वैसे तो भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए अलग-अलग इलाकों में कई तरह के अनुष्ठान किए जाते हैं लेकिन शैव भक्ति की जितनी कष्टसाध्य आराधना पंडा पर्व है, उतनी सामान्य पूजा-अर्चना में देखने को नहीं मिलता। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के बाद से ही पूरे झारखंड में मंडा पर्व शुरू हो जाता है, जो पूरे ज्येष्ठ महीने तक चलता है। यह ऐसा सार्वजनिक अनुष्ठान है, जिसमें न कोई जात भेद होता और न ही मंत्रोच्चार की जरूरत है।
मंडा अनुष्ठान कहीं-कहीं नौ दिनों का होता है, तो कहीं तीन दिनों का। भगवान शंकर का वरदान पाने के लिए भक्त जिन्हें भोक्ता कहा जाता है, अनुष्ठान पूरा होने तक अपना घर-परिवार त्याग कर किसी शिवालय में शरण लेते हैं। इस दौरान वे 24 घंटे में सिर्फ एक बार फलाहार करते हैं। मंडा पर्व ऐसा अनुष्ठान होता है, जहां जनजातीय और अनुसूचित जाति समुदाय के लोग काफी संख्या में हिस्सा लेते हैं। झारखंड के अलग-अलग गांवों में अलग-अलग तिथियों में मंडा पर्व मनाया जाता है। हालांकि, इसका अनुष्ठान सभी गांवों में नहीं होता। जिस परिवार से कोई भोक्ता मंडा अनुष्ठान में शामिल होता है, तो उसके पूरे परिवार और निकट के रिश्तेदारों के यहां मांस-मदिरा का सेवन पूरी तरह बंद हो जाता है।
कर्रा प्रखंड के बिकुवादाग के वयोवृद्ध पटभोक्ता लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि भोक्ताओं के प्रधान को पट भोक्ता कहा जाता हैं। उसी के नेतृत्व में सभी भोक्ता धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। उन्होंने बताया कि भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए शिव भक्तों को कई कष्ट साध्य परीक्षाओं से गुजर कर अपनी भक्ति और निष्ठा का परिचय देना पड़ता है। उन्हें आग के धुएं के बीच उल्टा लटका कर झुलाया जाता है, जिसे धुआंसी कहा जाता है। इसके पीछे तर्क है कि यदि भोक्ता ने छिपकर कुछ खा लिया हो, तो वह पेट से बाहर आ जाए।
इसके पूर्व भोक्ताओं को लोटन सेवा में शामिल होना पड़ता है, जहां भोक्ता जमीन पर लोटकर भोलेनाथ का जयकारा लगाते हैं। कहीं-कहीं पर भक्तों को बडे़-बड़े कांटों में नंगे बदन फेंका जाता है, तो पंच परगाना क्षेत्र (बुंडू, तमाड़, अड़की, सोनाहातू आदि क्षेत्र) में भोक्ताओं के शरीर और जीभ को तीर या कील चुभाया जाता है। भोक्ता अनुष्ठान के दौरान भोलेनाथ के काष्ट विग्रह को माथे पर लेकर साड़ी पहनकर भोले शिवा मणिण महेश का जयकारा लगाते भोक्ता गांव-गांव घूमते हैं।
भोक्ता भक्ति की अंतिम परीक्षा दहकते अंगारों के बीच नंगे पांव चलकर देते हैं। मंडा के अनुष्ठान देखने में भले ही कुछ अमानवीय लगते हों, पर आस्था के आगे कोई तर्क नहीं होता। आज तक एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला, जहां दहकते अंगारों के बीच चलने के बाद भी किसी भोक्ता का पैर जला हो। शरीर में कील चुभाने के बाद उसे न कोई सुई-दवा की जरूरत पड़ती है और न ही किसी प्रकार के परहेज की। जख्म स्वतः ही ठीक हो जाता है।
झूलन अनुष्ठान के बाद शैव उपासना के इस महापर्व का समापन हो जाता है। झूलन के दौरान भक्तों को फूलमालाओं से लादकर लकड़ी के झूले से चारों और झुलाया जाता है। झूलन के दौरान भोक्ता ऊपर से फूल फेंकते हैं, जिन्हें पाने के लिए भक्तों में होड़ लगी रहती है। तोरपा शिवालय के पंडित सहदेव कर बताते हैं कि मंडा सामाजिक एकता का सबसे बड़ा माध्यम है। मंडा के दौरान जिस घर में अनुष्ठान होता है, उसके हित-कुटुंब जरूर पहुंचते हैं। इससे सामाजिक समरसता बढ़ती है।
मंडा पर्व का प्रमुख अंग है छऊ नृत्य
शैव आराधना के महापर्व मंडा का प्रमुख अंग है छऊ नृत्य। सभी धार्मिक अनुष्ठान संपन्न होने के बाद (कुछ जगहों पर झूलन के पूर्व) छऊ नृत्य का आयोजन किया जाता है। रांची, खूंटी, गुमला जैसे जिलों में पश्चिम बंगाल और पंच परगना इलाके में छऊ नृत्य की मंडलियों को आमंत्रित किया जाता है। कलाकार देवी-देवताओं, पशुओं आदि का मुखौटा लगाकर लय पर नृत्य करते हैं।