गुट निरपेक्ष शब्द का प्रयोग पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत ,युगोस्लाविया तथा मिस्र के द्वारा १९५० में किया गया था, 1 सितंबर 1961 को बेलग्रेड (युगोस्लाविया)में इसका गठन किया गया , इसे अमलीजामा पहनाने का कार्य 1955 में बांडुंग(इंडोनेशिया) सम्मेलन , १९५६ में युगोस्लाविया के तत्कालीन राष्ट्रपति मार्शल टीटो, भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तथा मिस्त्र के राष्ट्रपति अब्देल नासिर ने किया, गुट निरपेक्ष आंदोलन को कुछ और देशों द्वारा समर्थन भी मिला तथा इसका उद्देश्य दोनों महाशक्तियों सोवियत संघ तथा अमेरिका के बढ़ते साम्राज्यवाद तथा उनके नाजायज दखल को रोकना था, तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस मामले में बेहद प्रखर रहे, गुट निरपेक्ष आंदोलन द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका से उपजा था जिसमें अपार जन धन हानि हुई थी , इस युद्ध में लगभग पांच से छह करोड़ लोग मारे गए थे , तथा अमेरिका जापान पर परमाणु बम गिराकर एक वैश्विक शक्ति बन गया था, रूस भी अमेरिका के बराबर खड़ा होना चाहता था तथा उसने भी साम्यवादी देशों का अपना एक गुट बना लिया था , इसमें सबसे आश्चर्यजनक यह था कि अमेरिका, ब्रिटेन तथा सोवियत संघ मित्र राष्ट्रों के रूप में मिलकर धुरी राष्ट्रों जापान, इटली ,जर्मनी के खिलाफ लड़े थे ,अमेरिका अपने समर्थक देशों के साथ 'नाटो' याने नॉर्थ अटलांटिक आर्गेनाइजेशनल बना चुका था दुनिया दो हिस्सों में बंटी नजर आ रही थी तथा यह बंटवारा आगामी विश्व युद्ध को फिर जन्म दे सकता था इसलिए गुट निरपेक्ष आंदोलन प्रासंगिक था लेकिन यह दुनिया में अपना रोल उतना प्रभावी बना नहीं पाया जैसा होना था बाद में यह आंदोलन दबता चला गया, 1962 के भारत चीन युद्ध में नेहरू काल में भारत को पराजय का सामना करना पड़ा तथा इसमें चौंका देने वाली बात यह थी कि उस समय तत्कालीन प्रधान मंत्री नेहरू को अमेरिका से सहायता लेनी पड़ी थी, खुद बखुद भारत को १९७१ के भारत पाकिस्तान युद्ध के समय सोवियत संघ से समझौता करना पड़ा, उसके बाद अमेरिका वियतनाम युद्ध में अमेरिका अपनी मनमानी पर उतर आया, इसके बाद १९९० में खाड़ी युद्ध में अमरीकी दादागिरी, रूस की सीरिया में दखल,अमेरिका का अफगानिस्तान में हमला, अब रूस ने यूक्रेन में आक्रमण कर दिया ,आखिर कहां हैं हमारा गुट निरपेक्ष आंदोलन?
गुट निरपेक्ष आंदोलन
विशेषकर भारत में कांग्रेस के शासन के दौरान सरकारों का झुकाव सोवियत संघ की ओर बना रहा , दोनों शक्तियां अपनी विस्तारवादी प्यास बुझाती रहीं ,कुछ परिवर्तन इसमें 1991में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के समय में आया जब भारत आर्थिक उदारीकरण की ओर बढ़ रहा था उस समय अमरीकी आई टी कंपनियां भारत में पैर जमाने की कोशिश कर रही थीं , इसके बाद भारत अमेरिका की ओर बेहद झुक गया,लेकिन वर्तमान में मोदी सरकार ने गुट निरपेक्षता को सही मायने में परिभाषित किया है, आज यदि भारत का अमेरिका सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है तो दूसरी ओर भारत रूस से प्रतिबंधित S- 400 मिसाइलें भी खरीद रहा है तथा अमरीकी चेतावनी के बावजूद रूस से पेट्रोल भी खरीद रहा है, मोदी सरकार किसी भी दबाव में नहीं है , यहां तक कि हमारे सबसे बड़े शत्रु के तौर पर पाकिस्तान ने भी भारत के इस कदम की प्रशंसा की है, पूरी दुनिया में आज गुट निरपेक्ष आंदोलन के लगभग एक सौ बीस सदस्य देश हैं लेकिन इनमें अधिकांश देश अपनी कोई स्वतंत्र नीति तय नहीं कर पा रहे हैं, अमेरिका चाहता है कि दुनिया में उसका दबदबा बना रहे , वर्ल्ड बैंक, अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष में उसकी सबसे ज्यादा चलती है, कई देश इनके कर्ज चक्र में फंसे हुए हैं इसलिए अमेरिका के खिलाफ कोई सीधे जाने की हिम्मत कर नहीं पाता एशिया से इंडोनेशिया, ईरान जैसे कुछमहत्वपूर्ण देश भी इस आंदोलन से जुड़े हुए हैं जिन्होनें अमेरिका के खिलाफ अपने परमाणु कार्यक्रमों पर कुछ जरूर अपना पक्ष मजबूती से रखा है , अफ्रीका के बहुत से देश इस आंदोलन से जुड़े हैं लेकिन वे भी बेचारे हैं फिर भी इन दोनों महाशक्तियों को एहसास है कि वे सबको अपना मोहरा नहीं बना सकते , जरूरत है गुट निरपेक्ष देशों को अपने पैरों पर खड़ा होने की याने आर्थिक रूप से ज्यादा सक्षम होने की ,एक इसका हमने उदाहरण श्रीलंका का देखा जो की गुट निरपेक्ष आंदोलन का सदस्य देश है लेकिन वह आर्थिक तौर पर टूट चुका है तथा सहायता की आस लगाए बैठा है, गुट निरपेक्ष देशों को उसकी सहायता के लिए प्रभावी तौर पा सामने आना था लेकिन भारत को छोड़कर कोई उसकी मदद के लिए सामने नहीं आया, अभी इसमें बहुत कमियां हैं फिर भी भारत इससे जुड़ा हुआ है तथा इसकी अगुवाई भी उसके हाथ में है उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी शासन के दौरान भारत अपने प्रभावी चेहरे के तौर पर सामने आएगा तथा दूसरे देशों को भी इससे प्रेरणा मिलेगी|
लेखक - सत्येन्द्र मिश्रा