तीर्थ यात्रा पर्यटन नहीं होती और न मनोरंजन केलिये होती है । यह मानसिक, वैचारिक, सामाजिक और भावनात्मक सशक्तिकरण की यात्रा होती है। इसीलिए किसी तीर्थ क्षेत्र में सुविधा और असुविधा का तीर्थ यात्रियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनका लक्ष्य तीर्थ स्थल के दर्शन अथवा पवित्र जल में स्नान करना होता है।
पिछले दिनों प्रयागराज महाकुंभ के बारे में दो समाचार आग की भाँति फैले। एक वहाँ भगदड़ होने से तीर्थ यात्रियों मौतों का, और दूसरा समाचार महाकुंभ पहुँचने वाले मार्गों पर लंबे लंबे जाम लगने का था। सामान्यतः पर्यटन यात्रा में किसी असुविधा होने या भगदड़ मचने का समाचार सुनकर लोग अपनी यात्रा स्थगित कर देते हैं लेकिन महाकुंभ जाने वाले यात्रियों पर इन दोनों बातों का कोई प्रभाव नहीं हुआ और महाकुंभ में स्नान केलिये जाने वाले यात्रियों का वेग कम न हुआ। मानों कोई जन सैलाव उमड़ा था। यही बात तीर्थ यात्रा और पर्यटन यात्रा का अंतर स्पष्ट कर देती है । तीर्थ यात्राएँ तो दुनियाँ की हर संस्कृति अथवा पंथ में होती हैं लेकिन तीर्थ स्थल किसी विशिष्ठ विभूति अथवा किसी घटना विशिष्ट से संबंधित होते हैं। भारत में भी कुछ तीर्थ स्थलों के बारे ऐसा है। लेकिन जो प्रमुख तीर्थक्षेत्र हैं उनमें ऐसा नहीं है। जैसे देवी उपासना के सभी शक्तिपीठ, सभी द्वादश शिवलिंग और चारों धाम जहाँ कुंभ आयोजित होते हैं। अतीत में जहाँ तक दृष्टि जाती है, इन स्थलों की तीर्थ यात्राओं का विवरण मिलता है। ये सभी साधना, शिक्षा और अनुसंधान के केन्द्र रहे हैं। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक जीवन शैली और प्राथमिकताओं में तो अंतर आया है लेकिन तीर्थ यात्रा के भाव में कोई अंतर नहीं आया। तीर्थयात्रा मनोरंजन केलिये नहीं, आत्मरंजन केलिये होती है। यह एक ऐसा भाव है जिसमें स्वार्थ अथवा व्यक्तिगत लाभ हानि का गणित नहीं होता। यह आत्मबल की अभिवृद्धि केलिये होती है । भारतीय चिंतन केवल शरीर अथवा भौतिक आवश्यकता की पूर्ति तक सीमित नहीं है। इसमें संपूर्ण समष्टि और परमेष्ठी समाई हुई होती है। इस चिंतन की झलक दिनचर्या में भी मिलती है और समाज चिंतन में भी है। इसी भाव को सशक्त करने लिये ही तीर्थ यात्रा का प्रावधान किया गया जो आगे चलकर परंपरा बन गई। तीर्थक्षेत्रों और स्थलों का चयन भी साधारण नहीं है। इनका निर्धारण भी गहन शोध और अनुसंधान के बाद हुआ। यह शोध सामाजिक और वैज्ञानिकता के साथ मनोवैज्ञानिक पर भी स्पष्ट झलकता है। स्नान अथवा दर्शन केलिये जो पर्व तिथियाँ निर्धारित की जातीं हैं उनमें अंतरिक्ष और ग्रहों की एक विशिष्ट स्थिति होती है जिसमें सूर्य के प्रकाश परावर्तन का विशिष्ट प्रभाव होता है । जो व्यक्ति के अवचेतन ऊर्जा को जाग्रत करता है। इसी को हम आत्मशक्ति या आत्मबल कहते हैं। यही आत्मशक्ति व्यक्ति की कार्यक्षमता और गुणवत्ता दोनों की वृद्धि करती है। इसके साथ सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी अनूठा होता है।
आज साधन बहुत सुलभ हो गये। तीर्थों पर जाना सरल हो गया लेकिन एक समय था जब व्यक्ति सैकड़ों और हजारों मील की पदयात्रा करके तीर्थों पर पहुँचता था। भारत का भूगोल यद्यपि सिकुड़ गया है फिर भी वर्तमान स्वरूप में केरल से बद्रीनाथ की दूरी अथवा कन्याकुमारी से मानसरोवर की दूरी से यात्रा की कठिनता का अनुमान लगा सकते हैं। इसीलिए परिवार जन तीर्थयात्रा केलिये भावभीनी विदाई दिया करते थे और लौटकर आये तीर्थयात्री का भव्य सत्कार किया करते थे। तीर्थयात्रा से लौटना पुनर्जन्म माना जाता था। यह दोनों प्रकार से है। एक तो इतनी लंबी यात्रा करके सुरक्षित लौट आना भी पुनर्जन्म ही है । लेकिन दूसरा प्रकार अधिक महत्वपूर्ण है। वह तीर्थ यात्री के बाद रागद्वेष से मुक्त हो जाना है। तीर्थ यात्रा के बाद व्यक्ति की केन्द्रीभूत चेतना अंतरिक्ष की ऊर्जा से जुड़ जाती है। यदि आध्यात्म की भाषा में कहें तो वह जीवन के छल प्रपंच से दूर परमात्मा से जुड़ जाता है। इसीलिए तीर्थ यात्रा के बाद व्यक्ति के आकलन, अनुमान सटीक होते हैं।
लेखक - रमेश शर्मा