कर्त्तव्यवोध के साथ शत्रुबोध भी आवश्यक
Date : 05-Aug-2024
किसी भी राष्ट्र की समृद्धि यात्रा उसके निवासियों की अंतर्चेतना में दायित्व और कर्त्तव्यबोध के साथ उन शत्रुओं का बोध भी आवश्यक है जो राष्ट्र के आधार को क्षति पहुँचाने केलिये सक्रिय रहते हैं । यह व्यापक दृष्टि ही राष्ट्रबोध की संपूर्णता है ।
राष्ट्र की अवधारणा सबसे पहले भारत में विकसित हुई । संसार का चिंतन केवल "देशों" का निर्माण और उनकी राजनैतिक सीमाएँ निर्धारित करने तक सीमित रहा लेकिन भारत ने इससे बहुत आगे राष्ट्र के स्वरूप और समृद्धि का चिंतन किया । देश और राष्ट्र की अवधारणा में बहुत अंतर है । यह ठीक उसी प्रकार है जैसे शरीर के अंग और इन्द्रियाँ दृश्यमान होते हैं । वहीं चित्त, बुद्धि और आत्मा अदृश्यमान । यही अंतर देश और राष्ट्र में होता है । देश को दृश्यमान होता है और राष्ट्र अदृश्यमान। राष्ट्र का यह अदृश्यमान स्वरूप नागरिकों की भावनात्मक चेतना में होता है । जिसे हम राष्ट्रभाव कह सकते हैं। इसकी झलक नागरिकों की सकारात्मक जीवन शैली और आदर्श चिंतन में होती है । इसे हम संस्कृति का संबोधन देते हैं। यह उच्च मानवीय मूल्यों और प्रकृति के अनुकूल आदर्शों का समन्वय जीवन की सतत प्रक्रिया है । इसका स्वरूप उभरने में शताब्दियाँ लग जाती हें। पीढ़ियाँ खप जाती हैं। यह संदेश हमें ऋग्वेद में मिलता है । ऋग्वेद ने "आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम्" कहा तो यजुर्वेद ने "वयं राष्ट्रे जाग्रयाम" का आव्हान किया | अथर्ववेद ने "अभिवर्धताम् पयसाभि राष्ट्रेण वर्धताम्" कहा । वेदों में इनके अतिरिक्त और ऋचाएँ भी हैं। इनमें राष्ट्र का आधार सत्य, ऋत, उद्यम, उग्र, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ को माना है । यदि केवल इन तीन ऋचाओं का संदेश समझें तो इनमें एक ओर शूरवीर एवं महारथी शासक होने की अपेक्षा है तो वहीं सामान्य जनों से जागरुक होने और जागरुक करने का आव्हान है । वह भी धन-धान्य से परिपूर्ण । यह एक ऐसे राष्ट्र की संकल्पना है जिसके नागरिक और शासक दोनों उच्च मानवीय आदर्शों के साथ सशक्त और समृद्ध हों । यही झलक हमें भारत के सांस्कृतिक मूल्यों और जीवनशैली में मिलती है । अपनी परंपराओं, साँस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पण के साथ जीवन यात्रा । इसकी निरंतरता ही तो राष्ट्रबोध है । इस सांस्कृतिक चेतना और मानवीय मूल्यों की झलक भारतीय जीवन शैली में प्रतिदिन मिलती है । प्राणियों में सद्भाव और विश्व के कल्याण की प्रार्थना, चींटी से लेकर हाथी तक और मामूली दूब से लेकर विशाल वटवृक्ष तक सबकी सुरक्षा, सत्य, अहिंसा, परिश्रम, पुरुषार्थ, परहित और सकारात्मक चिंतन इसका प्रमाण हैं । हम अर्थ और काम दोनों में धर्म से संतुलन बनाते हैं । यह साँस्कृतिक चेतना ही राष्ट्रबोध है और भारत राष्ट्र की केन्द्रीभूत शक्ति भी ।
प्रकृति में दो प्रकार की वनस्पति होती है । एक आरोग्य और जीवन की सहायक और दूसरी जीवन के लिये घातक। हम दोनों की पहचान करके अपना व्यवहार निश्चित करते हैं। अनुकूल वनस्पति के निकट और घातक वनस्पति से सावधान रहते हैं। यह अलग बात है कि मनुष्य घातक वनस्पति का शोधन करके औषधि बनाना सीख गया है । लेकिन जब तक शोधन नहीं होता तब तक घातक वनस्पति से सावधानी रखी जाती है । मानवीय प्रकृति में भी ये दोनों धाराएं होती है । एक राष्ट्र, संस्कृति, परंपराओं और मानवीय मूल्यों के लिये समर्पित और दूसरी इन संस्कृति और परंपराओं के लिये घातक । भारतीय राष्ट्रतत्व में सत्य अहिंसा, शांति, सद्भाव, समन्वय, समरसता और सामूहिकता को प्रधानता है । इसके अनुरूप आचरण करने वाले नागरिकों राष्ट्रमित्र कहा जाता है । इसके विपरीत अशांति, असत्य, हिंसा क्रूरता, वैमस्यता, विखराव और प्रगति में अवरोध उत्पन्न करने वाली मानसिकता के नागरिकों को राष्ट्रशत्रु की पंक्ति में माना जा सकता है । इस मानसिकता के लोग हर युग में रहे हैं। वैदिक काल में भी और पुराण काल में भी । तब इस मानसिकता के नागरिकों को असुर, दैत्य, राक्षस अथवा दानव कहा जाता था । पर समय के साथ राष्ट्रशत्रुओं की कार्यशैली में कुछ परिवर्तन आया । इसके उदाहरण सल्तनतकाल और अंग्रेजीकाल में मिलते हैं। राष्ट्रशत्रु दो प्रकार के हो गये । एक वे जो खुलकर राष्ट्र के विरुद्ध आचरण करते हैं, आक्रांताओं की पंक्ति में अग्रणी होते हैं और दूसरे वे छद्म नाम और रूप लेकर सहयोगी होने का दावा करके विश्वासघात करते हैं। मध्यकाल लगभग प्रत्येक युद्ध में इन दोनों प्रकार के राष्ट्रशत्रुओं की झलक देखी जा सकती है ।