एक बार स्वामी दयानन्दजी फर्रुखाबाद गये, जहाँ गंगा के तट पर उन्होंने अपना आसन जमाया। समीप ही एक झोपड़ी में एक साधु रहता था। स्वामीजी को वहाँ आया देख उसे ईर्ष्या हुई और वह उनके पास रोज आकर गालियाँ दिया करता, किन्तु स्वामीजी उस ओर ध्यान न दे मुसकरा देते।
एक दिन स्वामीजी के भक्त ने उन्हें फलों का एक टोकरा अर्पित किया। स्वामीजी ने उसमें से कुछ अच्छे फल निकाले और उन्हें एक शिष्य से उस साधु को देने के लिए कहा। शिष्य फल लेकर उस साधु के पास पहुँचा। उसने स्वामीजी का नाम लिया ही था कि वह साधु चिल्ला उठा, "यह सबेरे सबेरे किस पाखंडी का नाम ले लिया तुमने ! अब तो आज मुझे भोजन मिलता है या नहीं, इसमें शंका ही है। जाओ, ये फल किसी और को देने के लिए कहे होंगे!"
वह शिष्य स्वामीजी के पास वापस आया और उनसे सारी बात कह दी। स्वामीजी उसे लौटाते हुए बोले, "जाओ, उससे कहो कि आप उन पर प्रतिदिन जो अमृतवर्षा करते हैं, उसमें आपकी पर्याप्त शक्ति नष्ट होती है, इसलिए आप इन फलों का रसास्वादन करें, जिससे आपकी शक्ति बनी रहे।"
शिष्य ने स्वामीजी का सन्देश ज्यों का त्यों सुना दिया। सुनते ही उस साधु पर मानो घड़ों पानी पड़ गया। उसे बड़ा ही पश्चाताप हुआ और वह आकर स्वामीजी के चरणों पर गिरकर बोला, "क्षमा करें, मैं तो आपको साधारण मनुष्य समझता था, मगर आप देवता निकले ! और स्वामीजी ने उसे गले लगा लिया |