"प्रलय मुक्त,चार युगों की साक्षी और नारी शक्ति के आदर्श का प्रतीक माँ नर्मदा "
नर्मदाष्टक में आचार्य शंकर (आदि शंकराचार्य माँ नर्मदा की स्तुति करते हैं - "अहोऽमृतं स्वनं श्रुतं महेश केश जातटे, किरात - सूत वाडवेषु पंडिते शठे नटे, दुरंत पाप-ताप -हारि सर्वजन्तु शर्मदे, त्वदीय पाद पंकजम् नमामि देवी नर्मदे।
अर्थात् हम लोगों ने शिव जी की जटाओं से प्रकट हुई रेवा के किनारे भील - भाट, विद्वान, नटों से आपका अमृतमय यशोगान सुना, घोर पाप - ताप को हरने वाली और सभी जीवों को सुख देने वाली माता नर्मदा आपके चरणों को मैं प्रणाम करता हूँ।
महर्षि मार्कण्डेय, जिन्होंने नर्मदा की परिक्रमा थी। नर्मदा के विभिन्न स्वरूपों को अलग-अलग कल्पांतों में देखा है। मत्स्य कल्प में जब महर्षि मार्कण्डेय महामत्स्य रुपी महेश्वर के मुख में प्रविष्ट हुए तो महासमुद्र में प्रामदा रुपी नर्मदा को देखा--
"नद्यास्तस्यातु मध्यस्था प्रमदा कामरुपणी, नीलोत्पलदल श्यामा महत्वप्रक्षोभवाहिनी दिव्यदृष्टिकाचित्रांगि कनकोज्वलशोभिताद्वाम्यां संगृह्य जानुन्नयां महत्पोतंव्यवस्थिता।।(नर्मदा पुराण 4/28-30) , अर्थात् नीलकमल के समान श्यामल रंग वाली, उत्तम कोटि के चित्र - विचित्र आभूषणों से शोभित वह प्रमदा 'नर्मदा' अपने घुटनों से एक विशाल नौका को उस प्रलय पयोधि में संतुलित किए हुए थीं। पौराणिक आख्यानों में माँ नर्मदा प्रलय के प्रभाव से मुक्त हैं। नर्मदा अयोनिजा हैं इसलिए उनके लिए जन्म अथवा जयंती जैंसे शब्दों का प्रयोग सर्वथा अनुचित है। अतः उनका अवतरण, प्राकट्योत्सव (प्रकटोत्सव, प्रगटोत्सव)है और यही शिरोधार्य होना तर्कसंगत एवं धर्मसम्मत है।
"एक कन्या जिसे प्रेम और विवाह में धोखा दिया गया परंतु उसने आत्महत्या नहीं की वह कन्या विचलित और अवसादग्रस्त भी नहीं हुई वरन् अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से जगत माता के रुप में प्रतिष्ठित हुई, जबकि सोनभद्र और जोहिला केवल भौगोलिक अभिव्यक्ति ही बन कर रह गए " - "आखिर क्यों? माँ नर्मदा विश्व में नारी सशक्तिकरण की सबसे बड़ी आदर्श हैं।" आद्य महाकल्प से प्रवाहित श्री शिव पुत्री प्रतिकल्पा माँ नर्मदा भौगोलिक और भूगर्भीय दृष्टि से न केवल भारत वरन् विश्व की सबसे प्राचीन नदी है, वहीं पौराणिक दृष्टि से चारों काल की साक्षी हैं और ऐतिहासिक दृष्टि से माँ नर्मदा नदी ही नहीं वरन् एक जीवित संस्कृति हैं, जहाँ आदिमानव से लेकर वर्तमान तक की संयोजक कड़ियां दृष्टिगोचर होती है। इस दृष्टि से माँ नर्मदा की संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन है।
माँ नर्मदा का मानव कल्याण के लिए लिए धरती पर पृथक - पृथक कालखंडों में 3 बार अवतरण हुआ।
ब्रह्मसृष्टि में पृथ्वी पर नर्मदा के अवतरण तीन बार इस प्रकार है।
प्रथम बार पाद्मकल्प के प्रथम सतयुग में, द्वितीय बार दक्षसावर्णि मन्वन्तर के प्रथम सतयुग में और तृतीय बार वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के प्रथम सतयुग में।
प्रथम कथा – इस सृष्टि से पूर्व की सृष्टि में समुद्र के अधिदेवता पर ब्रह्मा जी किसी कारण रुष्ट को गये और उन्होंने समुद्र को मानव जन्म धारण का शाप दिया,
फलत: पाद्मकल्प में समुद्र के अधिदेवता राजा पुरुकुत्स के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुए।
एक बार पुरुकुत्स ने ऋषियों तथा देवताओ से पूछा भूलोक तथा दिव्य लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कौंन-सा है ?
देवताओं ने बताया रेवा ही सर्वश्रेष्ठ तीर्थ हैं। वे परम पावनी तथा शिव को प्रिय हैं। उनकी अन्य किसी से तुलना नहीं है।राजा बोले – तब उन तीर्थोत्तमा रेवा को भूतल पर अवतीर्ण करने का प्रयत्न करना चाहिये।
कवियों तथा देवताओ ने अपनी असमर्थता प्रकट की। उन्होंने कहा, वे नित्य शिव-सांनिध्य मे ही रहती हैं।
शंकर जी भी उन्हें अपनी पुत्री मानते हैं वे उन्हें त्याग नहीं सकते।
लेकिन राजा पुरुकुत्स निराश होने वाले नहीं थे। उनका संकल्प अटल था। विन्ध्य के शिखर पर जाकर उन्होंने तपस्या प्रारम्भ की।
पुरुकुत्स की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव प्रकट हुए और उन्होंने राजा से वरदान माँगने को कह पुरुकुत्स बोले, परम तीर्थभूता नर्मदा का भूतल पर आप अवतरण करायें। उन रेवा के पृथ्वी पर अवतरण के सिवाय मुझे आपसे और कुछ नहीं चाहिये।
भगवान् शिव ने पहले राजा को यह कार्य असम्भव बतलाया, किंतु जब शंकर जी ने देखा कि ये कोई दूसरा वर नहीं चाहते तो..उनकी निसपृहता एवं लोकमङ्गल की कामना से भगवान् भोलेनाथ बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने नर्मंदा को पृथ्वीपर उतरने का आदेश दिया।
नर्मदा जी बोली, पृथ्वी पर मुझे कोई धारण करने वाला हो और आप भी मेरे समीप रहेंगे, तो में भूतल पर उतर सकती हूँ।
शिवजी ने स्वीकार किया कि वे सर्वत्र नर्मदा के सन्निधिमें रहेंगे। आज भी नर्मदा का हर पत्थर शिवजी की प्रतिमाका द्योतक है तथा नर्मंदा का पावन तट शिवक्षेत्र कहलाता है।
जब भगवान् शिव ने पर्वतो को आज्ञा दी कि आप नर्मदा को धारण करें, तब विंध्याचल के पुत्र पर्यंक पर्वत ने नर्मदा को धारण करना स्वीकार किया।
पर्यंक पर्वत के मेकल नाम की चोटी से बाँस के पेड़ के अंदर से माँ नर्मदा प्रकट हुई।इसी कारण इनका एक नाम ‘मेकलसुता’ हो गया। देवताओं ने आकर प्रार्थना की कि यदि आप हमारा स्पर्श करेंगी तो हमलोग भी पवित्र हो जायेंगे।
नर्मदाने उत्तर दिया, मै अभी तक कुमारी हूँ अत: किसी पुरुष का स्पर्श नहीं करूँगी, पर यदि कोई हठपूर्वक मेरा स्पर्श करेगा तो वह भस्म हो जायगाअत: आप लोग पहले मेरे लिये उपयुक्त पुरुष का विधान करें।
देवताओं ने बताया कि राजा पुरुकुत्स आपके सर्वथा योग्य हैं, वे समुद्र के अवतार हैं तथा नदियों के नित्यपति समुद्र ही हैं।वे तो साक्षात् नारायण के अङ्ग से उत्पन्न उन्ही के अंश हैं, अत: आप उन्हीं का वरण कों।नर्मदा ने प्रतीकात्मक राजा पुरुकुत्स को पतिरूप में वरण कर लिया, फिर राजा की आज्ञा से नर्मदा ने अपने जल से देवताओ को पवित्र किया।
द्वितीय कथा – दक्षसावर्णि मन्वन्तर में महाराज हिरण्यतेजा ने नर्मदा के अवतरण के लिये १४ हजार वर्षतक तपस्या की।तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान् शिव ने दर्शन दिया, तब हिरण्यतेजा ने भगवान शंकर से नर्मदा-अवतरण के लिये प्रार्थना की।
नर्मदा जी ने इस मन्दन्तर में अवतार लेते समय अत्यन्त विशाल रूप धारण कर लिया।ऐसा लगा कि वे द्युलोक तथा पृथ्वी का भी प्रलय कर देगी।
ऐसी स्थिति में पर्यंक पर्वत के शिखर पर भगवान् शंकर के दिव्य लिङ्ग का प्राकट्य हुआ।उस लिङ्ग से हुंकार पुर्वक एक ध्वनि निकली कि रेवा ! तुम्हें अपनी मर्यादा में रहना चाहिये।
उस ध्वनि को सुनकर नर्मदा जी शान्त हो गयी और अत्यन्त छोटे रूप में आविर्भूत लिङ्ग को स्नान कराती हुई पृथ्वी पर प्रकट हो गयी।
इस कल्प में जब वे अवतीर्ण हुई तो उनके विवाह की बात नहीं उठी; क्योंकि उनका विवाह तो प्रथम कल्प में ही हो चुका था।
तृतीय कथा – इस वैवस्वत मन्वन्तर में राजा पुरूरवा ने नर्मदा को भूतल पर लाने के लिये तपस्या की।
यह ध्यान देने योग्य है कि पुरूरवा ने प्रथम चार अरणि मन्थन कर के अग्रिदेव को प्रकट किया था और उन्हें अपना पुत्र माना था।
वैदिक यज्ञ इस मन्वन्तर में पुरूरवा से ही प्रारम्भ हुए। उससे पहले लोग ध्यान तथा तप करते थे।
पुरूरवा ने तपस्या करके शंकर जी को प्रसन्न किया और नर्मदा के पृथ्वी पर उतरने का वरदान माँगा।
इस कल्प में विन्ध्य के पुत्र पर्यंक पर्वत का नाम अमरकण्टक पड़ गया था; क्योंकि देवताओं को जो असुर कष्ट पहुँचाते थे, इसी पर्वत के वनों में रहने लगे थे।जब भगवान् शंकर के बाण से जल कर त्रिपुर इस पर्वत पर गिरा तो उसकी ज्वाला से जलकर असुर भस्म हो गये।नर्मदा के अवतरण की यह कथा द्वितीय कल्प के ही समान है।
इस बार भी नर्मदा ने भूतल पर उतरते समय प्रलयं कारी रूप धारण किया था, किंतु भगवान् भोलेनाथ ने उन्हें अपनी मर्यादा में रहने का आदेश दे दिया था, जिससे वे अत्यन्त संकुचित होकर पृथ्वी पर प्रकट हुई।
माँ नर्मदा कन्या से लेकर माँ बनने तक संपूर्ण विश्व में महिला सशक्तिकरण की आदर्श हैं इस संदर्भ जनजातीय गाथा मार्गदर्शी है कि जब कन्या नर्मदा का विवाह शोणभद्र (सोनभद्र) से होने वाला तभी जोहिला ने शोणभद्र के साथ मिलकर कन्या नर्मदा के साथ छल किया और विवाह भी तय कर लिया, तब कन्या नर्मदा ने अविवाहित होने का निर्णय लिया और मानव कल्याण के लिए वे अमरकंटक से विपरीत दिशा में प्रवाहित होकर खंभात की खाड़ी में पुरुकुत्स में मिल गईं। इस तरह कन्या नर्मदा -अन्नदा, वनदा और सुखदा बनी तथा जगत माता के रुप में प्रतिष्ठित हुईं। परंतु सोनभद्र और जोहिला कभी वह स्थान प्राप्त न कर सके जो कन्या नर्मदा ने प्राप्त किया।कन्या नर्मदा ने आत्महत्या नहीं की और न ही अवसादग्रस्त हुईं, इसलिए महिला जीवन के हर पड़ाव में अवसाद आने पर माँ नर्मदा की कहानी उसके शमन के लिए रामबाण है, जीवन में प्रेम और विवाह ही सब कुछ नहीं है और यदि है भी तो असफलता के उपरांत भी और भी बेहतर जिया जा सकता है यही सिखातीं हैं माँ नर्मदा!!शिव पुत्री माँ नर्मदा विश्व की एकमात्र नदी हैं जिसकी परिक्रमा होती है। उनके दर्शन मात्र से व्यक्ति पाप मुक्त हो जाता है। वे श्राद्ध और मोक्ष की अधिष्ठात्री हैं। मां गंगा स्वयं वर्ष में एक बार माँ नर्मदा के दर्शन करने आती हैं। माँ नर्मदा पर पुराण लिखा गया। उनसे पहले संबद्ध हर कंकड़ शिव है। सनातन धर्म में माँ नर्मदा को जितना माहात्म्य मिला वह और किसी कन्या को नहीं मिल सका। माँ नर्मदा में चारों युगों का सौम्य समाहार दृष्टिगोचर होता है।
लेखक - डॉ. आनंद सिंह राणा