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राम प्रसाद बिस्मिल - क्रांति और कलम से समान रिश्ता रखने वाले शहीद

Date : 11-Jun-2024

रामप्रसाद बिस्मिल एक क्रान्तिकारी थे जिन्होंने मैनपुरी और काकोरी जैसे कांड में शामिल होकर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध बिगुल फूंका था। वह एक स्वतंत्रता संग्रामी होने  के साथ-साथ एक कवि भी थे और राम, अज्ञात व बिस्मिल के तख़ल्लुस से लिखते थे, उनके लेखन को सर्वाधिक लोकप्रियता बिस्मिल के नाम से मिली थी।

राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश की  शाहजहाँपुर जिले के खिरनी बाग़ मोहल्ले में हुआ था। उनके पिता का नाम मुरलीधर और माता का नाम मूलमती था। राम प्रसाद अपने माता पिता की दूसरी सन्तान थे। पहली संतान पैदा होते ही मर गया था। बिस्मिल भी जब पैदा हुए तो इन्हें भी पहले बच्चे की तरह स्यात रोग हो गया था। इनके बचने की कोई उम्मीद नही थी। इनके मातापिता को लोगों ने टोटका बताया कि सफेद खरगोश को शरीर पर घुमाकर जमीन पर छोड़ देने से यह रोग दूर हो जाता है। यह टोटका सच साबित हुआ। जैसे ही सफ़ेद खरगोश को इनके शारीर पर घुमाकर छोड़ा गया तीन-चार चक्कर काटने के पश्चात खरगोश वही मर गया। इस टोटके के परिणामस्वरूप बिस्मिल को नया जीवन मिला। वे रोग मुक्त हो गए।

ज्योतिषी ने बिस्मिल को देखकर भविष्यवाणी की थी कि ऐसे दिव्य पुत्र का बचना बहुत ही मुश्किल होता है। यदि यह बालक बच गया तो जग में अपना नाम रोशन करेगा।

बिस्मिल जब सात वर्ष के थे तभी उनके पिता पंडित मुरलीधर उन्हें हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। पढ़ाई के मामले में लापरवाही करने पर उन्हें मार भी पड़ती थी। आठवीं कक्षा तक वे कक्षा में प्रथम ही आते थे, लेकिन गलत संगति के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वे लगातार दो वर्ष तक असफल हुए। नवीं कक्षा में जाने के बाद रामप्रसाद आर्य समाज के सम्पर्क में आये और उसके बाद इनके जीवन की दशा-दिशा दोनों ही बदल गई।  इसके बाद रामप्रसाद ने पढ़ाई छोड़कर सन् 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में नरम दल के विरोध के बावजूद लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की शोभायात्रा निकाली। तत्पश्चात कुछ साथियों की मदद से उन्होंने अमेरिका की स्वतंत्रता का इतिहासनामक एक पुस्तक प्रकाशित करवाया जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया।

बहुत कम उम्र में, बिस्मिल आर्य समाज की शिक्षाओं की तरफ़ आकर्षित हो गए थे। वे इस आंदोलन के एक निष्ठावान अनुयायी बन गए, और उनके विचार इतने दृढ़ थे कि उनके पिता द्वारा आर्य समाज की उनकी सदस्यता पर आपत्ति जताने के बाद, उन्होंने घर छोड़ दिया। बिस्मिल आर्य समाज युवा संघ में शामिल हो गए और स्वामी दयानंद की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने लगे। अपनी गतिविधियों के दौरान, रामप्रसाद, स्वामी सोमदेव के संपर्क में आए, जिन्होंने उनके जीवन में एक प्रमुख भूमिका निभाई। स्वामीजी ने उन्हें राजनीतिक और राष्ट्रवादी साहित्य से परिचित कराया, जिससे वे एक सक्रिय कार्यकर्ता बनने की तरफ़ अग्रसर हुए।

बिस्मिल और उनके समूह द्वारा की गई अधिकांश क्रांतिकारी गतिविधियों का उद्देश्य हथियार इकट्ठा करना और राष्ट्रवादी साहित्य का प्रचार सुनिश्चित करना था। बिस्मिल ने विपुल साहित्य की रचना की और उर्दू और हिंदी में, उन्होंने विभिन्न उपनामों से, देशभक्ति कविताएँ लिखीं, जैसे 'बिस्मिल', 'राम' और 'अज्ञात'। वे 1918 के मैनपुरी षडयंत्र में शामिल थे, जिसमें पुलिस ने बिस्मिल सहित कुछ अन्य युवाओं को ऐसी किताबें बेचते हुए पाया, जिन पर सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा था। हालाँकि मैनपुरी षडयंत्र मामले में शामिल कार्यकर्ताओं पर अंग्रेज़ों ने शिकंजा कस लिया था, लेकिन बिस्मिल भागने में सफल रहे और भूमिगत हो गए।

धन की कमी को पूरा करने के लिए बिस्मिल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायीं और उनके नेतृत्व में कुल 10 लोगों ने लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन के निकट ट्रेन रोककर 9 अगस्त 1925 को सरकारी खजाना लूट लिया। 26 सितम्बर 1925 को बिस्मिल के साथ-साथ 40 से भी अधिक लोगों को काकोरी डकैतीमामले में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें इस कार्य के लिए फांसी की सजा सुनाया गया।

19 दिसम्बर 1927 को गोरखपुर जेल में 30 वर्ष की आयु में राम प्रसाद बिस्मिल को फासी दे दी गयी।

 
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