गुजरात के धोलनगर के नरेश वीरधवल एक दिन भोजन करके पलंग पर लेटे थें और उनका सेवक पैर दबा रहा था | राजा ने नेत्र बंद कर लिए थे | उन्हें निद्रित समझकर सेवक ने उनके पैर की अँगुली से रत्नजड़ित अंगूठी निकालकर मुख में छिपा ली | नरेश ने इसकी कोई चर्चा नही की यद्यपि वे सब जान sगये थे | उन्होंने वैसी ही दूसरी अंगुठी पहन ली | दूसरे दिन पैर दबाते हुए उसी स्थिति में सेवक ने फिर अँगूठी निकली तो राजा बोले – “अब यह अँगूठी तो रहने दो | कल जो अँगूठी तुमने ली है , वह तो मै तुम्हे दे चुका हूँ |” सेवक राजा के पैरो पर गिर पड़ा | उदार नरेश बोले –“ डरो मत दोष मेरा ही हैं | थोड़े वेतन से तुम्हारी आवश्यकता पूरी नही होती , इसलिए तुम चोरी करने पर विवश हुए हो | मुझे तुम्हारी आवश्यकता को पहले ही समझ लेना चाहिए था | अब से तुम्हारा वेतन दुगुना किया गया |”
उस घटना के बाद नरेश ने अपने सभी कर्मचारियों के वेतन में वृद्दि करके उदारता का परिचय दिया |