पुरुषोत्तम दास टंडन आधुनिक भारत के प्रमुख स्वाधीनता सेनानियों में से एक थे। वे 'राजर्षि' के नाम से भी विख्यात थे। उन्होंने अपना जीवन एक वकील के रूप में प्रारम्भ किया था। हिन्दी को आगे बढ़ाने और इसे राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने के लिए पुरुषोत्तम दास जी ने काफ़ी प्रयास किये थे। वे हिन्दी को देश की आज़ादी के पहले आज़ादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आज़ादी मिल जाने के बाद आज़ादी को बनाये रखने का। हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करवाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। आज हम 1 अगस्त को उनका जन्मोत्सव को जयंती के रूप में मना रहे है राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन हिंदी को राष्ट्रीय भाषा स्थान दिलाने बहुत बड़ा योगदान है इसे एक जुडा हुआ वाकया है
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन हिंदी को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए प्रयासरत थे। हिंदी उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न था। वह हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए लगातार काम कर रहे थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के जरिये वह इस काम को आगे बढ़ा रहे थे।
इसके लिए उन्होंने कई लोगों को सम्मेलन के साथ जोड़ा। सभी को पता है कि उन्हें सिद्धांतों से समझौता किसी भी कीमत पर पसंद नहीं था। कोई बात यदि उनकी नीति के विरुद्ध हुई तो वह उसका प्रबल विरोध करने से भी संकोच नहीं करते थे।
भले ही सामने वाले व्यक्ति का कद कितना भी बड़ा क्यों न हो। वह हिंदी को प्रतिष्ठित करने के लिए लोगों के पास आर्थिक मदद लेने जाया करते थे। उमाशंकर दीक्षित का संस्मरण है, ‘एक बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के लिए धन एकत्र करने के उद्देश्य से राजर्षि टंडन मुंबई चले गए।
उनके साथ मैं भी था और मेरे अलावा श्रीमती लीलावती मुंशी और माखनलाल चतुर्वेदी भी थे। एक दिन हम लोग प्रसिद्ध उद्योगपति रामनाथ पोद्दार के पास गए। माखनलाल चतुर्वेदी ने उनसे आर्थिक सहयोग मांगा। चतुर्वेदी जी ने जितना सहयोग मांगा पोद्दार साहब ने कहा, ‘मैं इतना दे सकता हूं।’
जब टंडन जी को बड़ी मुश्किल से किया शांत
दोनों के धन में कुछ अंतर था। बातचीत के दौरान रामनाथ जी की एक बात सुनकर माखनलाल जी ने कहा, ‘मदद लेना है तो दोष क्या देखना।’ चतुर्वेदी जी का इतना कहना था कि राजर्षि टंडन बिगड़ गए। बोले, ‘क्या कहा। हम अर्थ प्राप्ति के लिए कोई भी दोषपूर्ण काम करने को तैयार हैं? मुझे यह स्वीकार नहीं।
हिंदी को प्रतिष्ठित करना है, लेकिन दोषपूर्ण तरीके से सहायता लेकर नहीं।’ बड़ी मुश्किल से हम लोगों ने टंडन जी को शांत किया। चतुर्वेदी जी ने भी अपने शब्द वापस लिए और पोद्दार जी ने भी टंडन से आर्थिक सहयोग लेने का आग्रह किया। उन्होंने सहयोग के रूप में जो धन दिया उसे लेकर चले आए।