गुलजारी लाल नंदा जी आदर्शवादी राजनीति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण थे। आज के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है उनके राजनीतिक और धार्मिक होने के मायने काफी अलग थे। वह भारत को आधुनिक बनाने के पक्षधर अवश्य थे लेकिन वह सभी धर्मों और वर्गों को समतल पर देखना चाहते थे। नन्दा सच्चे अर्थों में गांधीवादी मूल्यों पर खरा उतरने वाले शख्स थे। अफसोस ये है कि सर्वधर्म समभाव की बात करने वाले नन्दा जी को जीवन के अन्तिम दिन बड़े कष्ट से व्यतीत करने पड़े। वह उच्च पदों पर रहकर भी जीवन की आम जरूरते पूरी नहीं कर पाए। कभी किराए ना देने की वजह से मकान-मालिक ने घर से बाहर कर दिया तो कभी 500 रूपये मासिक पेंशन में खर्च चलाते दिखे। जिस देश में ग्राम प्रधान और क्षेत्र पंचायत सदस्य तक के अपने ठाठ-बाट हों वहां गुलज़ारी लाल नंदा जी होना आम बात नहीं है। गुलजारी लाल जी का प्रधानमंत्री के तौर पर कार्यकाल 2 करीबन बार 13-13 दिनों का रहा. भारत के सविधान के अनुसार देश के प्रधानमंत्री के पद को कभी रिक्त नहीं रखा जा सकता, किसी कारणवश अगर प्रधानमंत्री अपना पद छोड़ दें या पद में रहते हुए उनकी म्रत्यु हो जाये, तो तुरंत नए प्रधानमंत्री का चुनाव होता है. अगर ये तुरंत संभव नहीं होता है तो कार्यवाहक या अंतरिम प्रधानमंत्री को नियुक्त किया जाता है. कार्यवाहक तब तक उस पद पर कार्यरत रहता है जब तक विधि वत रूप से नए प्रधानमंत्री का चुनाव न हो जाये. 1964 में नेहरु जी की म्रत्यु के पश्चात गुलजारी लालजी ही वरिश्ठ नेता था, यही वजह है की उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाये गया. गुलजारी जी ,जवाहरलाल जी के प्रिय थे, दोनों साथ में लम्बे समय से काम कर रहे थे, गुलजारी लाल जी नेहरु जी के काम को अच्छे से समझते थे. 1962 में चीन से युद्ध समाप्त हुआ था, नेहरु जी की म्रत्यु के समय प्रधानमंत्री पद के उपर बहुत अधिक दबाब था, इसके बावजूद नंदा जी दे इस पद को बखूबी संभाला था.
1966 में लाल बहाद्दुर शास्त्रीजी की मृत्यु के पश्चात पुन: कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाये गये. 1965 में पाकिस्तान के युद्ध की समाप्ति हुई थी, जिस वजह से देश एक बार फिर कठिन दौर से गुजर रहा था. लाल बहादुर शाष्त्री जी की आकस्मिक मौत के बाद गुलजारी लाल जी ने देश की गरिमा को बनाये रखा. दोनों समय अपने कार्यकाल के दौरान नंदा जी ने कोई भी बड़े निर्णय नहीं लिए थे, इस दौरान उन्होंने बहुत ही शांति व संवेदनशील होकर कार्य किया था. गुलजारी जी को संकटमोचन कहना गलत नहीं होगा. नवम्बर 1966 में व्यापक स्तर पर हुए गौहत्या विरोध आंदोलन संत स्वामी करपात्री जी महाराज लगातार गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक कानून की मांग कर रहे थे। लेकिन केंद्र सरकार इस तरह का कोई कानून लाने पर विचार नहीं कर रही थी। इससे संतों का आक्रोश लगातार बढ़ता जा रहा था। उनके आह्वान पर सात नवंबर 1966 को देशभर के लाखों साधु-संत अपने साथ गायों-बछड़ों को लेकर संसद के बाहर आ डटे थे। संतों को रोकने के लिए संसद के बाहर बैरीकेडिंग कर दी गई थी। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी सरकार को यह खतरा लग रहा था कि संतों की भीड़ बैरीकेडिंग तोड़कर संसद पर हमला कर सकती है। फिर देखते ही देखते मामला हाथ से निकल गया और गोलीबारी तक पहुंच गई | कांग्रेस संसदीय दल की कार्यकारी समिति के प्रमुख सदस्यों ने कथित तौर पर इस विफलता के लिए गृह मंत्री नंदा को जिम्मेदार ठहराया और उन्हें बर्खास्त करने की मांग की। इंदिरा गांधी ने अगले ही दिन गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा को बर्खास्त कर दिया। हालांकि नन्दा की भूमिका भारत साधु समाज के संरक्षक के रूप में अवश्य रही लेकिन वह इस आन्दोलन के साजिशकर्ताओं में शामिल नहीं थे। जिसमें आठ लोग मारे गए थे और सैकड़ों घायल हो गए थे। सत्तारूढ़ कांग्रेस के सदस्य होने के बावजूद, नंदा ने 1975 में आपातकाल लगाने का विरोध किया। उन्होंने कहा कि इस कदम ने भारत में लोकतंत्र लाने के बलिदान को निरर्थक बना दिया। उन्हें 1997 में मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।15 जनवरी, 1998 को लगभग 100 वर्ष की आयु में नन्दा ने अन्तिम सांस ली।