अंग्रेज से मुक्ति केलिये छत्तीसगढ़ के परलकोट में सशस्त्र क्राँति की थी
घोटुल और दूसरे उत्सव मानों संघर्ष की रणनीति बनाने के समागम होते । वनवासियों ने कुछ केन्द्र बनाकर पांच-पांच सौ की संख्या में गुट बना कर मोर्चाबंदी कर ली थी थे। इन समूहों का नेतृत्व महिलाओं और पुरूष दोनों के हाथ में था और क्राँतिकारी गेंद सिंह इन सबका समन्वय कर रहे थे ।
यह संघर्ष इतना व्यापक हो गया था कि अंग्रेजों ने इससे निबटने के लिये ब्रिटिश सैन्य अधिकारी एग्न्यू की कमान में सैन्य टुकड़ी भेजी । आधुनिक हथियारों से युक्त इस टुकड़ी ने अत्याचारों का सारा रिकार्ड तोड़ दिया । लेकिन वनवासियों ने हथियार डालने से इंकार क, दिया । अंत में एग्न्यू की सहायता के लिये एक बड़ी सेना परलकोट पहुँची । इस सेना के साथ तोपखाना भी था । 10 जनवरी 1825 को परलकोट घेर लिया गया । आधुनिक बंदूकों और तोपखाने के आगे पूरा क्षेत्र वीरान होने लगा । वनवासियों के शव गिरने लगे । अंततः अपने क्षेत्र को भीषण तबाही से बचाने के लिये क्राँतिकारी नायक गेंदा सिंह ने समर्पण कर दिया और गिरफ्तार कर लिये गए । उनकी गिरफ्तारी से आंदोलन थम गया। गिरफ्तारी के 10 दिन बाद ही 20 जनवरी 1825 को परलकोट महल के सामने ही गैंद सिंह को फाँसी दे दी गई । बस्तर को अंग्रेजों से मुक्त कराने का सपना लिये फाँसी के फँसे पर झूल गए। छत्तीसगढ के इतिहास में क्राँतिकारी गेंदा सिंह का पहला बलिदान माना गया ।
लेखक:- रमेश शर्मा