अक्सर, ‘मनुस्मृति’ के बहाने अस्पृश्यता रूपी सामाजिक कुरीतियों के लिए ‘ब्राह्मणवाद’ को कटघरे में खड़ा किया जाता है। परंतु संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर ने छुआछूत के लिए कभी ब्राह्मण समाज को कलंकित नहीं किया, जैसा आज स्वयंभू अंबेडकरवादी, स्वघोषित गांधीवादी या वामपंथी करते है। अपनी रचना में डॉ. अंबेडकर ने लिखा था— “मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि मनु ने जाति कानून नहीं बनाया... यह वर्ण-व्यवस्था मनु से बहुत पहले से अस्तित्व में थी।” उन्होंने इसके लिए ब्राह्मणों को कोई दोष नहीं देते हुए लिखा, “ब्राह्मण कई दूसरी चीजों के दोषी हो सकते हैं... किंतु गैर-ब्राह्मण आबादी को जाति-व्यवस्था में बांधना उनके स्वभाव के प्रतिकूल था।” वामपंथी, जिहादी और सेकुलरवादी गुट वर्षों से ‘सामाजिक अन्यायों’ की बात तो करते हैं, लेकिन उनका असली मकसद इनका समाधान करना नहीं, बल्कि समाज में जातीय संघर्ष को बनाए रखना होता है।
इस्लाम के नाम पर जब भारत विभाजित हुआ, तब पाकिस्तान ने शरीयत आधारित वैचारिक अधिष्ठान को अपनी व्यवस्था का आधार बनाया, जिसे ‘काफिर-कुफ्र-शिर्क’ अवधारणा से प्रेरणा मिलती है। यही कारण है कि वहां हिंदू-सिख आबादी 1947 में 15-16 प्रतिशत से घटकर आज डेढ़ प्रतिशत रह गई है, शिया-सुन्नी-अहमदिया आदि इस्लामी संप्रदायों में खूनी टकराव है। यही हाल बांग्लादेश का भी है, जहां उदारवादी सरकार के हालिया तख्तापलट के बाद इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा चुन-चुनकर हिंदुओं को निशाना बनाया जा रहा है। मुस्लिम बहुल कश्मीर में भी साढ़े तीन दशक पहले इसका भयावह रूप दिख चुका है।
लेखक:- बलबीर पुंज