शिक्ष्राप्रद कहानी:- न्याय और आस्था
Date : 14-Dec-2024
कश्मीर नरेश चंद्रापीड अपनी उदारता, बिद्वत्ता और न्यायप्रियता के लिए बहुत प्रसिद्ध हुए हैं | एक समय जब महाराज चंद्रापीड अपने सिंहासन पर थे, उस समय की बात है | उन्होंने एक देव मंदिर बनाने का संकल्प लिया | शिल्पियों को बुलवाया गया और राज्य के अधिकारियों को शिल्पियों की आवश्यकतायें पूर्ण करने का आदेश दिया गया | अधिकारियों ने एक भूमि मंदिर बनाने के लिए चुनी, परन्तु उस भूमि को जब वे मापने लगे, तब उन्हें एक चर्मकार ने रोक दिया, क्योंकि उस भूमि के एक भाग में उसकी झोंपड़ी थी | उस झोपड़ी वाले भाग को छोड़ देने पर मंदिर ठीक प्रकार से बनता नहीं था | राज्य के मंत्रिगण उस चर्मकार को मुंहमांगा मूल्य देने पर उस भूमि को क्रय करना चाह रहे थे | किन्तु चर्मकार किसी भी मूल्य पर अपनी भूमि को बेचने के लिए तैयार नहीं था | अंत में बात महाराज के पास तक पहुँच गयी | उस न्यायप्रिय राजा ने कहा-“बलपूर्वक तो किसी की भूमि छीनी नहीं जा सकती, मंदिर किसी अन्य स्थान पर बनाया जाये |”
शिल्पियों के प्रमुख ने निवेदन किया-“ पहली बात तो यह कि उस स्थान पर मंदिर बनाने का संकल्प हो चुका है, दूसरे आराध्य का मंदिर सबसे उत्तम स्थान पर होना चाहिए और उससे अधिक उपयुक्त स्थान हमें कोई दूसरा दीखता नहीं |”
चर्मकार को राज दरबार में बुलाया गया | नरेश ने उससे कहा-“ तुम अपनी झोंपड़ी का जो मूल्य चाहो वह तुम्हें दिया जाएगा | उसके बदले में दूसरी भूमि तुम जितनी कहोगे, तुम्हें मिलेगी और यदि तुम स्वीकार करो तो उसमें तुम्हारे लिए भवन भी बनवा दिया जायेगा | धर्म के काम में बाधा क्यों डालते हो ? देवमंदिर के निर्माण में बाधा डालना पाप है, यह तो तुम जानते ही होगे ?”
चर्मकार ने नम्रतापूर्वक कहा-“महाराज! यह झोंपड़ी या भूमि का प्रश्न नहीं है | यह झोंपड़ी मेरे पिता, पितामह आदि कुल पुरुषों की निवासभूमि है | मेरे लिए यह भूमि माता के समान है | जैसे किसी मूल्य पर आप अपना राज सदन किसी को नहीं दे सकते, वैसे ही मैं अपनी झोंपड़ी नहीं बेच सकता | “
नरेश उदास हो गए | चर्मकार दो क्षण चुप रहा और फिर बोला-“परन्तु आपने मुझे धर्म संकट में डाल दिया है | देव मंदिर में बाधा डालने का पाप मैं करूं तो वह पाप मुझे और मेरे पूर्वजों को भी ले डूबेगा | आप धर्मात्मा हैं, उदार हैं | मैं हीन जाति का कंगाल मनुष्य हूँ, किन्तु यदि आप मेरे यहां पधारें और मंदिर बनवाने के लिए मुझसे भूमि माँगें तो मैं यह भूमि आपको दान कर दूंगा | इससे मुझे और मेरे पूर्वजों को पुण्य लाभ होगा |
यह सुनकर राजसभा के सभासदों में रोष व्याप्त हो गया | वे नहीं चाहते थे कि महाराज चर्मकार के सम्मुख याचना करें | महाराज ने कहा –“अच्छा तुम जाओ |” उस समय उसे बिना कुछ कहे विदा कर दिया|
परन्तु दूसरे दिन नरेश चर्मकार की झोंपड़ी पर पहुंचे और उन्होंने उससे भूमि दान ग्रहण किया | इस प्रकार बाधा दूर हुई और भव्य मंदिर निर्माण किया गया |