स्वाधीनता सेनानी – तिरुपुर कुमारन
तिरुपुर कुमारन जिन्होंने 27 साल की उम्र में देश के लिए अपना बलिदान दिया लेकिन राष्ट्र ध्वज की गरिमा को अपनी आखरी सांस तक बनाई रखी। सही मायनों में उन्होंने राष्ट्रिय ध्वज की गरिमा जान जाने के बाद ही कायम रखी। मृत्यु के बाद जब उन्हे सड़क पर पाया गया तब देखा गया की उन्होंने जान जाने के बाद भी राष्ट्रीय घ्वज को इस प्रकार थामा है कि वह जमीन पर नहीं लग पाए। भारतीयों की हालत उनसे देखी नहीं गई और अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ विचारों ने बचपन से मन में घर बनाना शुरू कर दिया. कुमारन अपने देशवासियों के साथ हो रहे रंगभेद, अत्याचार से बेहद विचलित हो गए और आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े. कुमारन की आज़ादी की लड़ाई की बढ़ती गतिविधियों ने उनके परिवार की भी चिंताएं बढ़ा दीं. परिवार के सदस्य उनसे अक़सर मिलने पहुंच जाते और उनसे क्रांति में हिस्सा न लेने की अपील करते
देशबंधु यूथ एसोसिएशन शुरू किया
कुमारन पर परिवार के सदस्यों की चिंताओं का कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने शायद देश को आज़ाद कराकर ही दम लेने की ठान ली थी. कुमारन ने देशबंधु यूथ एसोसिएशन (Desh Bandhu Youth Association) की नींव रखी. इस संगठन में पूरे तमिलनाडु के युवा शामिल हुए, और सभी का एक ही लक्ष्य था, 'अंग्रेज़ों से देश की आज़ादी'. इस संगठन से कई युवा प्रेरित हुए.
जो भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए उत्सुक थे। उन सब ने साथ मिलकर पूरे तमिलनाडु में कई ब्रिटिश विरोधी मार्च आयोजित किए। कुमारन को प्यार से तिरुपुर कुमारन के रूप में जाना जाता था क्योंकि वह स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने वाले युवाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत थे।
गांधी के विचारों से प्रभावित
आज़ादी की लौ को कई दिशाओं से हवा मिल रही थी. कुमारन पर भी इसका असर पड़ा. वे महात्मा गांधी के विचारों और आदर्शों से बेहद प्रभावित हुए. कुमारन ने भी बापू के आह्वान पर विरोध प्रदर्शन, सत्याग्रह आदि में हिस्सा लेना शुरू किया.
1932 में जब ब्रिटिश अधिकारियों ने बंबई में एक प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए गांधीजी को जेल में डाल दिया, तो पूरे देश में दंगे और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। उसी वर्ष 11 जनवरी को तिरुपुर में, त्यागी पी एस सुंदरम के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन के सम्मान में और ब्रिटिश अधिकारियों के प्रति अपनी अवज्ञा दिखाने के लिए एक देशभक्ति मार्च आयोजित किया गया था। प्रदर्शनकारियों ने भारतीय राष्ट्रीय ध्वज लहराया, इस बात की परवाह किए बिना कि उस समय ऐसा करने पर प्रतिबंध था। तिरूपुर कुमारन झंडा थामे हुए प्रदर्शनकारियों में से एक थे। ब्रिटिश सेना ने प्रदर्शनकारियों पर लाठियाँ बरसानी शुरू कर दीं। कुमारन ने निडर होकर परिसर छोड़ने से इनकार कर दिया। वह इस अफ़रा-तफ़री में फँस गये, और बाद में वह सड़क पर मृत पाए गए, लेकिन उस अवस्था में भी उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज को कसकर पकड़ा हुआ था। उनके परिवार का सबसे बड़ा डर सच हो गया था। 27 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही शहीद हुए कोडि कथा कुमारन (ध्वज को बचाने वाले कुमारन) का बलिदान हमेशा स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक अभिन्न अंग रहेगा।
इस युवा स्वतंत्रता सेनानी को श्रृद्धांजलि देने के लिए तिरुपुर रेलवे स्टेशन के सामने कुमारन सलाई में तिरुपुर कुमारन स्मारक बनाया गया। 2004 में चेन्निमलाई, इरोड जिले (तमिलनाडु) में एक संस्मारक डाक टिकट जारी किया गया था।