'वन नेशन, वन इलेक्शन' बिल लोकसभा में सोमवार यानी 16 दिसंबर को पेश नहीं किया जाएगा। इससे जुड़े दोनों बिल को लोकसभा की रिवाइज्ड लिस्ट से हटा दिया गया है। अब फाइनेंशियल बिजनेस पूरा होने के बाद बिल सदन में पेश किए जाने की बात कही जा रही है। हालांकि, सरकार बिल को आखिरी समय में भी लोकसभा स्पीकर की परमिशन के बाद सप्लीमेंट्री लिस्टिंग के जरिए सदन में पेश कर सकती है। कैबिनेट ने 12 दिसंबर को बिल की मंजूरी दी थी।
लोकसभा में जब कभी एक देश एक चुनाव से संबंधित विधेयक पेश किया जाएगा, इस दिशा में देश एक कदम और बढ़ जाएगा। सरकार इस विधेयक को संसदीय समिति को भेजने की मंशा व्यक्त करती रही है ताकि इस पर सांसदीय समिति के माध्यम से गंभीर मंथन और चिंतन हो सके। हालांकि एक देश एक चुनाव की दिशा में बढ़ते कदम में स्थानीय निकायों के चुनावों की प्रकिया बाकी है। उसका कारण है कि उस प्रस्ताव के विधेयक को विधानसभाओं से भी पारित करवाया जाना होगा। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते हैं तो भले ही कांग्रेस सहित विपक्ष विरोध कर रहे हों पर माना जाना चाहिए कि यह सही दिशा में बढ़ता कदम होगा।
ऐसा नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह कोई नई बात हो बल्कि आजादी के समय से ही देश में एक साथ चुनाव कराने पर बल दिया जाता रहा है। 1952, 1957, 1962 और 1967 के चुनाव इसके उदाहरण हैं। 1968 से विधानसभाओं को भंग करने का जो सिलसिला चला उसने पूरे हालात बदल दिए और उसके बाद लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग-अलग होने लगे। अलग-अलग चुनावों के दुष्परिणाम अधिक सामने आते हैं। यह केवल चुनावों पर होने वाले सरकारी और गैर सरकारी खर्चों तक ही सीमित ना होकर अलग-अलग चुनाव एक नहीं अनेक समस्याओं का कारण बन रहे हैं।
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने से करीब एक साल तक चुनी हुई सरकार पंगु बन कर रह जाती है। इसको राजस्थान सहित अन्य प्रदेशों के चुनावों से इस तरह से समझा जा सकता है। यह उदाहरण मात्र है और सभी प्रदेशों पर समान तरीके से लागू होता है। नवंबर-दिसंबर में राजस्थान की विधानसभा के चुनाव होते हैं। सरकार बनते ही प्राथमिकता तय कर पाती है तब तक बजट की तैयारी में जुटना पड़ता है क्योंकि अब फरवरी में ही बजट सेशन होने लगे हैं। मई-जून में लोकसभा के चुनाव के कारण अप्रैल से ही आचार संहित लगने की तलवार लटक जाती है और फिर करीब डेढ़ माह का समय आचार संहिता को समर्पित हो जाता है। इसके कुछ समय बाद या यों कहे कि परिवर्तित बजट से निपटते-निपटते सरकार के सामने स्थानीय निकायों व पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव का समय हो जाता है और उसके कारण लंबा समय इन चुनावों के कारण आचार संहिता के भेंट चढ़ जाता है। इस बीच में कोई-कोई ना कोई उप चुनाव आ जाते हैं तो उसका असर भी चुनी हुई सरकार को भुगतना पड़ता है। जैसे तैसे चौथा साल पूरा होने को होता है कि सरकार ताबड़तोड़ निर्णय करने लगती है और इनके क्रियान्वयन का समय आते-आते चुनाव आचार संहिता लग जाती है। इस तरह से एक बात तो साफ हो जाती है कि पांच साल के लिए चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार का कमोबेश एक साल का समय चुनाव आचार संहिताओं के भेंट चढ़ जाता है। यह तो केवल लोकतांत्रिक जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के कार्यों के प्रभावित होने का एक उदाहरण मात्र है।
अब अलग-अलग चुनाव होने से चुनाव पर होने वाले सरकारी और गैर सरकारी खर्चों पर भी ध्यान दिया जा सकता है। 1952 के पहले चुनाव में सरकारी व गैर सरकारी जिसमें राजनीतिक दलों और चुनाव लड़ने वालों का खर्च भी शामिल है, वह करीब 10 करोड़ के आसपास रहा। 2010 के आम चुनाव में 10 हजार करोड़ रु. का व्यय माना जा रहा है जो 2019 में 55 हजार करोड़ और 2024 के आम चुनाव में एक लाख करोड़ को छू गया है। इसमें चुनाव आयोग, प्रशासनिक व्यवस्थाओं के साथ ही राजनीतिक दलोें, प्रत्याशियों द्वारा होने वाला खर्च शामिल है।
मोदी सरकार आने के बाद 2014 से एक देश एक चुनाव पर चर्चा का सिलसिला चल निकला था। 2017 में नीति आयोग ने इसे उपयुक्त बताया और 2018 में संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इसे सही दिशा बताया। सितंबर 2023 में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 6 सदस्यीय कमेटी बनाई गई और 65 बैठके कर 18626 पन्नों की रिपोर्ट इसी साल मार्च, 24 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को पेश की गई। यदि इन सभी सिफारिशों को लागू किया जाता है तो 18 संसोधनों की आवश्यकता होगी। सरकार ने अभी एक हिस्से यानी कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करने की दिशा में कदम बढ़ाती दिख रही है। माना जा रहा है कि 2029 के चुनाव नई व्यवस्था यानी एक देश एक चुनाव वन नेशन वन इलेक्शन से हो। इसके लिए चुनाव आयोग व सरकारों को काफी मशक्कत करनी पड़ेगी पर यदि एक बार यह सिलसिला चल निकलेगा तो इसे लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत ही माना जाएगा।
राजनीतिक दलों द्वारा यह शंका व्यक्त की जा रही है कि इससे छोटे व स्थानीय दलों के अस्तित्व पर ही संकट आ जाएगा। इसके साथ ही वोटिंग पेटर्न प्रभावित होगा। चुनाव में कानून व्यवस्था बनाए रखने और चुनाव के लिए मशीनरी भी अधिक लगाने की बात की जाती है तो खर्चे व आधारभूत सुविधाओं यथा ईवीएम मशीन, वीवीपेट मशीन, उनके रखरखाव सहित अन्य आवष्यक संसाधनों की आवश्यकताओं को लेकर भी शंका व्यक्त की जा रही हैं। जिस तरह चुनाव आयोग ने संसाधनों का आकलन कर अपनी आवश्यकताएं सरकार को बता दी हैं उससे लगता है कि चुनाव आयोग भी वन नेशन वन इलेक्शन के लिए मानसिक रूप से पूरी तरह से तैयार है। 2029 के चुनाव में चुनाव आयोग द्वारा 7951 करोड़ रुपए का खर्च अनुमानित किया गया है। राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों सहित अन्य खर्च अलग होंगे। वन नेशन वन इलेक्शन के सकारात्मक पक्ष भी है और उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। वन नेशन वन इलेक्शन हमारे देश के लिए कोई नई बात नहीं है, उसी तरह से दुनिया के अन्य देशों जर्मनी, जापान, दक्षिणी अफ्रीका, स्वीडन, इंडोनेशिया, फिलिपिंस आदि में भी एक साथ चुनाव होते रहे हैं। कोविंद कमेटी ने जर्मनी के चुनाव पैटर्न को बेहतर व अनुकरणीय भी माना है।
एक बात साफ हो जानी चाहिए कि एक साथ चुनाव होने से संसाधन तो एक बार जुटाने होंगे पर उसके बाद व्यवस्था सुनिश्चित हो जाएगी। आजादी के 75 साल से भी अधिक समय हो जाने के बाद जिस तरह से मतदाताओं की उदासीनता देखी जा रही है वह निश्चित रूप से कम होगी। राजनीतिक दल भले आज विरोध कर रहे हैं पर एक साथ चुनाव से उन्हें भी कम मशक्कत व एक बार ही मशक्कत करनी होगी। प्रचार सामग्री से लेकर प्रचार अभियान को आसानी से संचालित किया जा सकेगा। योजनाबद्ध प्रयासों से विधानसभा व लोकसभा प्रत्याशियों का एक साथ प्रचार अभियान संचालित हो सकेगा जिससे अलग-अलग चुनाव होने से बार-बार होने वाले व्यय में कुछ हद तक राजनीतिक दलों को भी कम खर्च करना पड़ेगा। चुनी हुई सरकारों को बार-बार आचार संहिता के संकट से गुजरना नहीं पड़ेगा और सरकार को काम करने का अधिक समय मिल सकेगा। दोनों चुनाव एक साथ होने से भले ही पोलिंग बूथ अधिक बनाने पड़े, मशीनरी अधिक लगानी पड़े पर मतदाताओं और चुनाव कराने वाली मशीनरी के लिए भी सुविधाजनक होगा।
एक बात यह भी कि असामाजिक तत्वों की गतिविधियां भी काफी हद तक कम हो सकेगी। इससे सरकारी संसाधनों की बचत, मानव संसाधन को बार बार नियोजित करने से होने वाले सरकारी कार्य में बाधा में बचत और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से बार-बार चुनाव के स्थान पर एक साथ चुनाव होने से खर्चों में भी कमी आएगी। देखा जाए तो वन नेशन वन इलेक्शन लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को मजबूत करने की दिशा में बढ़ता कदम माना जा सकता है।
लेखक:- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
सम्पूर्ण प्रकृति से आत्मीय व्यवहार श्रेष्ठ है। प्रकृति की शक्तियां सुनिश्चित नियमों में गतिशील हैं। वैदिक पूर्वजों ने इस नियम को ऋत कहा है। प्रकृति की तरह मनुष्य को भी नियमों के अनुसार चलना चाहिए। प्रकृति और मनुष्य तथा मनुष्य और सभी मनुष्यों के मध्य आचार संहिता का नाम धर्म है। ईश्वर आस्था निजी विश्वास है। धर्म में इसकी बाध्यता नहीं। कठोपनिषद् की कथा का नचिकेता युवा है। यम ने उसे 'सत्यधृति' कहा। वह सत्यनिष्ठ है। धर्म के यथार्थवादी रूप को जानता है। धर्म सम्पूर्णता के प्रति मनुष्य का सत्यनिष्ठ आदर्श व्यवहार है। उसने यम से पूछा-''जो धर्म से पृथक है, अधर्म से पृथक है, भूत भविष्य से भी पृथक है, वह मुझे बताइए।'' (1.2.14) यहां धर्म लोकजीवन की आचारसंहिता है, धर्म और अधर्म की सारी कार्यवाही देश और 'समय के भीतर' है। नचिकेता 'समय और देशकाल' की आचार संहिता 'धर्म-अधर्म और भूत भविष्य' से परे किसी अज्ञात तत्व 'सत्य' का जिज्ञासु है। पूर्वजों ने उपलब्ध ज्ञान के आधार पर जीवनचर्या के नियम बनाए। इन्हें धर्म कहा गया।
विज्ञान और दर्शन अंतरिक्ष का भी अनुसंधान कर रहे हैं। लेकिन पंथिक मजहबी विश्वासों में दैवी घोषणायें ही सत्य मानी जाती हैं। भारत में धर्म और आस्था विश्वास से निरंतर वाद-विवाद और संवाद की परम्परा है। धर्म गतिशील आचार संहिता है। परमसत्ता पर भी प्रश्न और प्रति-प्रश्न हैं। यहां लोक खुलकर प्रकट होता है, धैर्य से सुनता है और प्रश्न-प्रतिप्रश्न करता है। धर्म सत्य-निष्ठ जिज्ञासु जीवनशैली है। यही सत्य है। सत्य और धर्म पर्यायवाची हैं। धर्म स्थिर आचार संहिता नहीं है। यहां समाज की तमाम शक्तियां धर्म को भी प्रभावित करती रही हैं।
वैदिक काल का धर्म आनन्द मगन करने वाला है। उत्तर वैदिक काल में तत्वज्ञान की शिखर ऊंचाइयां हैं। कुछ कर्मकाण्डों को भी चुनौती देती हैं। रामायण काल के धर्म में मर्यादा है। श्रीराम इसी मर्यादा के महानायक हैं। लेकिन महाभारत काल का धर्म अवनति में है। गीताकार ने बहुत खूबसूरत शब्द प्रयोग किया है-धर्म की ग्लानि। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-''जब-जब धर्म की ग्लानि होती है, तब-तब धर्म संस्थापन के लिए अवतार होते हैं।'' श्रीराम और श्रीकृष्ण में भारी फर्क है। श्रीराम रामायण काल में प्रचलित धर्म को मजबूती देते हैं। दुख उठाकर भी मर्यादा का पालन करते हैं। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। लेकिन श्रीकृष्ण महाभारत काल के प्रचलित धर्म ग्लानि को चुनौती देते हैं।
वैदिक काल में मनुष्य प्रकृति के निकट है। सूर्य अस्त होते हैं, मनुष्य सो जाते हैं। ऊषा आती है, वह सबको जगाती है। वैदिक समाज के जागरण और निद्रा प्राकृतिक हैं। ऋग्वेद के समय सभा और समितियां हैं। सभा में सभ्य ही जाते हैं। सामाजिक विकास के क्रम में तमाम रूढ़ियां भी आईं। महाभारत में सभा के भीतर भी जुआ है। महाभारत काल के युधिष्ठिर धर्मराज हैं लेकिन जुए में पत्नी द्रोपदी को भी दांव पर लगाते हैं। ऋग्वेद में पत्नी पूरे परिवार की 'साम्राज्ञी' है। महाभारत में वह वस्तु और पदार्थ है। द्रोपदी इस धर्म को चुनौती देती है। लेकिन सभा में विराजमान द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म जैसे महानुभाव प्रचलित धर्म से ही जुड़े हैं। द्रोपदी आहत है कहती है, ''भरतवंश के नरेशों का धर्म निश्चय ही भ्रष्ट हो गया है। राजाओं आप लोग क्या समझते हैं? मैं धर्म के अनुसार जीती गयी हूं या नहीं।'' (सभापर्व 67.41-42) महाभारत काल में धर्म की ग्लानि का समय है।
धर्म सबको धारण करता है। सब उसे धारण करते हैं। धर्म पालन में स्वतंत्रता है। इसलिए हरेक मनुष्य का अपना धर्म है। द्रोपदी के मन में धर्म की दूसरी कल्पना है, युधिष्ठिर और भीष्म आदि के मन में बिल्कुल दूसरी। भीष्म का उत्तर है, ''धर्म का स्वरूप अति सूक्ष्म होने के कारण मैं तुम्हारे प्रश्न का ठीक विवेचन नहीं कर सकता।'' जुआ अधर्म है, जुए के खेल में बेईमानी और भी बड़ा अधर्म है लेकिन पितामह धर्म के सूक्ष्म स्वरूप की बहानेबाजी के साथ और भी नई चालबाजी करते हैं। कहते हैं, ''धर्मराज युधिष्ठिर धन सम्पदा से भरी पृथ्वी त्याग सकते हैं किन्तु धर्म नहीं छोड़ सकते। इन्होंने स्वयं ही हार मान ली है।'' (सभा पर्व 67.47-49) भीम युधिष्ठिर के जुआ कर्म को गलत बताते हैं और कहते हैं, ''द्रोपदी की दुर्दशा के लिए मैं आपकी दोनों बाहें जला दूंगा।'' ( सभापर्व 68.9) यहां भीम युधिष्ठिर से श्रेष्ठ दिखाई पड़ते हैं।
वैदिक काल से उत्तरवैदिक काल के बीच समय का लम्बा अंतराल है। वैदिक काल में परम्परायें पुष्ट हैं। उत्तर वैदिक काल में अन्तर्विरोध हैं। यज्ञ और पूजा से लाभ-हानि की बातें भी आ गयी हैं। इसी समय दर्शन का विकास हुआ। उपनिषद् दर्शन का आकाश छूना इस समय की विशेषता है। रामायण काल का धर्म मर्यादा पालन में खिला है। वैदिक समाज ने प्रकृति की शक्तियों को माँ-पिता देवता की तरह देखा था। महाभारत के श्रीकृष्ण उसी तत्व-दर्शन के व्याख्याता हैं। वैदिक ज्ञान सनातन प्रवाह है। गीता के चौथे अध्याय की शुरुआत में श्रीकृष्ण इसी ज्ञान की समाप्ति की चर्चा करते हैं-''दीर्घकाल में यही तत्व-ज्ञान नष्ट हो गया।'' भारत प्रकाशरत राष्ट्रीयता है और धर्म इसी राष्ट्रीयता का संविधान। धर्म नाम के इस संविधान का सतत विकास हुआ है। दर्शन विज्ञान ने इस विकास का नेतृत्व किया है।
ऋग्वेद के रचनाकाल को कम से कम ईसा से 7-8 हजार वर्ष पूर्व मानना चाहिए। कुछेक सूक्त इससे भी प्राचीन हो सकते हैं। काणे के अनुसार-''4000-1000 ईसा पूर्व के बीच वैदिक संहिता और उपनिषद् उगे हैं।'' प्रमुख उपनिषदों का रचनाकाल 1500 ई.पूर्व भी हो सकता है। कुछ का ईसवी सन् के बाद भी। काणे के अनुसार-''800 से 400 ईसा पूर्व के मध्य प्रमुख श्रौत सूत्र और गृह्यसूत्र रचे गये।'' काणे के अध्ययन विवेचन में गौतम, आपस्तंब, वोधायन आदि के धर्मसूत्र भी 600-300 ईसा पूर्व के हैं। वे गीता का रचनाकाल भी 500-200 ईसा पूर्व अनुमानित करते हैं। गीता महाभारत का ही हिस्सा है। चिंतन और तर्क-प्रतितर्क की जीवनशैली के विकास में विपुल ज्ञान भंडार की भूमिका है। रामायण और महाभारत ने अपने ढंग से लोक को प्रभावित किया है। पुराणों की भी अपनी भूमिका है। पतंजलि के योग सूत्र और कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी उल्लेखनीय है। चरक संहिता आयुर्वेद का ग्रंथ है।
भारतीय धर्म, दर्शन, परम्परा सतत विकासशील है। विविधिता यहां का सौन्दर्य है और आत्मीयता प्राण तत्व। भारत का धर्म इसी संसार को सुन्दर बनाने की आचार संहिता है। बुद्ध का निर्वाण इसी संसार में है। उपनिषद और भारत के 8 दर्शनों-सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, वेदांत और बुद्ध, जैन का लक्ष्य इसी संसार को मधुमय बनाना है। धर्म में अंधविश्वास नहीं है, समाज में बेशक है लेकिन वह धर्म भाग नहीं है। इसलिए भारत तब तक धर्महीन नहीं हो सकता जब तक जल में रस है, अग्नि में ताप है, वायु में स्पर्श गुण है और आकाश में शब्द-ध्वनि की अनुगूंज। धर्म भारत की लोकमंगल अभीप्सा का विस्तार और कर्तव्य है।
भारत का धर्म दर्शन और विज्ञान का मधुफल है। अंधविश्वास नहीं प्रत्यक्ष सत्य है। वृहदारण्यक उपनिषद (1.4.14) में कहते हैं-''धर्म निश्चित ही सत्य है।'' धर्म और सत्य में अभेद है। यह धर्म मधुवाता है। इसी उपनिषद (2.5.11) में कहते है-''धर्म सभी भूतों का मधु है। समस्त भूत धर्म के मधु है।'' धर्म मधुमयता है। धर्म में ही अर्थ, काम और मुक्ति के सोपान हैं।
लेखक:- हृदयनारायण दीक्षित
जलवायु परिवर्तन के प्रति भारत का सह-लाभ दृष्टिकोण विकास लक्ष्यों को पर्यावरणीय उद्देश्यों के साथ संरेखित करने का प्रयास करता है। साथ ही जलवायु चुनौतियों का समाधान करते हुए सतत विकास पर ध्यान केंद्रित करता है। आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय लाभों को एकीकृत करके, इस रणनीति का उद्देश्य उत्सर्जन को कम करना और लचीलापन बढ़ाना है। उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना जैसी पहल इन प्राथमिकताओं को संतुलित करने के लिए भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाती है। हम पाते हैं कि सामाजिक लक्ष्यों का पीछा करना, आमतौर पर, उच्च पर्यावरणीय प्रभावों से जुड़ा होता है। हालांकि, देशों के बीच बातचीत बहुत भिन्न होती है और विशिष्ट लक्ष्यों पर निर्भर करती है। दोनों ही बातचीत में, कार्बन भूमि और पानी की तुलना में छोटे बदलावों का अनुभव करता है। हालांकि उच्च और निम्न आय समूहों द्वारा प्रयासों की आवश्यकता है, लेकिन अमीरों के पास मानवता के पदचिह्नों को कम करने का अधिक लाभ है। सामाजिक और पर्यावरणीय स्थिरता दोनों के महत्व को देखते हुए, यह महत्वपूर्ण है कि एसडीजी के बीच मात्रात्मक बातचीत को अच्छी तरह से समझा जाए ताकि जहां जरूरत हो, एकीकृत नीतियां विकसित की जा सकें।भारत का सह-लाभ दृष्टिकोण, जो कई मोर्चों पर एक साथ प्रगति के लिए विकास लक्ष्यों को पर्यावरणीय उद्देश्यों के साथ जोड़ता है। भारत का सह-लाभ दृष्टिकोण सामाजिक और आर्थिक विकास को आगे बढ़ाते हुए जलवायु परिवर्तन को सम्बोधित करता है। जलवायु क्रियाओं को गरीबी में कमी और ऊर्जा पहुंच जैसे लक्ष्यों के साथ जोड़ता है। पीएम सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना न केवल अक्षय ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देती है बल्कि कम आय वाले परिवारों को सस्ती बिजली भी प्रदान करती है। जलवायु क्रियाओं को विकास लक्ष्यों के साथ जोड़कर, सह-लाभ दृष्टिकोण पर्यावरणीय पहलों में सार्वजनिक समर्थन और भागीदारी को बढ़ाता है। पीएम ई-ड्राइव इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए सब्सिडी प्रदान करता है, जिससे शहरी वायु प्रदूषण को सम्बोधित करते हुए उन्हें सुलभ बनाया जा सके और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम हो सके। जलवायु और विकास लक्ष्यों को एकीकृत करके, संसाधनों का अधिक कुशलता से उपयोग किया जाता है, जिससे नीति कार्यान्वयन में महत्त्वपूर्ण लागत बचत होती है। प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (पीएटी) योजना उद्योगों को ऊर्जा दक्षता में सुधार करने, लागत कम करने और उत्सर्जन को कम करने में मदद करती है। यह दृष्टिकोण कृषि, जल संसाधन और आपदा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में लचीलापन बढ़ाने पर जोर देता है, जो कमजोर आबादी के लिए महत्वपूर्ण हैं। जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्ययोजनाएं क्षेत्र-विशिष्ट कमजोरियों पर ध्यान केंद्रित करती हैं, ग्रामीण और तटीय क्षेत्रों के लिए लक्षित अनुकूलन रणनीतियों को सुनिश्चित करती हैं। सह-लाभ दृष्टिकोण जलवायु और विकासात्मक चुनौतियों दोनों को सम्बोधित करने वाली नवीन तकनीकों के विकास और तैनाती को प्रोत्साहित करता है। सौर ऊर्जा से चलने वाली सिंचाई प्रणालियों का विकास टिकाऊ कृषि का समर्थन करता है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करता है।इन प्राथमिकताओं को संतुलित करने में इस रणनीति की प्रभावशीलता उत्सर्जन में कमी और आर्थिक विकास के दोहरे लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए बेहतर है। भारत ने आर्थिक विकास को बनाए रखते हुए अपनी उत्सर्जन तीव्रता को कम करने में प्रगति की है, जो सह-लाभ दृष्टिकोण की प्रभावशीलता को प्रदर्शित करता है। भारत ने पेरिस समझौते के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद की प्रति इकाई कार्बनडाई ऑक्साइड उत्सर्जन को लगातार कम किया है। यह रणनीति नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बदलाव को गति देते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में ऊर्जा पहुंच की खाई को सफलतापूर्वक पाटती है। छतों पर सौर ऊर्जा पहलों ने दूरदराज के गांवों में बिजली पहुंचाई है, जिससे डीजल जनरेटर पर निर्भरता कम हुई है। भारत की रणनीति जलवायु क्रियाओं को निधि देने के लिए घरेलू पहलों पर केंद्रित है। इस आत्मनिर्भरता ने सकारात्मक परिणाम दिखाए हैं। भारतीय कार्बन बाजार उद्योगों में उत्सर्जन में कमी को प्रोत्साहित करने के लिए घरेलू संसाधनों को जुटाता है। जबकि यह दृष्टिकोण संधारणीय प्रथाओं को बढ़ावा देता है, लेकिन तेज़ आर्थिक विकास की आवश्यकता कभी-कभी पर्यावरण संरक्षण में समझौता करने की ओर ले जाती है। तत्काल ऊर्जा मांगों को पूरा करने के लिए कोयला आधारित बिजली संयंत्रों का विस्तार शुद्ध-शून्य लक्ष्यों को प्राप्त करने में चुनौतियाँ पेश करता है। राज्य कार्ययोजनाओं के माध्यम से विकेंद्रीकृत जलवायु कार्रवाई यह सुनिश्चित करती है कि क्षेत्रीय चुनौतियों और अवसरों को पर्याप्त रूप से सम्बोधित किया जाए। अहमदाबाद जैसे शहरों में हीट एक्शन प्लान ने अत्यधिक गर्मी के प्रभावों को कम करने में मदद की है, जिससे कमजोर आबादी की रक्षा हुई है। जबकि सह-लाभ दृष्टिकोण पायलट कार्यक्रमों में प्रभावी रहा है, देशभर में इन पहलों को आगे बढ़ाना एक चुनौती बनी हुई है। राष्ट्रीय इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन योजना का लक्ष्य इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने को बढ़ावा देना है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे का विकास अभी भी पिछड़ा हुआ है।भारत का सह-लाभ दृष्टिकोण जलवायु कार्रवाई को विकास के साथ प्रभावी ढंग से संतुलित करता है। यह स्थिरता और लचीलेपन को बढ़ावा देता है। अक्षय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता और हरित बुनियादी ढांचे में निरंतर निवेश इस रणनीति को मजबूत करेगा। यह स्थानीयकृत, प्रभावशाली समाधानों के माध्यम से वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने के सिद्धांत को दर्शाता है, जो विकास और पर्यावरणीय लक्ष्य दोनों में सार्थक प्रगति को आगे बढ़ाता है।
लेखक:- डॉ.सत्यवान सौरभ
रायपुर, 13 दिसंबर 2024 | मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में महिलाओं और बच्चों के लिए विभिन्न कार्य किए जा रहे हैं। सरकार महिलाओं के सिर्फ विकास की ही नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, समानता और सशक्तिकरण की सरकार बनकर उभरी है। मुख्यमंत्री श्री साय ने महिलाओं और बच्चों के सर्वांगीण विकास का जिम्मा महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती लक्ष्मी राजवाड़े को सौंपा है। जिसे श्रीमती राजवाड़े बखूबी निभा रही हैं।
छत्तीसगढ़ में महतारी वंदन योजना के माध्यम से, जब लाखों महिलाओं को आर्थिक सहायता और आत्मनिर्भरता का सहारा मिला, तो यह केवल एक वित्तीय मदद नहीं, बल्कि महिलाओं के अधिकार, आत्मविश्वास और उनकी शक्ति को पहचानने का एक मार्ग है। मार्च 2024 से दिसम्बर 2024 तक, 70 लाख महिलाओं के खाते में 6530.41 करोड़ रुपये की राशि पहुंचाई जा चुकी है। यह योजना अब सिर्फ एक राज्य की योजना नहीं, बल्कि एक आंदोलन बन चुकी है, जहां महिलाएं न केवल आर्थिक रूप से सशक्त हो रही हैं, बल्कि अपने घर-परिवार में भी निर्णय लेने में बराबरी का हक महसूस कर रही हैं।
प्रदेश के 31 जिलों में 201 पालना केंद्रों की स्थापना से कामकाजी महिलाओं को अपने बच्चों की देखभाल का सशक्त समाधान मिला है। ये केंद्र केवल सुविधा नहीं, बल्कि हर बच्चे के अधिकार की रक्षा का एक माध्यम हैं। बालकों के भविष्य को मजबूत करने के लिए, डबल इंजन सरकार ने आंगनबाड़ी केंद्रों के उन्नयन की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए।
छत्तीसगढ़ के बच्चों को पोषण, शिक्षा और समुचित देखभाल देने के लिए 4750 आंगनबाड़ी केंद्रों को सशक्त बनाया गया है। इनमें बच्चों को न केवल पोषण दिया जा रहा है, बल्कि उन्हें BaLA (Building as Learning Aid) के माध्यम से शिक्षा और कौशल के अवसर भी मिल रहे हैं। एलईडी टीवी और पोषण वाटिका जैसी सुविधाएं बच्चों और महिलाओं के लिए एक सुरक्षित और समृद्ध वातावरण बना रही हैं। 530 आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की नियुक्ति पिछले 10 माह में की गई और 4900 मिनी आंगनबाड़ी केंद्रों को मुख्य आंगनबाड़ी केंद्रों में उन्नत किया गया, जिससे वहां अतिरिक्त व्यवस्थाओं का विस्तार हुआ। लक्ष्मी राजवाड़े के नेतृत्व और विष्णु देव साय जी के मार्गदर्शन में आंगनबाड़ी अधोसंरचना से संबंधित डप्ै पोर्टल तैयार किया गया है। इस पोर्टल के बन जाने से आंगनबाड़ी केन्द्रों की अधोसंरचना संबंधी सभी जानकारी जैसे बिजली, पेयजल, शौचालय, निर्माण संबंधी नियोजन, कार्य की प्रगति का अनुश्रवण आदि मुख्य आधारभूत जानकारी राज्य स्तर पर एक क्लिक पर उपलब्ध है।
छत्तीसगढ़ में कुपोषण पर प्रहार करते हुए सरकार ने पोषण ट्रैकर ऐप के माध्यम से 0 से 5 वर्ष के बच्चों के स्वास्थ्य पर नजर रखी और कुपोषण की दर में ऐतिहासिक गिरावट हासिल की। एक नेतृत्व तब सशक्त होता है, कमजोर वर्ग के बारे में सोचता है और उनके जीवन में वास्तविक बदलाव लाता है। बच्चों और महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए चाइल्ड हेल्पलाइन (1098) और महिला हेल्पलाइन (181) का संचालन 24/7 हो रहा है। साथ ही, हर जिले में वन स्टॉप सेंटर्स का विस्तार कर एक मजबूत और सुरक्षित नेटवर्क तैयार किया गया है, जो हर संकट में नागरिकों के लिए एक आश्रय बन कर खड़ा है। यह सुरक्षा केवल कानून का पालन नहीं, बल्कि समाज में विश्वास और साहस का प्रतीक है।
भारत सरकार की मिशन शक्ति योजना के तहत राज्य महिला सशक्तिकरण केंद्र (हब) की स्थापना की गई है, जो महिलाओं के लिए समर्पित योजनाओं में प्रभावी समन्वय और कार्यान्वयन को सुनिश्चित करती है। मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना के तहत, अब 50 हजार रुपये में से 35 हजार रुपये सीधे वधु के खाते में भेजे जाते हैं, और शेष 15 हजार रुपये सामूहिक विवाह आयोजन पर खर्च होते हैं। इस साल अब तक 6543 कन्या विवाह सफलतापूर्वक सम्पन्न हो चुके हैं। वहीं, पी.एम. जनमन योजना के तहत 17 जिलों में 48 हजार पिछड़ी जनजाति परिवारों का सर्वे किया गया। इस पहल के अंतर्गत 70 नए आंगनबाड़ी केंद्रों का संचालन हो रहा है, 54 भवन निर्माणाधीन हैं और 2024-25 में 95 और केंद्र स्वीकृत किए गए हैं। नियद नेल्लानार योजना के तहत बीजापुर, नारायणपुर, सुकमा, दंतेवाड़ा और कांकेर जिलों में 132 आंगनबाड़ी केंद्र संचालित हैं। बालक कल्याण समिति और किशोर न्याय बोर्ड के अंतर्गत राज्य के 33 जिलों में अध्यक्ष, सदस्य और सामाजिक सदस्य पदों पर नियुक्ति के लिए आवेदन और साक्षात्कार प्रक्रिया चल रही है, जिससे बच्चों और किशोरों की भलाई और सुरक्षा के लिए एक मजबूत संरचना तैयार हो रही है।
डबल इंजन सरकार ने 27 नवंबर 2024 से बाल विवाह मुक्त छत्तीसगढ़ अभियान की शुरुआत की है। यह सिर्फ एक कानून का कार्यान्वयन नहीं, बल्कि समाज की मानसिकता को बदलने का अभियान है। हर गांव और कस्बे में बाल विवाह के खिलाफ जनजागरूकता फैलाते हुए, सरकार द्वारा ने एक आदर्श स्थापित किया है। विष्णु के सुशासन के एक वर्ष में छत्तीसगढ़ में नया आत्मविश्वास, एक नया विश्वास और एक नई दिशा दिखती है। मुख्यमंत्री श्री साय की नीतियों और योजनाओं ने छत्तीसगढ़ को विकास की नई ऊँचाइयों तक पहुंचाया है।