पंडित नेहरू को जेल की सजा और तथ्य :
अब बात करें पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की तो उन्हें अंग्रेजों ने कई हिस्सों में 9 बार ही जेल की सजा सुनाई थी।। सबसे पहले 6 दिसंबर 1921 से 3 मार्च 1922 तक उन्हें मात्र 88 दिनों की सजा सुनाई गई । इस दौरान वो लखनऊ डिस्ट्रिक्ट जेल से छूटे। दूसरी बार उन्हें इलाहाबाद सेंट्रल जेल और लखनऊ डिस्ट्रिक्ट जेल में 266 दिनों के लिए 11 मई 1922 से 31 जनवरी 1923 तक) रखा गया। तीसरी बार 22 सितंबर 1923 में उन्हें नाभा जेल में डाला गया। जहाँ से वो मात्र 12 दिनों में ही छूट गए। जबकि नेहरू जी की ये सज़ा 2 साल की थी।
इस संदर्भ में इलाहाबाद की नाभा जेल में बंद स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के सन्तानम की पुस्तक 'Handcuffed with Jawaharlal’ से कई महत्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं। इसी पुस्तक के आधार पर वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव लिखते हैं कि — मोतीलाल नेहरू ने वायसराय से जुगाड़ लगाई और नाभा जेल में जवाहरलाल को वीआईपी सुविधा मिली... के. संतानम के शब्दों में – “पंडित मोतीलाल नेहरू बहुत चिंतित थे। उन्होने हमारे ठिकाने के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए पंजाब के बड़े अधिकारियों और प्रभावशाली लोगों से संपर्क किया। जब उन्हे सफलता नहीं मिली तो उन्होने सीधे वायसरॉय से संपर्क किया। इस पूरी प्रक्रिया में दो से तीन दिन लग गए। लेकिन इसके बाद नाभा जेल के अधिकारियों का व्यवहार पूरी तरह से बदल गया। हमारे नहाने का इंतज़ाम हो गया और हमारे कपड़े भी दे दिये गये। यहां तक कि जेल के बाहर से हमारे लिए खाने और फलों का इंतज़ाम भी हो गया।”
बेटे जवाहर के लिए मोतीलाल नेहरू ने स्वीकार की अंग्रेजों की शर्तें :
आगे प्रखर श्रीवास्तव लिखते हैं कि — मोतीलाल नेहरू अपने बेटे को लेकर इतने परेशान हुए कि उन्होंने वायसराय को ये भरोसा तक दे दिया कि वो नाभा में किसी राजनैतिक आंदोलन में हिस्सा नहीं लेंगे, जबकि वो कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे, लेकिन उन्हें किसी आंदोलन से नहीं बल्कि सिर्फ अपने बेटे से मतलब था। कितनी हैरत की बात है कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मोतीलाल नेहरू अपने बेटे जवाहर से मिलने के लिए अंग्रेज सरकार की हर शर्त मान रहे थे। मोतीलाल नेहरू 25 सितंबर को अंबाला कैंट पहुंचे और यहां से उन्होने सीधे वायसराय को तार भेजा। इसमें उन्होंने लिखा कि — “मैंने नाभा के प्रशासक को ये भरोसा दिया था कि मैं वहां किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं लूंगा। मेरा नाभा आने का इकलौता मकसद ये है कि मैं अपने बेटे जवाहरलाल से मुलाकात करना चाहता हूं और उसकी अदालत में पैरवी करना चाहता हूं। लेकिन मेरे गारंटी देने के बाद भी मुझे धारा 144 के तहत नाभा छोड़ने का हुकुम सुना दिया गया। इन हालात में मुझे संदेह है कि मेरे बेटे को न्याय मिलेगा और जेल में उसके साथ अच्छा व्यवहार होगा। मैं अंबाला कैंट स्टेशन पर आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं।”
इसी सन्दर्भ में प्रखर श्रीवास्तव तथ्यों की पड़ताल करते हुए बतलाते हैं कि — “मोतीलाल नेहरू के एक जिगरी दोस्त हरिकिशनलाल पंजाब सरकार में मंत्री थे और अंग्रेज़ों के खास थे। उनके ज़रिए मोतीलाल नेहरू पहले ही नाभा में ब्रिटिश प्रशासक जे. विल्सन जॉनसन पर दवाब बना रहे थे। इसका जिक्र मिलता है बी.आर. नंदा की किताब - द नेहरुज़ में। पद्मभूषण से सम्मानित बी आर नंदा नेहरू-गांधी परिवार के बेहद करीबी थे। बी. आर. नंदा के मुताबिक जॉनसन ने मोतीलाल को लिखा था कि -“पंजाब सरकार के सम्मानित मंत्री श्री हरिकिशनलाल ने मुझे आपका वो तार भेजा है जो आपने उन्हे 22 सितंबर 1923 को इलाहबाद से किया था। मैं निम्नलिखित शर्तों पर आपको आपके पुत्र से मिलने की अनुमति दे सकता हूं, और इसके लिए आपको लिखित आश्वासन देना होगा।”
1. आप जब तक नाभा रियासत में हैं तब तक आप यहां कोई भी राजनैतिक गतिविधि नहीं करेंगे।
2. जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात के बाद आप तत्काल नाभा रियासत से चले जाएंगे।
(जे. विल्सन जॉनसन (I.C.S.) प्रशासक, नाभा रियासत)
नेहरू जी 2 साल की सज़ा, 3 घंटे में कैसे हुई खत्म ?
पंडित नेहरू की रिहाई के संबंध में प्रखर श्रीवास्तव एक और महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर ध्यान खींचते हैं। वो लिखते हैं कि — दो साल की सज़ा, तीन घंटे में कैसे खत्म हो गई? नाभा की अदालत ने जवाहरलाल नेहरू, आचार्य गिडवानी और के. संतानम को दो साल की कैद सुनाई गई। लेकिन इसके बाद वो हुआ जो आजतक भारत के अदालती इतिहास में कभी नहीं हुआ है। शाम को करीब चार बजे अदालत ने नेहरू को दो साल की सज़ा सुनाई और शाम 7 बजे नाभा के अंग्रेज़ प्रशासक ने ये सज़ा रद्द कर दी। इस रहस्यमयी घटना का वर्णन नेहरू ने भी रहस्यमयी तरीके से किया है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में जो लिखा है उसको पढ़कर लगता है कि वो शायद कुछ छुपा रहे हैं। नेहरू लिखते हैं कि - “उसी शाम को जेल सुप्रीटेंडेंट ने हमें बुलाया और हमें प्रशासक का आदेश दिखाया जिसमें हमारी सजा स्थगित कर दी गई थी। उसने हमें एक और एक्जक्यूटिव ऑर्डर दिखाया जिसमें हमें तत्काल नाभा रियासत छोड़कर चले जाएं और अगली बार बिना अनुमति के प्रवेश न करें। मैंने दोनों हुक्म की कॉपी मांगी लेकिन वो हमें नहीं दी गई। इसके बाद हमें रेलवे स्टेशन भेज दिया गया। रात में शहर के दरवाज़े बंद हो गये। हम अंबाला जाने वाली गाड़ी में बैठ गए।”
फिर नाभा नहीं गए नेहरू जी :
आगे आचार्य गिडवानी और पंडित नेहरू के आंदोलन के संबंध में इस तथ्य की ओर भी प्रखर श्रीवास्तव ध्यानाकर्षित करते हैं। वे लिखते हैं कि— “ दरअसल नाभा के इस जेल और रिहाई कांड के करीब 6 महीने बाद 1924 में एक बार फिर वहां सिखों का विद्रोह भड़क उठा। चूंकि नेहरू ने पिछली बार इस विद्रोह का नेतृत्व किया था लिहाज़ा इस बार भी उन्हे अपना फर्ज निभाते हुए नाभा जाना चाहिए था। फिर भी नेहरू वहां नहीं गये। लेकिन महान स्वतंत्रता सेनान आचार्य गिडवानी सीना तान कर नाभा पहुंच गए ।पुलिस ने गोली चलाई जिसमें कई आंदोलनकारी मारे गये और गिडवानी गिरफ्तार कर लिए गए। अब गिडवानी किसी मोतीलाल नेहरू के बेटे तो थे नहीं, लिहाज़ा उन्हे पूरे एक साल तक नाभा की उसी जेल में जमकर कष्ट दिए गए जिसमें पिछले साल वो नेहरू के साथ आराम से बंद थे। जेल में बीमार पड़ने के बाद जब गिडवानी करीब-करीब मौत के मुंह में पहुंच गये तो उन्हे रिहा कर दिया गया।”
वीर सावरकर के प्रति इंदिरा गांधी की कृतज्ञता :
अब, बात उस तथ्य की जो राहुल गांधी ने अपनी दादी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सहारे सदन में कहा। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी वीर सावरकर के प्रति आदर और श्रद्धा का भाव रखती थीं। इसीलिए वीर सावरकर के अप्रतिम योगदान को ध्यान में रखते हुए इंदिरा गांधी— 1970 में महान क्रान्तिकारी, राष्ट्रवादी, कवि के रुप में याद करते हुए 'डाक टिकट' जारी करती हैं । साथ ही इंदिरा गांधी 'सावरकर ट्रस्ट' को अपने निजी कोष से ग्यारह हजार रुपए भी देती हैं। इसी संदर्भ में वीर सावरकर की जन्म शताब्दी के समय का यह तथ्य महत्वपूर्ण है। इंदिरा गांधी का आ 20 मई 1980 को लिखा पत्र उल्लेखनीय है। अपने इस पत्र के माध्यम से वो सावरकर स्मारक के सचिव बाखले को वीर सावरकर की ‘सौ’ वीं जयन्ती पर शुभकामना सन्देश भेजकर कहतीं कि –
“मुझे आपका 8 मई 1980 को भेजा हुआ पत्र प्राप्त हुआ है। वीर सावरकर का अँग्रेजी सरकार के विरुद्ध बहादुरी पूर्ण प्रतिकार करना भारत के स्वतन्त्रता के आन्दोलन में अपना एक महत्वपूर्ण और अहम स्थान रखता है। मैं भारत के इस असाधारण सपूत की जन्म शताब्दी मनाने की योजना की सफलता की कामना करती हूँ।”
इसके अतिरिक्त इंदिरा गांधी ने सन् 1983 में भारतीय फिल्म डिवीजन को वीर सावरकर पर एक वृत्तचित्र बनाने का आदेश देते हुए कहा था कि -“आने वाली पीढ़ियों को 'इस महान क्रांतिकारी' के बारे में न सिर्फ पता चल सके बल्कि पीढ़ियाँ जान सकें कि वीर सावरकर ने देश की आजादी में क्या और किस तरह से योगदान दिया।”
दादी इंदिरा का अपमान कर रहे राहुल ?
स्पष्ट है कि इंदिरा गांधी वीर सावरकर के प्रति अगाध श्रद्धा रखती थीं। इसीलिए उन्होंने उनके सम्मान में कोई कमी नहीं की। अब, पता नहीं क्यों? कांग्रेस के विचारशून्य युवराज जिन इंदिरा गांधी का नाम लेकर संसद के अंदर और बाहर वीर सावरकर को लेकर मिथ्या प्रलाप कर रहे हैं।भारत विभाजनकारी कम्युनिस्टों की स्क्रिप्ट पढ़ रहे हैं। स्पष्ट है कि वो तथ्यात्मक घोटाला ही नहीं कर रहे हैं बल्कि अपने पूर्वजों का अपमान भी कर रहे हैं।
सोचिए! वो इंदिरा गांधी जो 1970 , 1979- 1980 और 1983 में वीर सावरकर के महान योगदान को समाज के बीच ले जाने की बात कर रही थीं। स्मारक डाक टिकट जारी कर रही थीं। अपने निजी कोष से 11 हजार रुपए दे रही थी। भारतीय फिल्म विभाग को वृत्तचित्र बनाने का आदेश दे रही थीं। सावरकर ट्रस्ट के सचिव बाखले को जन्म शताब्दी मनाने के लिए पत्राचार कर रही थीं। उन सावरकर के बारे में इंदिरा गांधी जी को झूठा सिद्ध करना। क्या राहुल गांधी इंदिरा जी का ही अपमान नहीं कर रहे हैं? क्या राहुल - इन्दिरा गाँधी से अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली हैं ? क्या इन्दिरा गाँधी को सत्य और असत्य का ज्ञान नहीं था ? जो वे स्वातंत्र्य वीर सावरकर का सदैव सम्मान करती रहीं । उन्हें हमेशा प्रेरणास्रोत बतलाया।
राहुल या इंदिरा गांधी कौन सच्चा ?
राहुल गांधी ने अपने संसद के बयान में कहा कि- सावरकर जी के बारे में उन्होंने इंदिरा जी से तब पूछा था जब वो छोटे थे। अब राहुल उस समय कितने छोटे थे ये भी विश्लेषण किए जाने योग्य है। राहुल का जन्म 19 जून 1970 को हुआ था। इस समय वो 54 साल के हैं। इंदिरा गांधी की जब हत्या हुई तब राहुल गांधी 14 साल के थे।
उस समय वो देहरादून के दून स्कूल में पढ़ रहे थे। ऐसे में क्या कोई 10 से 14 साल का बालक अपनी दादी से जटिल समझे जाने वाले सवाल पूछेगा? याकि बचपन और उस समय की मनोदशा से संबंधित बातें करेगा। ऐसे में
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राहुल ऐसा कब होगा यह सोचने वाली बात है?
2014 से पहले राहुल ने क्या सावरकर पर बयान दिए ?
किंतु अब हम भारतीय राजनीति में 2014 के पहले चलते हैं। इस समय तक राहुल गांधी के वीर सावरकर पर कभी बयान देखने को नहीं मिले। सावरकर और भारतीय परंपरा, संस्कृति पर राहुल गांधी के हमले 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद ही बढ़े हैं। जब उन्हें लगातार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी से पराजय मिली। देश भर के विभिन्न राज्यों से कांग्रेस का सफाया हो गया। इससे राहुल गांधी हार की हताशा और खीझ की झुंझलाहट से भरते चले गए। यदि यह मान भी लिया जाए कि - राहुल सच बोल रहे हैं तो क्या इंदिरा गांधी ने वीर सावरकर के प्रति जो लिखा, बोला, सम्मान में काम किया। वो सब झूठ है? ऐसे में यही सिद्ध होता है कि राहुल गांधी- अपनी दादी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का भी अपमान करने से नहीं चूक रहे हैं। भला, राहुल गांधी ऐसा करके क्या हासिल करना चाह रहे हैं?
झूठ को सच साबित करने की ज़िद :
वीर सावरकर के प्रति अपने झूठ को सही सिद्ध करने के लिए राहुल गांधी कितनी सीमाएं लांघेंगे? इसके लिए अपने पुरखों का ही अपमान क्यों कर रहे हैं? यह किसी की भी समझ से परे है। इंदिरा जी के काम और तथ्य सबकुछ सबके सामने हैं। अगर, वो वीर सावरकर के प्रति ऐसी धारणा रखतीं जैसा राहुल बता रहे हैं तो क्या इंदिरा गांधी, वीर सावरकर के सम्मान में इतने काम करतीं? जो उन्होंने सार्वजनिक रूप से
किया। राहुल अपने झूठ को बारंबार सही साबित करने की ज़िद क्यों पाले बैठे हैं? अब इसमें अपनी दादी को भी बीच में क्यों ले आए? यह कितना हास्यास्पद और दु:खद है न?
यानी स्पष्ट रूप से यही सिद्ध होता है कि राहुल गांधी को कम्युनिस्टों ने हाईजैक कर लिया है। वीर सावरकर के प्रति इस ढंग की बयानबाज़ी भारत विभाजन के लिए पाकिस्तान का ड्राफ्ट तैयार करने वाले कम्युनिस्टों के मस्तिष्क की उपज है। जोकि राहुल गांधी के माध्यम से अपनी घ्रणा को परोस रहे हैं। राहुल गांधी पर वीर सावरकर मानहानि के लखनऊ और पुणे में केस भी चल रहे हैं। इनमें मानहानि सहित कई गंभीर धाराओं में केस दर्ज हैं । राहुल को सुनवाई में पेश होने के लिए पुणे और लखनऊ की अदालतें आदेश जारी करती रही हैं। अब, ऐसे में कई सवाल खड़े होते हैं — आखिर! राहुल गांधी के निशाने पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, महापुरुष और भारतीय संस्कृति ही क्यों रहती है? क्या राहुल गांधी जानबूझकर भारत की महान परंपरा , संवैधानिक संस्थाओं का अपमान करते हैं? महापुरुषों के बारे में झूठ बोलकर समाज में भ्रम का वातावरण पैदा करना चाहते हैं? क्या राहुल गांधी देश में विभाजन की रेखा बढ़ाना चाहते हैं? क्या राहुल गांधी भारतीय समाज को भाषा, वेशभूषा, स्थानीयता, जाति के नाम पर लड़ाना चाहते हैं? अगर, हाँ तो राहुल गांधी ऐसा क्यों कर रहे हैं? अगर, नहीं तो राहुल गांधी के बयान प्रायः विभाजनकारी मानसिकता वाले क्यों होते हैं? राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष की जिस भूमिका में हैं उसके दायित्व की गंभीरता को कब समझेंगे? क्या स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों का अपमान कर सत्ता मिलेगी ?
लेखक:- कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल