेत्र में कला की जो अखंड अलख जगाई उससे निश्चित ही भविष्य में भारत की वनवासी समाज की छुपी हुई कलाएँ मुखर होकर बोलेगी ।  विपरीत परिस्थितियों में सकारात्मक और रचनात्मक कार्य कैसे किए जाए इसके लिए जोधइया बाई के प्रयास सदैव अविस्मरणीय रहेगें।

 

 
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