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बलिदान दिवस:- वीर नारायण सिंह

Date : 10-Dec-2024

भारत की आज़ादी के लिए हज़ारों लोगों ने सालों तक संघर्ष किया और सैकड़ों महान वीरों के बलिदान के बाद ही हमें यह आज़ादी मिली है। भारत के अन्य क्षेत्रों और प्रान्तों की तरह छत्तीसगढ़ से भी अनेक स्वतंत्रता सेनानी आगे आए। उन्हीं में से एक हैं, छत्तीसगढ़ के बघवा (बाघ) कहे जाने वाले वीर सपूत श्री वीर नारायण सिंह जी, जो हमारे छत्तीसगढ़ से आज़ादी की लड़ाई में शहीद होने वाले सबसे पहले क्रांतिकारी थे।सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह ने अंग्रेजों को कई बार धूल चटाया था। अंग्रेजों से लड़ने के लिए नारायण सिंह ने खुद की एक बड़ी सेना तैयार की थी, जिसमें करीब 900 की संख्या में ग्रामीण उनके साथ बंदूकधारी अंग्रेजी सेना से भिड़ गए थे।

छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद वीरनारायण सिंह की आज बलिदान मनाई जा रही है। आज ही के दिन 1857 को अंग्रेजों ने रायपुर के जयस्तंभ चौक पर वीरनारायण सिंह को फांसी दी थी। तब से लेकर हर साल 10 दिसंबर को पूरा छत्तीसगढ़ अपने वीर सपूत की याद में शहीद दिवस मनाता है।

शहीद वीर नारायण सिंह का जन्म 1795 को बलौदाबाजार के छोटे से गांव सोनाखान में हुआ था। वीर नारायण सिंह के पिता गांव के जमींदार थे. सोनाखान में वीरनारायण सिंह के पूर्वजों की 300 गांवों की जमींदारी थी। शहीद वीर नारायण सिंह का अपनी प्रजा के प्रति अटूट लगाव था। बचपन से ही वह धनुष बाण, मल्ल युद्ध, तलवारबाजी, घुड़सवारी और बंदूक चलाने में महारत हासिल कर चुके थे।

1857 की क्रांति के समय अंग्रेजी सेना छत्तीसगढ़ में अपना कब्जा जमाना चाहती थी। तब नारायण सिंह के पिता रामराय सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इसके बाद जब नारायण सिंह जमींदार बने उसी समय सोनाखान क्षेत्र में अकाल पड़ा।  1856 में जब एक साल नहीं लगातार तीन साल तक लोगों को अकाल का सामना करना पड़ा। 

सोनाखान इलाके में एक माखन नाम का एक बहुत बड़ा व्यापारी था। जिसके पास अनाज का बड़ा भंडार था। इस अकाल के समय व्यापारी ने किसानों को उधार में अनाज देने की मांग को ठुकरा दिया। तब ग्रामीणों स्तिथि को देखकर जमींदार नारायण सिंह ने व्यापारी माखन के अनाज भण्डार के ताले तोड़ दिये. उन्होंने  गोदामों से उतना ही अनाज निकाला जितना भूख से पीड़ित किसानों के लिये आवश्यक था। इस लूट की शिकायत व्यापारी माखन ने रायपुर के डिप्टी कमिश्नर से कर दी। उस समय के डिप्टी कमिश्नर इलियट ने सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह के खिलाफ वारन्ट जारी कर दिया और नारायण सिंह को सम्बलपुर से 24 अक्टूबर 1856 में बन्दी बना लिया गया।

 

उसी समय देश में अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया। इस अवसर का फायदा उठाकर संबलपुर के राजा सुरेन्द्रसाय की मदद से किसानों ने नारायण सिंह को रायपुर जेल से भगाने की योजना बनाई और इस योजना में सफल हुये। अब अंग्रेज इस घटना से आग बबूला हो गए और नारायण सिंह की गिरफ्तारी के लिए एक बड़ी सेना भेज दी.

उन्होंने लोगों की जान की रक्षा के लिए खुद को ब्रिटिश सेना के हवाले कर दिया। इसके बाद 10 दिसंबर 1857 को अंग्रेजों ने रायपुर के जय स्तंभ चौक पर आम लोगों के सामने नारायण सिंह को सरेआम फांसी पर लटका दिया। लोगों ने ब्रिटिश सेना का जमकर विरोध किया, जिससे आम लोगों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की भावना पैदा हुई। इन घटनाओं के बाद, ब्रिटिश सेना को प्रभावी ढंग से चुनौती दी गई और अंततः छत्तीसगढ़ की धरती से खदेड़ दिया गया।

वीर नारायण सिंह की शहादत व्यर्थ नहीं

रायपुर में तैनात सेना की टुकड़ी और जनता ने हनुमान सिंह के नेतृत्व में 18 जनवरी 1858 को रायपुर में विद्रोह कर दिया। वीर नारायण सिंह की शहादत की तरह उनका बलिदान भी छत्तीसगढ़ के इतिहास में एक यादगार घटना थी, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी।भारत सरकार द्वारा 1987 में वीर नारायण सिंह के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया गया था।

जनजातीय उत्थान के लिए छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा शहीद वीर नारायण सिंह सम्मान दिया जाता है। रायपुर में 2008 को  भारत के दूसरे सबसे बड़े स्टेडियम के रूप में शहीद वीर नारायण सिंह स्टेडियम का नाम इनके सम्मान के रूप में रखा गया |

 

 
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