लुब्धमर्येन गृह्णीयात्स्तब्धमंजलिकर्मणा।
मूर्खश्छन्दानुरोधेन यथार्थवादेन पण्डितम् ॥
यहां आचार्य चाणक्य वशीकरण के सम्बन्ध में बताते हैं कि लालची को धन देकर, अहंकारी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को उपदेश देकर तथा पण्डित को यथार्थ बात बताकर वश में करना चाहिए।
भाव यह है कि लालची व्यक्ति को धन देकर कोई भी काम कराया जा सकता है। घमण्डी व्यक्ति से कोई काम कराना हो तो उसके सामने हाथ जोड़कर, झुककर चलना चाहिए। मूर्ख व्यक्ति को केवल समझा-बुझाकर ही वश में किया जा सकता है। विद्वान् व्यक्ति से सत्य बात कहनी चाहिए, उन्हें स्पष्ट बोलकर ही वश में किया जा सकता है।
परशुराम जयंती पर विशेष
भगवान विष्णु के अवतार भगवान परशुराम चिरंजीवी हैं। वे भगवान श्रीराम के समय भी थे और भगवान श्रीकृष्ण के समय भी मौजूद रहे, आज भी उन्हें साक्षात जीवित देव माना जाता है। भगवान परशुराम ने ही श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराया था। किदवदन्ति है कि महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तपस्या स्थली रही है और उसी पर्वत को कल्पांत तक तपस्या के लिए उन्होंने चुना। कहते है, एक बार भगवान गणेश ने परशुराम को शिव दर्शन करने से रोक दिया था, जिससे रुष्ट होकर परशुराम ने उन पर अपने फरसे से प्रहार किया, जिससे उनका एक दांत टूट हो गया और तभी से वे एकदंत हो गए। त्रेतायुग में सीता स्वयंवर में शिव धनुष टूटने पर वे पहले बहुत नाराज हुए और फिर क्रोध शांत होने पर श्रीराम का सम्मान भी किया। द्वापर युग में उन्होंने असत्य वचन के लिए दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत होने का श्राप दिया था, साथ ही भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्र विद्या प्रदान की थी।
भगवान परशुराम को विष्णु का छठा 'अवतार' माना जाता है। जबकि श्रीराम सातवें अवतार थे। भगवान परशुराम का जन्म 5142 वि.पू. वैशाख शुक्ल तृतीया के प्रथम प्रहर में हुआ था। इनका जन्म सतयुग और त्रेता का संधिकाल भी माना जाता है। भगवान परशुराम का जन्म 6 उच्च ग्रहों के योग के समय में हुआ। जन्म तिथि अक्षय तृतीया होने कारण इसी दिन परशुराम जयंती मनाई जाती है। साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय द्वारा किये गए एक शोध के तहत परशुराम का जन्म वर्तमान बलिया के खैराडीह में बताया गया है। उत्तर प्रदेश के शासकीय बलिया गजेटियर में परशुराम का चित्र सहित संपूर्ण विवरण उपलब्ध होना बताया गया है।
क किंवदंती में मध्य प्रदेश के इंदौर के पास स्थित महू से कुछ ही दूरी पर स्थित जानापाव की पहाड़ी पर भगवान परशुराम का जन्म होना बताया गया है। यहां पर परशुराम के पिता ऋर्षि जमदग्नि का आश्रम है। कहते हैं कि प्राचीन काल में इंदौर के पास ही मुंडी गांव स्थित रेणुका पर्वत पर माता रेणुका रहती थीं।
एक अन्य मान्यता में छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में घने जंगलों के बीच कलचा गांव में एक शतमहला है। जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका इसी महल में रहती थीं और भगवान परशुराम को उन्होंने यहीं जन्म दिया था। शाहजहांपुर के जलालाबाद में जमदग्नि आश्रम से करीब दो किलोमीटर पूर्व दिशा में हजारों साल पुराने मन्दिर के अवशेष मिलते हैं जिसे भगवान परशुराम की जन्मस्थली कहा जाता है। महर्षि ऋचीक ने महर्षि अगत्स्य के अनुरोध पर जमदग्नि को महर्षि अगत्स्य के साथ दक्षिण में कोंकण प्रदेश में धर्म प्रचार का कार्य करने लगे। कोंकण प्रदेश का राजा जमदग्नि की विद्वता पर इतना मोहित हुआ कि उसने अपनी पुत्री रेणुका का विवाह इनसे कर दिया। इन्ही रेणुका के पांचवें गर्भ से भगवान परशुराम का जन्म हुआ। जमदग्नि ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद धर्म प्रचार का कार्य बन्द कर दिया और राजा गाधि की स्वीकृति लेकर इन्होंने अपना जमदग्नि आश्रम स्थापित किया और अपनी पत्नी रेणुका के साथ वहीं रहने लगे। राजा गाधि ने वर्तमान जलालाबाद के निकट की भूमि जमदग्नि के आश्रम के लिए चुनी थी। जमदग्नि ने आश्रम के निकट ही रेणुका के लिए कुटी बनवाई थी आज उस कुटी के स्थान पर एक अति प्राचीन मन्दिर बना हुआ है जो आज 'ढकियाइन देवी' के नाम से सुप्रसिद्ध है।
भगवान परशुराम के लिए जहां अपने पिता की आज्ञा सर्वोपरि रही वहीं वे अपने क्रोध व शिव भक्ति के लिए भी जाने जाते हैं। कहा जाता है कि एक बार उन्होंने अपने पराक्रम से नदियों तक की दिशा मोड़ दी थी। वास्तव में भगवान परशुराम ऐसे देव हैं जिन्हें चिरंजीवी होने का गौरव प्राप्त है।
(लेखक - डॉ. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
दामोदर गणेश बापट एक ऐसे भारतीय समाजसेवी थे जिन्होंने अपना जीवन कुष्ठ रोगियों की सेवा में समर्पित कर दिया। वे छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले में भारतीय कुष्ठ निवारक संघ (BKNS) के माध्यम से दशकों तक कार्य करते रहे। 2018 में भारत सरकार ने उनके अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म श्री प्रदान किया। साथ ही छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हें राज्य अलंकार से भी सम्मानित किया।
भगवान परशुराम जी को भगवान नारायण का पहला पूर्ण अवतार माना गया है। वे चिरंजीवी हैं—अर्थात सतयुग के अंत से लेकर कलियुग के अंत तक उनके जीवित रहने का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। उनका जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ, जिसे “अक्षय तृतीया” कहते हैं। इस दिन को शुभ और सर्वकार्य सिद्धि के लिए सर्वोत्तम माना गया है। उनका अवतरण अधर्म के विनाश और धर्म की पुनर्स्थापना हेतु हुआ था।
एक बार स्वामी दयानन्दजी फर्रुखाबाद गये, जहाँ गंगा के तट पर उन्होंने अपना आसन जमाया। समीप ही एक झोपड़ी में एक साधु रहता था। स्वामीजी को वहाँ आया देख उसे ईर्ष्या हुई और वह उनके पास रोज आकर गालियाँ दिया करता, किन्तु स्वामीजी उस ओर ध्यान न दे मुसकरा देते।
एक दिन स्वामीजी के भक्त ने उन्हें फलों का एक टोकरा अर्पित किया। स्वामीजी ने उसमें से कुछ अच्छे फल निकाले और उन्हें एक शिष्य से उस साधु को देने के लिए कहा। शिष्य फल लेकर उस साधु के पास पहुँचा। उसने स्वामीजी का नाम लिया ही था कि वह साधु चिल्ला उठा, "यह सबेरे सबेरे किस पाखंडी का नाम ले लिया तुमने ! अब तो आज मुझे भोजन मिलता है या नहीं, इसमें शंका ही है। जाओ, ये फल किसी और को देने के लिए कहे होंगे!"
वह शिष्य स्वामीजी के पास वापस आया और उनसे सारी बात कह दी। स्वामीजी उसे लौटाते हुए बोले, "जाओ, उससे कहो कि आप उन पर प्रतिदिन जो अमृतवर्षा करते हैं, उसमें आपकी पर्याप्त शक्ति नष्ट होती है, इसलिए आप इन फलों का रसास्वादन करें, जिससे आपकी शक्ति बनी रहे।"
शिष्य ने स्वामीजी का सन्देश ज्यों का त्यों सुना दिया। सुनते ही उस साधु पर मानो घड़ों पानी पड़ गया। उसे बड़ा ही पश्चाताप हुआ और वह आकर स्वामीजी के चरणों पर गिरकर बोला, "क्षमा करें, मैं तो आपको साधारण मनुष्य समझता था, मगर आप देवता निकले ! और स्वामीजी ने उसे गले लगा लिया |
अक्षय तृतीया वैशाख महीने में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है। हिंदू शास्त्रों और पुराणों के अनुसार चार युग का चक्र होता है, जिसे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग के नाम से जाना जाता है। अक्षय तृतीया के दिन सतयुग जिसे इंसान के जीवन का सुनहरा दौर कहा जाता है वो समाप्त हो जाता है और त्रेतायुग शुरू हो जाता है। इसलिए अक्षय तृतीया को युगादि तिथि भी कहा जाता है। हिंदू परिवारों के लिए यह दिन बहुत ज्यादा महत्व रखता है।
अक्षय शब्द का अर्थ होता है कभी न मिटने या कम होने होने वाला। संस्कृत में अक्षय (अक्षय) शब्द का अर्थ समृद्धि, आशा, खुशी, सफलता होता है। जबकि तृतीया का अर्थ है चंद्रमा का तीसरा चरण। इसका नाम हिंदू कैलेंडर में वैसाख के वसंत महीने के तीसरे चंद्र दिवस के नाम पर रखा गया है। इस त्योहार को हम अपनी भाषा में आखा तीज नाम से भी जानते हैं। जिसका अर्थ होता है जो कभी खत्म ना होने वाला। इसलिए यह दिन वस्तुओं की खरीदारी का सबसे शुभ दिन माना जाता है। "अक्षय" शब्द का अर्थ होता है जो कभी खत्म न हो। इसी कारण इस दिन किए गए सभी अच्छे कार्यों, जैसे जप, यज्ञ, दान का पुण्य कभी समाप्त नहीं होता। माना जाता है कि अक्षय तृतीया का दिन व्यक्ति को अनंत सुख और समृद्धि की प्राप्ति करता है। इस दिन जितने पुण्य किए जाएं उतने हमें हमारे लिए कम है।
देश में समय-समय पर बहुत से त्योहार मनाये जाते हैं। इसलिए हमारे देश को त्योहारों का देश भी कहते हैं। हिन्दू धर्मावलम्बियों के प्रमुख त्योहारों में से एक अक्षय तृतीया है जिसे हम आखा तीज भी कहते हैं। अक्षय तृतीया देश भर में हिंदुओं द्वारा मनाए जाने वाले सबसे पवित्र और शुभ दिनों में से एक है। माना जाता है कि इस दिन से जो भी कार्य इस शुरू होता है वो हमेशा पूर्ण होता है। यह त्यौहार हर वर्ष वैशाख महीने में शुक्ल पक्ष के तृतीया को आता है। इस वर्ष अक्षय तृतीया 22 अप्रैल को है।
अक्षय तृतीया को शादी का मुहुर्त माना जाता है क्योंकि इस दिन शुभ कार्य करने के लिए मुहूर्त नहीं देखना पड़ता। इसी कारण अक्षय तृतीया को बहुत अधिक शादियां होती हैं। अक्षय तृतीया का पर्व बसंत और ग्रीष्म के संधिकाल का महोत्सव है। इस तिथि में गंगा स्नान, पितरों का तिल व जल से तर्पण और पिंडदान भी पूर्ण विश्वास से किया जाता है जिसका फल भी अक्षय होता है। इस तिथि की गणना युगादि तिथियों में होती है क्योंकि सतयुग की समाप्ति पर त्रेतायुग का आरंभ इसी तिथि से हुआ है।
माना जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में जन्म लिया था। इसीलिये इस दिन को परशुराम जयंती के रूप में मनाते हैं। मान्यता है कि आखा तीज के दिन राजा भागीरथ गंगा नदी को पृथ्वी पर लाये थे। अक्षय तृतीया के दिन भगवान विष्णु तथा उनकी धर्मपत्नी लक्ष्मीजी की पूजा की जाती है। आखा तीज के दिन ही देवी अन्नपूर्णा का जन्म भी हुआ था। यह वह दिन था जब भगवान कृष्ण ने अपनी सारी संपत्ति और सौभाग्य अपने गरीब मित्र सुदामा को दे दिया था। अक्षय तृतीया के दिन श्रद्धेय ऋषि वेद व्यास ने महाभारत की रचना शुरू की थी। पुराणों के अनुसार यह दिन त्रेता युग की शुरुआत का प्रतीक है। जो मानव जाति के चार युगों या युगों में से दूसरा है।
जैन धर्म में अक्षय तृतीया एक महत्वपूर्ण तिथि है जिसे दान और पुण्य कार्य करने के लिए विशेष रूप से शुभ माना जाता है। इस दिन भगवान ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर) ने एक वर्ष की तपस्या के बाद गन्ने के रस से पारणा किया था इसलिए इस दिन को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता हैं। अक्षय तृतीया के दिन यूं तो आप किसी भी देवी-देवता की पूजा कर सकते हैं लेकिन विशेष रूप से इस दिन माता लक्ष्मी, भगवान गणेश और धन के देवता कुबेर की पूजा करने का विधान है। अन्य त्योहारों की तरह इसमें भी दीपक जलाते हैं। इस दिन किया गया परोपकार हमारे लिए जीवन को सुखी बना देता हैं। इसीलिए इस दिन लोग गरीबों को भोजन कराते हैं तथा उनकी सहायता करते हैं।
माना जाता है कि इस दिन किए गए पुण्य हमारे लिए स्वर्ग में जगह बनाते हैं। इस दिन कई लोग जागरण रखकर हवन करते हैं तथा गरीबों को दान देते हैं। कई लोग अपने नए घर में मुहूर्त के हिसाब से प्रवेश करते हैं। अक्षय तृतीया का पौराणिक महत्व भी है। मान्यता है कि इसी दिन सतयुग और त्रेता युग का आरंभ हुआ था। द्वापर युग का समापन और महाभारत युद्ध का समापन भी इसी तिथि को हुआ था। देश के अनेक हिस्सों में इस तिथि का अलग-अलग महत्व है। जैसे उड़ीसा और पंजाब में इस तिथि को किसानों की समृद्धि से जोड़कर देखा जाता है तो बंगाल में इस दिन गणपति और लक्ष्मीजी की पूजा का विधान है।
इतना पवित्र पर्व होने के बाद भी इस दिन बड़ी संख्या में होने वाले बाल विवाह इस पर्व के महत्व को कम करते हैं। अबूझ सावा मान कर बड़ी संख्या में लोग अपने नाबालिग बच्चों की इस दिन शादी कर देते हैं। कम उम्र के बच्चों के विवाह रोकने के लिए इस दिन प्रशासन को विशेष इंतजाम करने पड़ते हैं। राजस्थान सहित कई प्रदेशों में तो अक्षय तृतीया का दिन बाल विवाह के लिए बदनाम हो चुका है। विकास के दौर में बाल विवाह एक नासूर के समान है। देश में हर व्यक्ति को शिक्षित करने की मुहिम चल रही है। हर व्यक्ति को उत्तम स्वास्थ्य सुविधा प्रदान करने के प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे में बाल विवाह होना समाज के माथे पर कलंक के समान है।
देश में अक्षय तृतीया (आखा तीज) पर हर वर्ष हजारों की संख्या में बाल विवाह किए जाते हैं। तमाम प्रयासों के बावजूद हमारे देश में बाल विवाह जैसी कुप्रथा का अन्त नहीं हो पा रहा है। भारत में बेटी-बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान के शुरू होने के बावजूद एक नाबालिग बेटी की जबर्दस्ती शादी करा दी जा रही है। बाल विवाह मनुष्य जाति के लिए अभिशाप है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हर जगह बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा देते हैं। देश के सभी प्रदेशों में बेटियां शिक्षित हो रही हैं। ऐसे में समाज को आगे आकर कम उम्र में लड़कियों के होने वाले बाल विवाह रुकवाने के प्रयास करने होंगे। ऐसे पवित्र दिन का महत्व बनाए रखने के लिए समाज को इस दिन होने वाली कुरीतियों पर रोक लगाकर सकारात्मक संदेश देना होगा। तभी सार्थकता बनी रह पाएगी।
(लेखक- रमेश सर्राफ धमोरा, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
वक्फ कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। इस्लामवादियों ने देश के उच्चतम न्यायालय को 70 याचिकाओं के माध्यम से बताना चाहा है कि केंद्र की मोदी सरकार जो वक्फ कानून में संशोधन लेकर आई है वह गैर संवैधानिक है। इसमें ‘वक्फ बाय यूजर’ पर होने वाली जिरह बहुत महत्व रखती है। न्यायालय का केंद्र सरकार से तर्क है कि ‘वक्फ बाय यूजर’ के जरिए तो हजारों साल से चली आ रही इस्लामिक संपत्तियों का दर्जा खत्म हो सकता है, जिसके बाद सरकार ने विस्तार से इसका जवाब देने के लिए कोर्ट से एक सप्ताह का समय मांगा।
देखा जाए तो न्यायालय में चल रही ‘वक्फ बाय यूजर’ की बहस ने आज भारत में शत्रु संपत्तियों की भी याद दिला दी है। वर्तमान में जो दो समानताएं ‘वक्फ बाय यूजर’ और शत्रु संपत्ति में दिखाई देती हैं, एक- यह कि अधिकांश सभी संपत्तियां विशुद्ध रूप से सरकारी हैं और जिन संपत्तियों को निजी बताया जा रहा है, उनमें अधिकांश के पास उसके कोई भी वैध दस्तावेज नहीं है। ऐसे में यदि किसी का हक इन पर हो सकता है तो वह सरकार है। हालांकि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ जो इस मामले की सुनवाई कर रही है कि इस मामले को लेकर कुछ चिंताएं हैं, जिनसे उन्होंने केंद्र सरकार को अवगत कराया है। सरकार ने बताया है कि प्रबंधन और धार्मिक मामले अलग-अलग हैं। संपत्ति के प्रबंधन और धार्मिक मामलों से जुड़े मामलों के बीच फर्क करना होगा। संपत्ति का प्रबंधन ऐसा काम है जिसका धर्म या संप्रदाय से कोई ताल्लुक नहीं है। बोर्ड और वक्फ परिषद यह काम कर रहे हैं।’
अब कोई कह सकता है कि वक्फ बोर्ड भी तो मुसलमानों का मजहबी मामले में स्थापित एक निकाय है। हिन्दुओं या अन्य किसी गैर मुसलमान के धार्मिक ट्रस्ट की तरह। पर देखा जाए तो ऐसा बिल्कुल नहीं है। वक्फ की अवधारणा के अनुसार वक्फ की गई संपत्ति का उपयोग सिर्फ परोपकार के काम में हो सकता है लेकिन आज व्यवहार में ज्यादातर वक्फ संपत्तियों का उपयोग व्यवसायिक होना पाया गया है। जिसके चलते यह बात स्पष्ट होती है कि वक्फ बोर्ड आज इस्लाम के नाम पर संपत्ति अर्जित करने का माध्यम है, जो जब चाहे तब किसी भी संपत्ति पर अपना दावा ठोक देता है। इसलिए यह वक्फ बोर्ड विवादों में आया, जिसके चलते केंद्र सरकार को इसमें संशोधन करने की आवश्यकता पड़ी।
कुल मिलाकर यह सिर्फ महजबी मामला नहीं क्योंकि वक्फ बोर्ड नियम के अनुसार ऐसा नहीं है कि आने वाले समय में वक्फ बोर्ड किसी संपत्ति पर अपना दावा करना छोड़ देगा। हां, अब इसमें इतना जरूर होगा कि यदि वह पूर्व की भांति किसी भी संपत्ति पर अपना दावा करता है तो उस संपत्ति को उसे नए नियमों के अनुसार कागजों पर स्थापित करना होगा। पाकिस्तान जाने वाले भारत छोड़ते वक्त जो संपत्तियां वक्फ कर गए, उन सभी संपत्तियों पर वर्तमान में वक्फ बोर्ड का अधिकार है। इसी तरह से ज्यादातर इस्लामिक बादशाहों की बनवाई इमारतों पर वक्फ अपना अधिकार जताता है, लेकिन ये दोनों ही प्रकार की संपत्तियां पूरी तरह से सरकारी हैं। क्योंकि बादशाहों के समय जो इमारतें देश में बनी, उनके शासन के हटते ही समय-समय पर अन्य तत्कालीन शासकों के अधीन वे रहती आई हैं। पुर्तगाली, डच, फ्रांसिसी, अंग्रेज आए, स्वतंत्र राजा-महाराजाओं की सत्ता भी रहीं, फिर उसके बाद शासन भारत सरकार का आया, नए सिरे से संविधानिक प्रावधान 1950 से लागू हुए। ऐसे में समय के साथ स्वभाविक तौर पर जमीन का मालिकाना हक बदलता रहा। आज यह सभी भूमि-भवन सरकार की मिल्कीयत हैं, पर वर्तमान में अनेकों पर वक्फ बोर्ड का कब्जा है और वह उनसे धन कमा रहा है। इनमें आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ASI) की 256 संरक्षित इमारतें भी शामिल हैं। इतना ही नहीं ईसाई एवं अन्य धर्म, संप्रदाय की भूमि एवं भवन पर भी इसने कई राज्यों में दावा कर रखा है। आज विवाद का कारण यही है, जैसा कि संसद में पेश हुई संयुक्त संसदीय कमेटी (JPC) की रिपोर्ट में बताया गया, वक्फ बोर्ड ने पूरे देश में 58,000 से ज्यादा संपत्तियों पर कब्जा कर रखा है।
इतिहास से कैसे ये वक्फ बोर्ड खिलवाड़ कर रहा है, इसको आप दिल्ली की कुतुब मीनार क्षेत्र, सुंदरवाला महल, बाराखंभा, पुराना किला, लाल बंगला, कर्नाटक का बीदर किला, कलबुर्गी स्थित गुलबर्ग किले को अपना बताए जाने की मानसिकता से समझ सकते हैं। वहीं, इसने कई प्राचीन जामा मस्जिदें, सूफी-संतों की दरगाहें और गुंबदों पर भी दावा कर रखा है। रेलवे की 2704 वर्ग मीटर जमीन पर वक्फ बोर्ड ने कब्जा कर लिया है। जयपुर रेलवे स्टेशन की 45.9 वर्ग मीटर और जोधपुर रेलवे स्टेशन की 131.67 वर्ग मीटर जमीन को भी वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया गया है। वर्तमान में वक्फ बोर्ड की जमीन 9.4 लाख एकड़ जमीन में फैली है। बड़ी बात यह है कि धर्म के आधार पर इस्लामवादियों ने अपने लिए अलग देश लेकर भी भारत में अपने पास दुनिया की सबसे बड़ी वक्फ होल्डिंग रखी हुई है।
वस्तुत: ऐसे में यहां साफ समझ आता है कि गैर मुसलमान को वक्फ बोर्ड में सदस्य के रूप में रखने के पीछे सरकार की मंशा क्या रही होगी। संभवत: यही कि जिस तरह से अभी तक वक्फ बोर्ड मनमानी करते हुए किसी भी संपत्ति पर अपना दावा ठोकता रहा है और वक्फ कानून का हवाला देकर जिला कलेक्टर के माध्यम से इन संपत्तियों को कब्जाता रहा है, वह अब ऐसा नहीं कर पाए। क्योंकि यदि निगरानी के स्तर पर बोर्ड में गैर मुसलमान रहेंगे तो बातें बाहर निकल कर आसानी से आएंगी और मजहब के नाम पर मनमानी बंद होगी। वास्तव में उसे रोकने के लिए ही सरकार ने ये नई व्यवस्था का निर्माण किया होगा।
इस केस में एक चिंता न्यायालय की वक्फ बाय यूजर की भी देखने में आई है। देखा जाए तो इसका मतलब उस संपत्ति से होता है, जिसके कोई औपचारिक दस्तावेज नहीं है, लेकिन इन संपत्तियों का इस्तेमाल लंबे समय से मजहबी कार्यों के लिए किया जा रहा है। सरल शब्दों में कहें तो 'वक्फ बाय यूजर' का अर्थ है 'मौखिक घोषणाएँ। भूमि के टुकड़े या संपत्तियाँ जिन्हें धार्मिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा रहा है, उन्हें वक्फ संपत्ति के रूप में घोषित किया जा सकता है। इसके लिए किसी दस्तावेज, किसी विलेख या किसी कागजी कार्यवाही की आवश्यकता नहीं। 'धारणा' वाला हिस्सा व्यक्तिपरक होने के साथ-साथ अपनी व्याख्या में भी अस्पष्ट था, जिससे भूमि विवादों को देशभर में बढ़ाने का काम किया है। क्योंकि इसमें कहीं भी भूमि कब्जाओ और उसे वक्फ बोर्ड की घोषित कर दो अथवा जहां मर्जी आए उस पर वक्फ बोर्ड से दावा ठोक दो!
वक्फ एसेट्स मैनेजमेंट सिस्टम ऑफ इंडिया के आंकड़ों को देखें तो देश में 4.02 लाख संपत्तियां वक्फ बाय यूजर के रूप में चिन्हित की गई हैं। क्षेत्रफल के लिहाज़ से 'वक्फ बाय यूजर' संपत्तियों में कुल 37 लाख एकड़ में से 22 लाख एकड़ से ज़्यादा ज़मीन शामिल है। मतलब मौखिक घोषणाओं के आधार पर ही अब तक ज़्यादातर बिना कागज़ात या डीड के ही इन संपत्तियों पर वक्फ बोर्ड ने अपना अधिकार कर रखा है। अब नए कानून के तहत किसी संपत्ति को केवल इस आधार पर वक्फ का घोषित नहीं किया जा सकता है कि वहां पर लंबे समय से धर्म के काम हो रहे हैं। अब किसी भी तरह का नए वक्फ घोषित करने के लिए उससे जुड़े कानूनी कागज दिखाने जरूरी होंगे। एक तरह से देखें तो नए कानून के तहत ‘वक्फ बाय यूजर’ को खत्म कर दिया गया है। न्यायालय के सामने अब इस्लामवादियों की चिंता यह है कि लम्बे समय से मौखिक तौर पर उपयोग करते आ रहे इस भूमि-भवन के बारे में दस्तावेज कहां से लाए जा सकते हैं, तब इसका उत्तर सीधा है कि यदि राममंदिर, कृष्ण जन्मभूमि, काशी विश्वनाथ, ज्ञानवापी मामले में प्राचीनतम दस्तावेज मांगे जा सकते हैं, तब वक्फ बोर्ड को भी संपत्ति के दस्तावेज दिखाने होंगे अन्यथा वह सभी सरकार की संपत्ति होगी, जिसके कोई दस्तावेज नहीं।
दूसरी ओर अब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में वक्फ संशोधन एक्ट को लेकर जो जवाब प्रस्तुत किया है, उसमें भी न्यायालय को साफ बता दिया है कि सरकारी भूमि को जानबूझ कर या गलत तरीके से वक्फ संपत्ति के रूप में चिन्हित करना किसी धार्मिक समुदाय की भूमि नहीं माना जा सकता। फिलहाल नेहरू सरकार के 1954 के वक्फ अधिनियम, 1984 में संशोधनों के बाद भी इसमें व्याप्त अराजकता का होना और इसके बाद 1995 के अधिनियम के पश्चात 2013 में कांग्रेस सरकार ने इसके माध्यम से जिस तरह से मुस्लिम तुष्टीकरण की राह पकड़ी थी, वास्तव में इस सबसे मुक्ति दिलाता यह वक्फ संशोधन अधिनियम (2025), एक कानून के रूप में आज न्यायालय के पास पहुंचा है।
लेखक - - डॉ. मयंक चतुर्वेदी
हरियाणा के ढाणी बीरन गांव ने ऐतिहासिक पहल करते हुए बहू-बेटियों को घूंघट प्रथा से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया है। गांव के बुजुर्ग धर्मपाल की अगुवाई में पंचायत ने यह निर्णय लिया कि अब किसी महिला पर घूंघट डालने का दबाव नहीं डाला जाएगा। जो भी इसका विरोध करेगा, उसके खिलाफ पंचायत में कार्रवाई होगी। सरपंच कविता देवी ने खुद घूंघट हटाकर इस बदलाव की अगुवाई की। इस पहल ने गांव में महिलाओं को शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी के लिए प्रेरित किया है। विरोध की कुछ आवाजों के बावजूद ढाणी बीरन ने सोच और परंपरा के बीच संतुलन बनाते हुए एक मिसाल कायम की है। यह कदम न केवल गांव, बल्कि पूरे प्रदेश में महिला सशक्तीकरण की दिशा में उम्मीद की किरण बना है।
पिछले दिनों की एक रात। करीब रात आठ बजे का वक्त। ढाणी बीरन गांव की चौपाल पर बड़ी संख्या में पुरुष, महिलाएं और बच्चे इकट्ठा थे। धीमी हवाओं के बीच चारों तरफ टिमटिमाते दीयों और लालटेन की रोशनी के बीच माहौल में एक अजीब सी उत्तेजना थी। तभी बुजुर्ग धर्मपाल उठे और भारी आवाज में बोले, ''बेटी वह है जो हमारे घर को बढ़ाती है। हमारी बेटी भी किसी और के आंगन में रोशनी फैलाएगी। आज से हम प्रण लेते हैं कि किसी बहू-बेटी को यह नहीं कहेंगे कि घूंघट क्यों उतार रखा है। अगर कोई इसका विरोध करेगा तो पंचायत में उसके खिलाफ उचित निर्णय लिया जाएगा।''
चौपाल में बैठे तमाम लोगों ने एक साथ दोनों हाथ उठाकर इस संकल्प का समर्थन किया। यह महज समर्थन नहीं था, यह सदियों पुरानी एक मानसिकता की बेड़ियों को तोड़ने का सामूहिक निर्णय था।
कविता ने दिखाई राहः गांव की सरपंच कविता देवी अब तक की परंपरा के चलते घूंघट में थीं। पंचायत के फैसले के बाद धीमे-धीमे आगे बढ़ीं। फिर सबकी नजरों के सामने उन्होंने घूंघट को सिर से पीछे सरका दिया। वह सिर ऊंचा किए, गर्व से मुस्कुराती रहीं। मानो सदियों का एक बोझ उनकी मुस्कान के नीचे झरता जा रहा हो। कविता देवी के इस साहसिक कदम ने बाकी महिलाओं के भीतर भी ऊर्जा फूंकी। धीरे-धीरे कई और महिलाएं, जो सिर से पल्लू हटाने से झिझकती थीं, चौपाल में खड़ी होकर बिना घूंघट के सामने आईं। ढाणी बीरन में एक नई कहानी लिखी गई। वह है घूंघट से आजादी की कहानी।
परंपरा या बंधन? ःहरियाणा जैसे राज्य में, जहां घूंघट को लंबे समय तक सम्मान और संस्कार की निशानी माना गया, वहीं दूसरी तरफ इस परंपरा ने महिलाओं की स्वतंत्रता और आत्मविश्वास पर अक्सर अनदेखे पहरे भी लगाए। बहू-बेटियों को घरों में सीमित करना, सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी कम करना -ये सब पर्दा प्रथा के अदृश्य दुष्परिणाम रहे हैं। लेकिन ढाणी बीरन ने यह तय किया कि सम्मान का असली अर्थ नियंत्रण में नहीं, बल्कि बराबरी में है।
बदलाव एक दिन में नहीं आताः गांव के बुजुर्ग धर्मपाल मानते हैं कि बदलाव अचानक नहीं आता। समझदारी से काम लेना होता है। अगर हम अपनी बहू-बेटियों को शिक्षा, रोजगार और निर्णय लेने का अवसर देना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें अपने सोच के पर्दे हटाने होंगे। इसी सोच ने पूरे गांव को एक नई दिशा दी। आज ढाणी बीरन के लोग न सिर्फ घूंघट उतारने की बात कर रहे हैं, बल्कि लड़कियों की पढ़ाई, महिलाओं की पंचायत में भागीदारी और आर्थिक आज़ादी को भी प्राथमिकता दे रहे हैं।
छोटी पहल, बड़ा असर ः सरपंच कविता देवी बताती हैं, ''पहले महिलाएं पंचायत की बैठक में भी परदे के पीछे से बोलती थीं। अब हम चाहती हैं कि बहनें-बहुएं खुलकर अपनी बात रखें। बेटी सिर्फ घर में चूल्हा जलाने के लिए नहीं है, वह गांव का भविष्य संवारने के लिए भी है।'' गांव में लड़कियों की स्कूल उपस्थिति बढ़ाने के लिए भी प्रयास हो रहे हैं। साक्षरता अभियान, स्वास्थ्य शिविर, और महिला सशक्तिकरण पर जागरूकता कार्यक्रमों की योजना भी बनाई जा रही है।
विरोध की आहटः बेशक हर बदलाव का कुछ विरोध भी होता है। गांव के कुछ पुराने विचारों के लोग आज भी पर्दा प्रथा को छोड़ने में हिचकिचा रहे हैं। लेकिन जब धर्मपाल जैसे बुजुर्ग, जिनकी आवाज गांव में सम्मान के साथ सुनी जाती है, खुले मंच से इस पहल का समर्थन करते हैं, तो विरोध स्वतः कमजोर पड़ने लगता है। धर्मपाल मुस्कुराते हुए कहते हैं, ''अगर घर की लक्ष्मी खुद को बांधकर रखेगी तो घर कैसे समृद्ध होगा? उड़ने दीजिए बेटियों को, वे नया आकाश रचेंगी।''
दूर तक जाएगी रोशनीः ढाणी बीरन की चौपाल पर जो दीप जलाया गया है, उसकी रोशनी सिर्फ इस गांव तक सीमित नहीं रहेगी। यह बदलाव दूसरे गांवों, कस्बों और जिलों के लिए भी एक मिसाल बनेगा। यह कहानी बताती है कि जब गांव का एक बुजुर्ग अपनी सोच बदलता है, जब सरपंच घूंघट उतारती है, जब महिलाएं डर छोड़कर मुस्कुराती हैं -तब असली क्रांति होती है। और शायद आने वाले वर्षों में कोई बच्ची ढाणी बीरन के चौपाल पर खड़े होकर यह कहेगी, ''मेरे गांव ने मुझे घूंघट नहीं, हौसला दिया था।''
ढाणी बीरन का संकल्पः हम प्रण लेते हैं-किसी बहू-बेटी से घूंघट ना करने की आजादी छीनेंगे नहीं। महिलाओं को पंचायत, शिक्षा और रोजगार में बराबरी का अवसर देंगे। जो विरोध करेगा, उसके खिलाफ पंचायत में उचित निर्णय लिया जाएगा। ढाणी बीरन ने घूंघट नहीं, सोच का पर्दा हटाया है।
लेखिका - प्रियंका सौरभ
''विमानन को कभी कुछ चुनिंदा लोगों का क्षेत्र माना जाता था, लेकिन उड़ान के आगमन के बाद अब यह बदल गया है। मेरा सपना है कि मैं हवाई चप्पल पहने हुए व्यक्ति को हवाई जहाज में उड़ते हुए देखूं।''
-नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री
इसी सत्ताईस अप्रैल को केंद्र सरकार की क्षेत्रीय संपर्क योजना (आरसीएस)-'उड़ान' (उड़े देश का आम नागरिक) के आठ साल पूरे हुए हैं। मोदी सरकार ने 21 अक्टूबर 2016 को देश के आम नागरिकों के लिए उड़ान योजना की घोषणा की थी। इसकी पहली उड़ान 27 अप्रैल, 2017 को शिमला और दिल्ली के बीच संचालित हुई थी। तब से अब तक 625 उड़ान मार्ग चालू किए गए हैं। यह योजना पूरे भारत में 90 हवाई अड्डों (दो जल हवाई अड्डों और 15 हेलीपोर्ट सहित) को जोड़ती है। अब तक 1.49 करोड़ से अधिक यात्री किफायती क्षेत्रीय हवाई यात्रा से लाभान्वित हुए हैं। यही नहीं देश का हवाई अड्डा नेटवर्क 2014 में 74 हवाई अड्डों से बढ़कर 2024 में 159 हवाई अड्डों तक पहुंच गया। यह एक दशक में दोगुने से भी अधिक है। वंचित एवं दूरदराज के क्षेत्रों में कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने के लिए व्यवहार्यता अंतर वित्तपोषण के रूप में 4,023.37 करोड़ रुपये वितरित किए गए। उड़ान ने क्षेत्रीय पर्यटन, स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच और व्यापार को मजबूत किया। इससे टियर-2 और टियर-3 शहरों में आर्थिक विकास को बढ़ावा मिला।
यह आंकड़े भारत सरकार के पत्र एवं सूचना कार्यालय (पीआईबी) से लिए गए हैं। पीआईबी ने 26 अप्रैल की विज्ञप्ति में उड़ान योजना पर विस्तार से चर्चा की है। विज्ञप्ति में कहा गया कि लंबे समय से आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में देखा जाने वाला आकाश कभी भारत में कई लोगों के लिए एक अप्राप्य सपना रहा है। इस अंतर को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने 21 अक्टूबर, 2016 को क्षेत्रीय संपर्क योजना (आरसीएस)-उड़ान का शुभारंभ किया। यह प्रधानमंत्री के इस विजन पर आधारित है कि हवाई चप्पल पहनने वाला एक आम आदमी भी हवाई यात्रा करने में सक्षम होना चाहिए। उड़ान का उद्देश्य सभी के लिए उड़ान को सुलभ और किफायती बनाकर विमानन को बढ़ावा देना है। नागर विमानन मंत्रालय के माध्यम से इस प्रमुख योजना ने तब से भारत के क्षेत्रीय संपर्क परिदृश्य को बदल दिया है। आम नागरिक के लिए किफायती हवाई यात्रा का सपना 27 अप्रैल, 2017 को पहली उड़ान के साथ साकार हुआ। यह ऐतिहासिक उड़ान ने शिमला की शांत पहाड़ियों को दिल्ली के हलचल भरे महानगर से जोड़ा। भारतीय विमानन क्षेत्र में एक परिवर्तनकारी यात्रा के साथ यह मील का पत्थर है।
उड़ान की परिकल्पना राष्ट्रीय नागरिक उड्डयन नीति 2016 के तहत की गई थी। इसका लक्ष्य 10 साल तय किया गया, ताकि टियर-2 और टियर-3 शहरों को बाजार संचालित लेकिन वित्तीय रूप से समर्थित मॉडल के माध्यम से जोड़ा जा सके। सरकार की इस योजना ने एयरलाइनों को रियायतों और व्यवहार्यता अंतर निधि के माध्यम से क्षेत्रीय मार्गों पर परिचालन करने के लिए प्रोत्साहित किया। इससे किफायती किराया और बेहतर पहुंच सुनिश्चित हुई। इन उड़ानों का लैंडिंग और पार्किंग शुल्क माफ किया गया है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण इन उड़ानों पर टर्मिनल नेविगेशन लैंडिंग शुल्क नहीं लगाता है। केंद्र सरकार ने पहले तीन वर्ष तक एविएशन टर्बाइन फ्यूल (पर उत्पाद शुल्क 2 प्रतिशत तक सीमित किया। राज्य सरकारों ने दस वर्षों के लिए आवश्यक सेवाएं कम दरों पर उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता दोहराई।
इन आठ वर्षों में यह योजना कई चरणों से गुजरी है। पहली उड़ान के बाद पांच एयरलाइन संचालकों को 70 हवाई अड्डों के लिए 128 मार्ग आवंटित किए गए। इनमें 36 नए हवाई अड्डे भी शामिल हैं। 2018 में उड़ान 2.0 के तहत इसमें 73 कम जुड़ाव वाले और ऐसे क्षेत्र जिनसे जुड़ाव नहीं था उन हवाई अड्डों को शामिल किया गया। पहली बार हेलीपैड को भी उड़ान नेटवर्क से जोड़ा गया। अगले साल 2019 में उड़ान 3.0 के अंतर्गत पर्यटन मंत्रालय के समन्वय से पर्यटन मार्ग शुरू किए गए। जल हवाई अड्डों को जोड़ने के लिए समुद्री विमान परिचालन को शामिल किया गया । पूर्वोत्तर क्षेत्र के कई मार्गों को इस योजना से जोड़ा गया। 2020 में उड़ान 4.0 में पहाड़ी क्षेत्रों, पूर्वोत्तर राज्यों और द्वीप क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया गया। हेलीकॉप्टर और समुद्री विमान सेवा पर अधिक जोर दिया गया।
अक्टूबर 2025 में उड़ान ने अपने 9वें वर्ष के प्रवेश में इस योजना ने महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की।
इस यात्रा को अधिक समावेशी बनाने के दृष्टिकोण के अनुरूप कोलकाता और चेन्नई हवाई अड्डों पर किफायती यात्री कैफे शुरू किए गए। यहां 10 रुपये में चाय और 20 रुपये में समोसा मिलता है। इसमें कृषि उड़ान योजना से चार चांद जड़े। किसानों को सहायता प्रदान करने और कृषि-उत्पादों के लिए मूल्य प्राप्ति में सुधार करने के लिए बनाई गई कृषि उड़ान विशेष रूप से पूर्वोत्तर, पहाड़ी तथा आदिवासी क्षेत्रों से समय पर और लागत प्रभावी हवाई रसद की सुविधा प्रदान करती है। यह बहु-मंत्रालय योजना वर्तमान में 58 हवाई अड्डों को कवर करती है।
केंद्र सरकार ने अगले पांच वर्षों में 50 नए हवाई अड्डे विकसित करने की प्रतिबद्धता जताई है। इसमें बिहार में नए ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे, पटना हवाई अड्डे का विस्तार और बिहटा में ब्राउनफील्ड हवाई अड्डे का विकास शामिल है। इसका उद्देश्य हवाई यात्रा और क्षेत्रीय विकास की भविष्य की मांग को पूरा करना है। सरकार का मानना है कि उड़ान नीति भर नहीं है। यह एक परिवर्तनकारी आंदोलन है। उड़ान ने भारत और इंडिया के बीच दूरी को समाप्त कर लाखों लोगों के लिए सस्ती हवाई यात्रा के सपने को साकार किया है। इसने न केवल दूरदराज के क्षेत्रों को राष्ट्रीय विमानन मानचित्र पर ला दिया है बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा दिया है। पर्यटन को बढ़ावा देने के साथ पूरे देश में रोजगार का सृजन किया है।
लेखक - मुकुंद
"क्षत्रियों के शुभचिंतक और सामाजिक समरसता के पुरोधा न्याय प्रिय योद्धा भगवान परशुराम"