भारत को स्वतंत्रता दिलाने में अनगिनत लोगों ने अपना योगदान दिया इनमें से कई लोगों को भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान मिला तो वही कई लोग इतिहास के पन्नों में चंद पंक्तियों में सिमट गए। ऐसे ही समय के साथ भुला दिए गए महत्वपूर्ण क्रांतिकारियों में से एक थे बटुकेश्वर दत्त। बटुकेश्वर दत्त ने शहीद-ए-आजम भगत सिंह के साथ सेंट्रल असेंबली में बम फेंका था। इस घटना के उपरांत जहां भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को जहाँ फांसी की सजा हुई तो वही बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सजा हुई। सुविख्यात क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त को ना केवल इतिहास के पन्नों से उपेक्षित किया गया बल्कि काला पानी की सजा के बाद उन्हें सामान्य जीवन में भी लोगों ने उन्हें भुला दिया।
बटुकेश्वर दत्त किशोरावस्था में ही उन्होंने एक अंग्रेज द्वारा एक बच्चे को बेरहमी से मारते हुए देखा था जिसका कसूर केवल इतना थी कि वह कानपुर की उस मॉल रोड पर चल रहा था जिस पर भारतीयों के चलने पर प्रतिबंध था. इस घटना का बटुकेश्वर दत्त के संवेदनशील मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और उनके मन में अंग्रेजों के प्रति गहरा आक्रोश पैदा हो गया. इसके बाद वे क्रांतिकारियों के प्रति आकर्षण पैदा हुआ सुरेशचंद्र भट्टाचार्य के जरिए वे सचिंद्रनाथ सान्याल से मिले जिन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नाम के क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की थी.
8 अप्रैल 1929 ई. को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दर्शक दीर्घा से केन्द्रीय असेम्बली के अन्दर बम फेंककर धमाका किया। बम इस प्रकार बनाया गया था कि, किसी की भी जान न जाए। बम के साथ ही ‘लाल पर्चे’ की प्रतियाँ भी फेंकी गईं, जिनमें बम फेंकने का क्रान्तिकारियों का उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से 'पब्लिक सेफ़्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट बिल' लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया। असेम्बली में बम फेंकने के बाद बटुकेश्वर दत्त तथा भगतसिंह ने भागकर बच निकलने का कोई प्रयत्न नहीं किया, क्योंकि वे अदालत में बयान देकर अपने विचारों से सबको परिचित कराना चाहते थे। साथ ही इस भ्रम को भी समाप्त करना चाहते थे कि काम करके क्रान्तिकारी तो बच निकलते हैं, अन्य लोगों को पुलिस सताती है।
काला पानी की सज़ा
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त दोनों गिरफ्तार हुए, उन पर मुक़दमा चलाया गया। 6 जुलाई, 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अदालत में जो संयुक्त बयान दिया, उसका लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। इस मुक़दमें में दोनों को आजीवन कारावास की सज़ा हुई। सज़ा सुनाने के बाद इन लोगों को लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया। यहाँ पर भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर 'लाहौर षड़यंत्र केस' का मुक़दमा चलाया गया। उल्लेखनीय है कि साइमन कमीशन के विरोध-प्रदर्शन करते हुए लाहौर में लाला लाजपत राय को अंग्रेज़ों के इशारे पर अंग्रेज़ी राज के सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया कि उनकी मृत्यु हो गई। इस मृत्यु का बदला अंग्रेज़ी राज के जिम्मेदार पुलिस अधिकारी को मारकर चुकाने का निर्णय क्रांतिकारियों द्वारा लिया गया था। इस कार्रवाई के परिणामस्वरूप 'लाहौर षड़यंत्र केस' चला, जिसमें भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सज़ा दी गई थी, पर बटुकेश्वर दत्त के विरुद्ध पुलिस कोई प्रमाण नहीं जुटा पाई। उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा भोगने के लिए अण्डमान भेज दिया गया।
काले पानी की सज़ासे रिहाई
बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में वे बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे बटुकेश्वर दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए।
20 जुलाई, 1965 को बटुकेश्वर दत्त ने अपनी आख़िरी सांसें लीं. उनकी आख़िरी इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा पर हुसैनीवाला में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के अंतिम स्थल के पास ही किया गया.
