प्रत्याहार- प्राणायाम के बाद आता है प्रत्याहार। इंद्रियों का अपने-अपने विषयों से संबंध विच्छेद हो जाने पर चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना ही प्रत्याहार है। इसे सरल शब्दों मे समझें तो हमारा अपनी इंद्रियों पर हमारा नियंत्रण होना ही प्रत्याहार है। यम, नियम, आसन व प्राणायाम के बाद ही प्रत्याहार सिद्ध होता है। जैसे जिव्हा रस के पीछे, नासिका सुगंध के पीछे भागती है, किंतु इन्हें अपने नियंत्रण में रखना ही प्रत्याहार है।
धारणा- एक ही ध्येय पर चित्त वृत्ति को स्थिर या केंद्रित करने को ही धारणा कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार से चित्त वृत्ति की चंचलता को संयमित करने में सहायता मिलती है। इनके अभ्यास के बिना धारणा सम्भव नहीं होती
ध्यान-धारणा के पश्चात ध्यान का क्रम प्रारंभ होता है। एकमात्र ध्येय की तरह ही एक ही तरह की वृत्ति का प्रवाह निरन्तर गतिशील होना, इसके मध्य किसी दूसरी वृत्ति का न उठना ही ध्यान कहलाता है। किसी एक दिव्य आनंद के चिंतन में अन्य चिंतन आने पर ध्यान टूट जाता है। यह भी समझना आवश्यक है कि ध्यान का अर्थ विचार शून्य हो जाना भी नहीं है। ध्यान का अभ्यास किसी योग्य साधक के मार्गदर्शन में करना ही उचित होता है।
समाधि- भारतीय जीवन दर्शन में मनुष्य जन्म का अंतिम लक्ष्य आत्म साक्षात्कार को माना गया है। इसे आत्मा का परमात्मा से मिलन भी कहा गया है। महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग के अंतिम चरण को समाधि के रूप में परिभाषित किया है। "तदेवार्थमात्रनिर्भासम स्वरूपपशून्यमिव समाधिः" अर्थात जब उसी ध्यान में अर्थ, लक्ष्य/ध्येय मात्र का ही अनुभव होता है और चित्त को स्वरूप का ज्ञान नहीं रहता तो वह समाधि हो जाता है। धारणा, ध्यान व समाधि एक दूसरे से जुड़े हैं क्योंकि धारणा ही ध्यान में बदलती है और ध्यान समाधि में परिवर्तित हो जाता है।
लेखिका:- प्रियंका कौशल