मोहम्मद रफी बॉलीवुड में एक भारतीय पार्श्व गायक थे। मोहम्मद रफी ने देशभक्ति गीत, गजल, भजन और रोमांटिक स्वर की मधुरता के साथ कई तरह के गाने गाए हैं। हालांकि, मोहम्मद रफी ने अपने अधिकांश गाने हिंदी में गाए, लेकिन उन्होंने अन्य भाषाओं जैसे असमिया, कोंकणी, भोजपुरी, उड़िया, पंजाबी, बंगाली, मराठी, सिंधी, कन्नड़, गुजराती, तेलगू, मगही, मैथिली और उर्दू और यहाँ तक कि अंग्रेजी, फारसी, अरबी, सिंहली, क्रेओल और डच जैसी भाषाओं में भी गाने गाए थे।
रफ़ी के बड़े भाई की अमृतसर में नाई की दुकान थी और रफ़ी बचपन में इसी दुकान पर आकर बैठते थे। उनकी दुकान पर एक फ़कीर रोज आकर सूफ़ी गाने सुनाता था। जब वे 7 साल के थे तो उन्हे उस फकीर की आवाज इतनी भाने लगी कि वे दिन भर उस फकीर का पीछा कर उसके गाए गीत सुना करते थे। जब फकीर अपना गाना बंद कर खाना खाने या आराम करने चला जाता तो रफ़ी उसकी नकल कर गाने की कोशिश किया करते थे।
वे उस फकीर के गाए गीत उसी की आवाज़ में गाने में इतने मशगूल हो जाते थे कि उनको पता ही नहीं चलता था कि उनके आसपास लोगों की भीड़ खड़ी हो गई है। कोई जब उनकी दुकान में बाल कटाने आता तो सात साल के मोहम्मद रफ़ी से एक गाने की फरमाईश जरुर करता।
मोहम्मद रफ़ी ने 13 साल की उम्र में लाहौर में अपनी पहली प्रस्तुति दी जो उनके जीवन में महत्त्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। श्रोताओं में प्रसिद्ध संगीतकार श्याम सुन्दर भी थे, जिन्होंने रफ़ी की प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें फ़िल्मों में गाने के लिए बंबई बुलाया।
मोहम्मद रफ़ी ने अपना पहला गाना पंजाबी फ़िल्म ‘गुल बलोच’ के लिए गाया। 1945 में फिल्म गाँव की गौरी से बॉलीवुड में पदार्पण किया। इसके बाद उन्होने ‘समाज को बदल डालो’ (1947) और ‘जुगनू’ (1947) जैसी फ़िल्मों के लिए गाए। संगीतकार नौशाद ने होनहार गायक की क्षमता को पहचाना और फ़िल्म ‘अनमोल घड़ी’ (1946) में रफ़ी से पहली बार एकल गाना ‘तेरा खिलौना टूटा बालक’ और फिर फ़िल्म ‘दिल्लगी’ (1949) में ‘इस दुनिया में आए दिलवालों’ गाना गवाया, जो बहुत सफल सिद्ध हुए।
इसके बाद रफ़ी की माँग बेहद बढ़ गई। वह तत्कालीन शीर्ष सितारों की सुनहरी आवाज़ थे। उनका महानतम गुण पर्दे पर उनके गाने पर होंठ हिलाने वाले अभिनेता के व्यक्तित्व के अनुरूप अपनी आवाज़ को ढ़ालने की क्षमता थी। इस प्रकार ‘लीडर’ (1964) में ‘तेरे हुस्न की क्या तारीफ़ करू’ गाते समय वह रूमानी दिलीप कुमार थे, ‘प्यासा’ (1957) में ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए, तो क्या है’ जैसे गानों में गुरुदत्त की आत्मा थे, फ़िल्म ‘जंगली’ (1961) में ‘या हू’ गाते हुए अदम्य शम्मी कपूर थे और यहाँ तक कि ‘प्यासा’ में तेल मालिश की पेशकश करने वाले शरारती जॉनी वॉकर भी थे।
हिन्दी फ़िल्म के प्रमुख समकालीन पार्श्व गायकों के साथ उनके युगल गीत भी उतने ही यादगार और लोकप्रिय हैं। रफ़ी की शानदार गायकी ने कई गीतों को अमर बना दिया, जिनमें विभिन्न मनोभावों और शैलियों की झलक है। उनके गीतों के ख़ज़ाने में फ़िल्म ‘कोहिनूर’ (1907) का ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’ और ‘बैजू बावरा’ (1952) का ‘ओ दुनिया के रखवाले’ जैसे शास्त्रीय गीत; फ़िल्म ‘दुलारी’ (1949) की ‘सुहानी रात ढल चुकी’ तथा ‘चौदहवीं का चाँद’ (1960) जैसी ग़ज़लें; 1965 की फ़िल्म ‘सिकंदर-ए-आज़म’ से ‘जहाँ डाल-डाल पर’, ‘हक़ीक़त’ (1964) से ‘कर चले हम फ़िदा’ तथा ‘लीडर’ (1964) से ‘अपनी आज़ादी को हम जैसे आत्मा को झकझोरने वाले’ देशभक्ति गीत; और ‘तीसरी मंज़िल’ (1964) का ‘रॉक ऐंड रोल’ से प्रभावित ‘आजा-आजा मैं हूँ प्यार तेरा’ जैसे हल्के-फुल्के गाने शामिल हैं। उन्होंने अंतिम गाना 1980 की फ़िल्म ‘आसपास’ के लिए ‘तू कहीं आसपास है ऐ दोस्त’ गाया था।
एक साथ कई सुपरहिट गाने देने वाले मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर ने लगभग 4 साल तक एक-दूसरे से बात नहीं की थी. 60 के दशक में रफी साहब का लता मंगेशकर से विवाद भी काफी सुर्खियों में रहा था. भले ही दोनों की जोड़ी के गाए हुए गीतों की खूब सराहना हुई थी, लेकिन बहुत कम लोगों को ही पता होगा कि दोनों ने 4 साल तक एक-दुसरे से बात भी नहीं की थी.
मोहम्मद रफी और सुरों की मलिका लता मंगेशकर के बीच के विवाद की वजह थी गानों को लेकर मिलने वाली गायकों की रॉयल्टी. लता जी चाहती थीं, म्यूजिक डायरेक्टर्स की तरह सिंगर्स को भी गानों की रॉयल्टी में हिस्सा मिलना चाहिए. जबकि रफी साहब की राय लता जी से बिल्कुल अलग थी. रफी साहब का मानना था कि सिंगर को जब एक गाने के लिए फीस मिल जाती है तो फिर रॉयल्टी में उसका कोई हक नहीं रह जाता.
साल 1961 में फिल्म माया के गाने की रिकार्डिंग के दौरान लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी के मतभेद सामने आए. रिकार्डिंग के बाद जब लता मंगेशकर ने रफी साहब से रॉयल्टी को लेकर उनकी राय पूछी, तो उन्होंने साफ मना कर दिया. तब लता जी ने उसी स्टूडियो में ऐलान किया कि आगे से मैं रफी साहब के साथ कोई गाना नहीं गाऊंगी. ये कहकर लता मंगेशकर नाराज़ होकर वहां से चली गईं थीं. कहते हैं कि पूरे 4 साल बाद एक्ट्रेस नरगिस की कोशिशों के बाद दोनों में बातचीत हुआ था.
पुरस्कार और सम्मान
- भारत सरकार ने रफ़ी को 1965 में पद्मश्री से सम्मानित किया था।
- इसके अलावा वे छ्ह फिल्मफेयर और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित हुए।
- आवाज़ की दुनिया के बेताज बादशाह मोहम्मद रफ़ी का 24 दिसम्बर, 2017 को 93वें जन्मदिन के मौके पर गूगल ने अपना ख़ास डूडल बनाकर उन्हें समर्पित किया था। हिन्दी सिनेमा के बेहतरीन गायक मोहम्मद रफ़ी के लिये ये डूडल मुंबई में रहने वाले इलेस्ट्र्यूटर साजिद शेख़ ने बनाया था। इस डूडल में मोहम्मद रफ़ी साहब को स्टूडियो में किसी गाने की रिकॉर्डिंग करते दिखाया गया है, जबकि दूसरी तरफ़ पर्दे पर उसे अभिनेत्री तथा अभिनेता दोहरा रहे हैं।