औरंगजेब को पराजित कर अपनी शर्तें मनवाने वाले वीर दुर्गादास राठौड़ | The Voice TV

Quote :

सपनों को हकीकत में बदलने से पहले, सपनों को देखना ज़रूरी है – डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

Editor's Choice

औरंगजेब को पराजित कर अपनी शर्तें मनवाने वाले वीर दुर्गादास राठौड़

Date : 14-Aug-2023

निसंदेह भारत में परतंत्रता का अंधकार सबसे लंबा रहा। असाधारण दमन और अत्याचार हुये पर भारतीय मेधा ने दासत्व को कभी स्वीकार नहीं किया। भारत भूमि ने प्रत्येक कालखंड में ऐसे वीरों को जन्म दिया जिन्होंने आक्रांताओं और अनाचारियों को न केवल चुनौती दी अपितु उन्हें अपनी शक्ति और युक्ति से झुकने के लिये विवश किया। ऐसे ही वीर यौद्धा हैं दुर्गादास राठौड़। जिन्होंने अपने रणकौशल से न केवल औरंगजेब को पराजित किया अपितु उसे झुका कर अपनी शर्तों पर ही समझौता किया और जोधपुर में स्वतंत्र सनातन राज्य की स्थापना की।

वीर ठाकुर दुर्गा दास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था। उनके पिता आसकरण राठौड़ ग्राम जुनेजा के जागीरदार थे। माता नेतकंवर धार्मिक, सांस्कृतिक और परंपराओ के प्रति समर्पित विचारों की थीं। पति महाराजा जसवंत सिंह की सेवा में थे।

विषमताओं के चलते अपनी रणनीति के अंतर्गत महाराजा जसवंतसिंह मुगलों के सैन्य अभियान में सम्मिलित रहते थे पर उनका प्रयास होता था कि युद्ध के बाद विजेता मुगल सेना से सनातन प्रतीकों का कम से कम क्षति हो। उनके साथ आसकरण राठौड़ भी साथ युद्ध में जाया करते थे।

यह बात माता नेतकंवर को पसंद न थीं। उन्हें अपना पुत्र दुर्गा माता की आराधना से मिला था। इसलिए उन्होंने पुत्र का नाम दुर्गादास रखा। वे नहीं चाहती थीं कि उनका बेटा बड़ा होकर मुगलों के लिये युद्ध करे। इसलिये वे अपने बेटे को लेकर लुनावा गाँव आ गयीं।

दुर्गा दास का पालन पोषण वहीं गाँव में हुआ। समूचे वन और पर्वतीय क्षेत्र के निवासी उन्हें अपना समझते और उनका एक बड़ा समूह बन गया था। हथियार चलाना, सुरक्षा करना, मल्ल युद्ध आदि में वे प्रवीण हो गये थे। इसी बीच 1678 में महाराजा जसवंतसिंह का निधन हो गया। उन दिनों वे मुगलों की ओर से अफगानिस्तान के अभियान में थे।

यह माना जाता है कि औरंगजेब ने षडयंत्रपूर्वक महाराजा जसवंतसिह को अफगानिस्तान के अभियान में भेजकर उनके वीर पुत्र पृथ्वी सिंह को आगरा बुलवाया, पहले सिंह से युद्ध कराया फिर विष देकर मरवा दिया। महाराजा को यह समाचार अफगानिस्तान में मिला और वहीं उनका निधन हो गया।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाराजा जसवंतसिह की अफगानिस्तान में हत्या की गई थी। जो हो जब महाराजा का जब निधन हुआ तब उनकी दो रानियां गर्भवती थीं। औरंगजेब ने मौके का लाभ उठाया और जोधपुर पर कब्जा कर लिया। मंदिर ध्वस्त किये जाने लगे और जजिया कर लगा दिया गया।

पृथ्वी सिंह के साथ हुये वर्ताव की प्रतिक्रिया पूरे राजपूताने में हुई। वीरों ने कमर कसी। वीर ठाकुर दुर्गादास भी जोधपुर आये। उन्होंने रानियों को सती होने से रोका और सुरक्षित वन में ले गये। महाराजा के निधन के तीन माह पश्चात् दोनों रानियों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया।

वन में ही योजना बनी कि बालक अजीतसिंह को आगे करके मारवाड़ का शासन दोवारा प्राप्त किया जाय। तब मारवाड़ के अंतर्गत आज के जोधपुर, वाड़मेर, पाली आदि जिले आते थे लेकिन औरंगजेब ने इंकार कर दिया। तब युद्ध का निर्णय हुआ और राजपूतों ने इसकी कमान वीर दुर्गादास को सौंपी।

वीर दुर्गादास राठौड़ ने दक्षिण भारत की यात्रा की और छत्रपति शिवाजी महाराज से भेंट की। लौटकर 1679 से छापामार युद्ध आरंभ किया। 1680 में औरंगजेब ने एक बड़ी फौज मारवाड़ भेजी और फौज को महाराजा जसवंतसिंह की रानियों, अजीत सिंह और दुर्गादास को पकड़कर लाने का आदेश दिया। इसका अनुमान वीर दुर्गादास राठौड़ को था। इसलिये उन्होंने तैयारी पहले से कर ली थी। मुगल सेना का रसद मार्ग रोक दिया गया और फौज को अरावली के वन पर्वत क्षेत्र में भटककर वापस लौटना पड़ा।

इसी बीच कुशल रणनीतिकार दुर्गादास राठौड़ ने एक और काम किया। उन्होंने औरंगजेब के एक विद्रोही शहजादे अकबर को अपनी ओर मिला लिया। शहजादा अकवर अपने परिवार सहित 1781 में मारवाड़ आ गया। वीर दुर्गादास ने कुछ चुने हुये वीर राजपूतों की टोली से इस परिवार को संरक्षण प्रदान किया।

यह समाचार सुनकर औरंगजेब आग बबूला हुआ और उसने पुनः फौज भेजी। लेकिन इस बार भी असफलता ही हाथ लगी। इधर शाहजादे अकबर की बेटी का अच्छा मेलजोल राजकुमार अजीतसिंह से हो गया। औरंगजेब के पास यह खबर भी पहुँची। अपनी युक्ति और रणनीति के अंतर्गत वीर दुर्गादास राठौड़ ने औरंगजेब के पास यह खबर भेजी कि शीघ्र ही मुगल शहजादी का विवाह राजकुमार अजीतसिंह से होने जा रहा है इससे औरंगजेब बिचलित हो गया।

औरंगजेब नहीं चाहता था कि मुगल शहजादी का विवाह अजीत सिंह से हो। उसने वीर दुर्गादास के पास समझौते का संदेश भेजा। औरंगजेब ने अजीतसिंह को मुगलों के अंतर्गत राजा की मान्यता और दुर्गादास को तीन हजार के मनसब का प्रस्ताव भेजा। इसके बदले में शाहजादे अकबर को परिवार सहित लौटाने की शर्त थी।

जिसे वीर दुर्गा दास ने इंकार कर दिया। अंत में औरंगजेब झुका और उसने वीर दुर्गादास राठौड़ की हर शर्त मानी। जिसमें जोधपुर राज्य की पूर्ण स्वतंत्रता, जिसमें मुगलों का कोई कानून लागू नहीं होगा, रियासत को अपना स्वतंत्र कानून बनाने, अपना सिक्का चलाने और अपना स्वतंत्र ध्वज फहराने का अधिकार होगा।

यह निर्णय लेने का अधिकार राजा का होगा कि वह मुगलों के समर्थन में युद्ध करे या तटस्थ रहे। समझौते की बातचीत 1687 में हुई और अजीत सिंह का राज्याभिषेक जोधपुर में हो गया। लेकिन वीर दुर्गादास औरंगजेब के धोखे को जानते थे इसलिये उन्होंने शहजादे अकबर के परिवार को नहीं लौटाया।

औरंगजेब को खबर भेजी कि शहजादे हज को चले गये हैं। अंत में पूरी तरह आश्वस्त होकर वीर दुर्गादास ने अनेक लिखित सहमति पत्र लेकर 1698 में शहजादे के परिवार को भेज दिया। मंदिरों के जीर्णोद्धार और अन्य निर्माण कार्य 1702 तक चला। जोधपुर रियासत ने अपनी फौज भरती की, अपना सिक्का चलाया। इस प्रकार मुगल काल में जोधपुर दूसरी रियासत थी अपना स्वायत्त शासन स्थापित किया।

उनसे पहले शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की थी। जोधपुर में राष्ट्र, समाज और संस्कृति का गौरव स्थापित करने का काम पूरा कर के वीर दुर्गादास राठौड़ 1708 में महाकाल की सेवा में उज्जैन आ गये। यहाँ संतों की सेवा की और असामाजिक तत्वों से सनातनियों की सुरक्षा की।

अंत में उज्जैन में ही 22 नवम्बर 1718 को उन्होंने संसार से विदा ली और परम् ज्योति में विलीन हो गये। राजस्थान और राजपूताने की लोक गाथाओं में मानों आज भी अमर हैं। ऐसे स्वाभिमानी महावीर दुर्गादास राठौर को शत नमन्।

 
RELATED POST

Leave a reply
Click to reload image
Click on the image to reload










Advertisement