भगवान परशुराम जी को भगवान नारायण का पहला पूर्ण अवतार माना गया है। वे चिरंजीवी हैं—अर्थात सतयुग के अंत से लेकर कलियुग के अंत तक उनके जीवित रहने का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। उनका जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ, जिसे “अक्षय तृतीया” कहते हैं। इस दिन को शुभ और सर्वकार्य सिद्धि के लिए सर्वोत्तम माना गया है। उनका अवतरण अधर्म के विनाश और धर्म की पुनर्स्थापना हेतु हुआ था।
परशुराम जी महर्षि जमदग्नि और देवी रेणुका के पुत्र थे। उनके कुल का संबंध भृगु वंश से था, जबकि माता सूर्यवंशी राजा रेणु की पुत्री थीं। परशुराम जी ने अपने जीवन में सात महान गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की: माता रेणुका, पिता जमदग्नि, महर्षि चायमान, विश्वामित्र, वशिष्ठ, भगवान शिव और भगवान दत्तात्रेय। भगवान शिव ने उन्हें परशु (फरसा), चिरयौवन, तेजस्विता और विश्व भ्रमण का वरदान दिया। वे शिवजी के एकमात्र शिष्य हैं जिन्हें उन्होंने यह दिव्य ज्ञान सौंपा।
उनका व्यक्तित्व केवल एक योद्धा का नहीं बल्कि ऋषि, साधक, शिक्षक और राष्ट्र निर्माता का भी है। उन्होंने श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र और गीता का ज्ञान दिया। कलियुग में कल्कि अवतार को शस्त्र और शास्त्र का ज्ञान देने का कार्य भी वही करेंगे। शक्ति उपासना की विधि उन्होंने ही महर्षि सुमेधा को दी थी, जिससे आगे चलकर दुर्गा सप्तशती जैसे ग्रंथ बने।
परशुराम जी के संबंध में दो भ्रांतियाँ फैलाई गई हैं—(1) उन्होंने क्षत्रियों का विनाश किया, और (2) वे क्रोधी स्वभाव के थे। ये दोनों बातें अशास्त्रीय, भ्रामक और षड्यंत्रपूर्ण हैं। "दुष्ट क्षत्रम्" का अर्थ दुष्ट शासन या शासक होता है, न कि पूरी क्षत्रिय जाति। यह भ्रांति कालिदास के रघुवंश से आरंभ हुई और बाद के साहित्य में फैलती गई। परशुरामजी स्वयं क्षत्रिय माता की संतान हैं, उनके वंश में कई क्षत्रिय कन्याएँ ब्याही गईं, अतः उनका सम्पूर्ण क्षत्रिय विरोध असंभव है।
दूसरी भ्रांति उनके क्रोधी स्वभाव को लेकर है। परशुरामजी के संदर्भ में "क्रोध" नहीं बल्कि "रोष" शब्द आता है, जो एक सतोगुणी प्रतिक्रिया है, जैसे गुरु या माता की डाँट। क्रोध तमोगुणी होता है जो राक्षसी प्रवृत्ति से जुड़ा है। नारायण के अवतार होने के कारण परशुरामजी क्रोध नहीं कर सकते—वे केवल अधर्म के प्रति रोष करते हैं।
परशुराम जी का प्रभाव केवल भारत में ही नहीं, अपितु पूरे विश्व में देखा जा सकता है। अफगानिस्तान, इराक, लैटिन अमेरिका, रोम, रूस और आयरलैंड में उनसे जुड़े प्रतीक, नाम और चिन्ह मिलते हैं। मायन सभ्यता, "बगराम", "ऋषिका", और अन्य सांस्कृतिक प्रतीक उनके वैश्विक प्रभाव का संकेत देते हैं।
इस प्रकार भगवान परशुराम जी का चरित्र वैदिक संस्कृति, राष्ट्रनिर्माण, शक्ति उपासना और अधर्म विनाश का प्रतीक है। वे न केवल हिन्दू परंपरा के आराध्य हैं, बल्कि पूरे विश्व को सत्य, धर्म और शौर्य की प्रेरणा देने वाले महान विश्वगुरु हैं।