बलिदानी सप्ताह 21-27 दिसंबर: सिंघों की वीरता की अमर गाथा | The Voice TV

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सपनों को हकीकत में बदलने से पहले, सपनों को देखना ज़रूरी है – डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

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बलिदानी सप्ताह 21-27 दिसंबर: सिंघों की वीरता की अमर गाथा

Date : 25-Dec-2024

हम सभी को स्मरण रहे कि 21 से 27 दिसंबर 1704 के बीच सात दिनों में सरबंसदानी श्री गुरु गोबिंदसिंह जी ने धर्म, राष्ट्र, समाज रक्षा के लिए अपना पूरा परिवार न्योछावर कर दिया था। समय बदला, दुनिया बदली लेकिन चार साहिबज़ादों का अद्भुत साहस, अप्रतिम बलिदान और स्वधर्म निष्ठा की मिसाल आज भी कायम है और काल के अंत तक रहेगी।

आज 21 दिसंबर 1704 को बड़े साहिबज़ादे बाबा अजितसिंघ जी, बाबा जुझारसिंघ जी और छोटे साहिबज़ादे बाबा ज़ोरावरसिंघ जी और बाबा फतेहसिंघ जी ने श्री गुरुमहाराज जी के साथ मुग़लों से युद्ध करने के लिए आनंदपुर साहिब का किला छोड़ा था..

यह अमर गाथा सात दिनों तक रोज़ यहां लिखकर अपनी लेखनी को पावन करूंगा ताकि जो भूल गये उन्हें याद रहे और जो अनजान हैं उन्हें पता चले। आगे पढ़ें एक दिव्य, अलौकिक पिता श्रीगुरूमहाराज जी का महान त्याग और बड़े साहिबज़ादों  का शौर्य, साहस और बलिदान।। 

सिंघों की वीरता की अमर गाथा श्रृंखला - दूसरा दिन

बड़े साहिबज़ादों का बलिदान ~ 22 दिसंबर सन 1704

आनंदपुर से निकलते समय सरसा नदी के तट पर श्री गुरु गोविंदसिंघ जी अपने कई सिखों और परिवार से बिछड़ गए। सिर्फ 40 सिख और दोनों बड़े साहिबज़ादे बाबा अजीतसिंघ जी और बाबा जुझारसिंघ जी के साथ गुरुजी चमकौर की ओर चल दिए। उनके पहुंचने की ही देर थी और रातोंरात लाखों की मुग़ल सेना ने हमला कर दिया।

गुरु जी के अलावा किले में केवल 40 सिख और थे और सामने थी बड़ी मुगल फौज। लेकिन सिख घबराए नहीं, सर्दी के उस कोहरे में उन्होंने छोटे-छोटे गुट में किले से बाहर निकलकर मुगल फौज पर हमला करने का फैसला किया। हज़ारों सैनिकों के बीच में 5-5 सिखों का जत्था निकलता और सैंकड़ों को मारकर बलिदान हो जाता।

सिखों का बलिदान देख सबसे बड़े साहिबज़ादे बाबा अजीतसिंघ जी ने भी किले से बाहर निकलकर मुगलों का सामना करने की इच्छा व्यक्त की। श्री गुरु महाराज जी ने स्वयं अपने हाथों से उन्हें तैयार किया, शस्त्र थमाए और पांच सिखों के साथ किले से बाहर रवाना किया। कहते हैं रणभूमि में जाते ही उन्होनें मुगल फौज को थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया। अकेले हज़ारों को मारते-काटते वे अंतिम सांस तक लड़ते रहे और फिर आखिरकार वह समय आया जब उन्होंने वीरगति को अपनाया और महज़ 17 वर्ष की उम्र में बलिदान हो गए।

बड़े भाई की शहीदी की खबर सुन साहिबज़ादे बाबा जुझारसिंघ जी ने रणभूमि में जाने की इच्छा प्रकट की। गुरु जी ने स्वयं अपनी तलवार उन्हें दी और आशीर्वाद देकर गर्व से युद्धभूमि की ओर भेजा। 15 साल के साहिबज़ादे का साहस, जोश और आत्मबल देखकर बड़े-बड़े योद्धा घबराकर भागने लगे। मुगलों की एक बड़ी टुकड़ी को ढेर कर छोटी सी उम्र में बाबा जुझारसिंघ जी बलिदान हो गये।

आसमान रो रहा था लेकिन किले की छत से अपने दिल के टुकड़ों का बलिदान, शौर्य और समर्पण देख दिव्य, महान पिता दशमेश का हृदय गर्व से खिल रहा था।

वीरता और बलिदान की ऐसी दूसरी मिसाल विश्व इतिहास में कहीं नहीं मिलती। बाली उमर में स्वधर्म, स्वतंत्रता और अपने विश्वास के लिये महानतम त्याग करने वाले दोनों बड़े साहिबज़ादों को हज़ारों हज़ार प्रणाम है। जब तक दुनिया रहेगी आप साहिबज़ादों की यह पावन गाथा अमर रहेगी। इस मिट्टी और हम सब पर आपका ऋण है जो हम कभी नहीं चुका सकते...क्रमशः

धनधन बाबाअजीतसिंघजी 
धनधन बाबाजुझारसिंघजी






माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादे कैद में~23 दिसंबर सन 1704

साहिबज़ादे बाबा अजीतसिंघ जी, बाबा जुझारसिंघ जी और अन्य सिखों के बलिदान के बाद जब केवल दस सिख बचे थे तो सबने कहा, आप निकलिए गुरुजी! पंथ के लिए आपका निकलना आवश्यक है। शहीदों के बीच निकलते भाई दया सिंह जी ने कहा, गुरुजी रुकिये! साहिबज़ादों की दिव्य देह को अपनी चादर से ढक दूँ।
       
गुरुजी ने कहा, तुम्हारे पास छत्तीस चादरें हैं? अगर मेरे छत्तीस सिखों के शव पर चादर डाल सकते हो तो डाल दो, नहीं तो साहबजादे अजीतसिंघ और साहिबजादे जुझारसिंघ की देह भी अन्य सिक्खों की तरह खाली ही रहेंगी। इस मिट्टी को याद रहना चाहिए कि उसके लिए उसके बच्चों ने कैसा बलिदान दिया है।

सरसा नदी के किनारे बिछड़े परिवार में से श्री गुरुजी के छोटे सुपुत्र साहिबज़ादा जोरावरसिंघ जी और साहिबज़ादा फतेहसिंघ जी अपनी दादी मातागुजरी जी के साथ चले गए।

छोटे साहिबज़ादे जंगल पार करते हुये माता गुजरी जी के साथ गुरबाणी का पाठ करते हुए आगे बढ़ते रहे। एक धोखेबाज़ गंगू नामक खोटे सिक्के की मुखबिरी के कारण मुरिण्डे के मुग़ल कोतवाल ने माताजी के साथ दोनों साहिबज़ादों को गिरफ्तार कर कैद में ले लिया। कड़कती ठंड में हवालात में कैद माताजी ने साहिबज़ादों को गुरुनानक देवजी, गुरु तेगबहादुर जी की बहादुरी के बारे में बताया और गुरुग्रंथ साहिब जी का पाठ करके वह सो गए।

ठंडे बुर्ज़ की कैद~ 24 दिसंबर सन 1704

कैद में माताजी ने छोटे साहिबज़ादों को गुरु नानक देव जी और गुरु तेग बहादुर जी की बहादुरी के बारे में बताया और रहिरास साहब का पाठ करके वह सो गए।

अगली सुबह उन्हें जनी खान-मनी खान द्वारा बैलगाड़ी में बैठाकर सरहंद के बस्सी थाने ले जाया गया। लोगों की भीड़ भी साथ चल रही थी। माता जी और छोटे साहिबजादों को निडर देख लोग कह रहे थे 'ये वीर पिता के वीर सपूत हैं'।

सरहंद पहुंचकर पूस की कड़कड़ाती रात को माता गुजरी जी और दोनों साहिबजादों को शाही किले के ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया गया। चारों ओर से खुले तथा ऊंचाई वाली इस जगह पर बने ठंडे बुर्ज से ही माता गुजरी जी ने छोटे साहिबजादों बाबा जोरावरसिंघ जी व बाबा फतेहसिंघ जी को धर्म की रक्षा के लिए शीश ना झुकाते हुए बलिदान देने का महान पाठ पढ़ाया जिसके अनुसार दोनों छोटे साहिबजादे लगातार तीन दिनों तक नवाब की कचहरी में अनेकों धमकी व प्रलोभन के बाद भी खुशी खुशी स्वधर्म पर डटे रहे।

ठंडा बुर्ज किले का वह खुला स्थान होता है जहाँ सर्दियों की ठंडी रातों में हाड़ कंपा देने वाली ठंडी हवाएं बेहद पीड़ादायक होती है जो किसी भी व्यक्ति को कमजोर बना सकती हैं, लेकिन छोटे साहिबज़ादे 9 साल के बाबा जोरावरसिंघ जी और 7 साल के बाबा फतेहसिंघ जी अपने इरादों पर अडिग रहे। कड़कड़ाती पूस की जानलेवा ठण्ड भी पिता दशमेश के वीर पुत्र छोटे साहिबज़ादों के हौसले कमज़ोर नहीं कर पाई | 

हम सभी को स्मरण रहे कि 21 से 27 दिसंबर 1704 के बीच सात दिनों में सरबंसदानी श्री गुरु गोबिंदसिंह जी ने धर्म, राष्ट्र, समाज रक्षा के लिए अपना पूरा परिवार न्योछावर कर दिया था। समय बदला, दुनिया बदली लेकिन चार साहिबज़ादों का अद्भुत साहस, अप्रतिम बलिदान और स्वधर्म निष्ठा की मिसाल आज भी कायम है और काल के अंत तक रहेगी।

यह अमर गाथा लिखने का उद्देश्य है कि जिन्हें विस्मृति हो गई उन्हें स्मरण हो और जो अनजान हैं उन्हें पता चले। इस आलेख में आप पढ़ेंगे एक दिव्य, अलौकिक पिता श्रीगुरूमहाराज जी का महान त्याग और वीर साहिबज़ादों का शौर्य, साहस और अप्रतिम बलिदान।।

21 दिसंबर 1704 को बड़े साहिबज़ादे बाबा अजितसिंघ जी, बाबा जुझारसिंघ जी और छोटे साहिबज़ादे बाबा ज़ोरावरसिंघ जी और बाबा फतेहसिंघ जी ने श्री गुरुमहाराज जी के साथ मुग़लों से युद्ध करने के लिए आनंदपुर साहिब का किला छोड़ा था..

बड़े साहिबज़ादों का बलिदान - 22 दिसंबर सन 1704

आनंदपुर से निकलते समय सरसा नदी के तट पर श्री गुरु गोविंदसिंघ जी अपने परिवार और सिखों से बिछड़ गए। सिर्फ 40 सिख और दोनों बड़े साहिबज़ादे बाबा अजीतसिंघ जी और बाबा जुझारसिंघ जी के साथ गुरुजी चमकौर की ओर चल दिए। उनके पहुंचने की ही देर थी और रातोंरात लाखों की मुग़ल सेना ने हमला कर दिया। गुरु जी और बड़े साहिबज़ादों के अलावा किले में केवल 40 सिख और थे और सामने थी बड़ी मुगल फौज। लेकिन सिख घबराए नहीं, सर्दी के उस कोहरे में उन्होंने छोटे-छोटे गुट में किले से बाहर निकलकर मुगल फौज पर हमला करने का फैसला किया। हज़ारों सैनिकों के बीच में 5-5 सिखों का जत्था निकलता और सैंकड़ों को मारकर बलिदान हो जाता।

सिखों का बलिदान देख सबसे बड़े साहिबज़ादे बाबा अजीतसिंघ जी ने भी किले से बाहर निकलकर मुगलों का सामना करने की इच्छा व्यक्त की। श्री गुरु महाराज जी ने स्वयं अपने हाथों से उन्हें तैयार किया, शस्त्र थमाए और पांच सिखों के साथ किले से बाहर रवाना किया। कहते हैं रणभूमि में जाते ही उन्होनें मुगल फौज को थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया। अकेले हज़ारों को मारते-काटते वे अंतिम सांस तक लड़ते रहे और फिर आखिरकार वह समय आया जब उन्होंने वीरगति को अपनाया और महज़ 17 वर्ष की उम्र में बलिदान हो गए। बड़े भाई की वीरगति की खबर सुन साहिबज़ादे बाबा जुझारसिंघ जी ने रणभूमि में जाने की इच्छा प्रकट की। गुरु जी ने स्वयं अपनी तलवार उन्हें दी और आशीर्वाद देकर गर्व से युद्धभूमि की ओर भेजा। 15 साल के साहिबज़ादे का साहस, जोश और आत्मबल देखकर बड़े-बड़े योद्धा घबराकर भागने लगे। मुगलों की एक बड़ी टुकड़ी को ढेर कर छोटी सी उम्र में बाबा जुझारसिंघ जी बलिदान हो गये।

आसमान रो रहा था लेकिन किले की छत से अपने दिल के टुकड़ों का बलिदान, शौर्य और समर्पण देख दिव्य, महान पिता दशमेश का हृदय गर्व से खिल रहा था। वीरता और बलिदान का ऐसा दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में कहीं नहीं मिलता। बाली उमर में स्वधर्म, स्वतंत्रता और अपने विश्वास के लिये महानतम त्याग करने वाले दोनों बड़े साहिबज़ादों को हज़ारों हज़ार प्रणाम है। जब तक दुनिया रहेगी आप साहिबज़ादों की यह पावन गाथा अमर रहेगी। इस मिट्टी और हम सब पर आपका ऋण है जो हम कभी नहीं चुका सकते..

धनधन बाबा अजीतसिंघजी
धनधन बाबा जुझारसिंघजी  

माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादे कैद में - 23 दिसंबर सन 1704

साहिबज़ादे बाबा अजीतसिंघ जी, बाबा जुझारसिंघ जी और अन्य सिखों के बलिदान के बाद जब केवल दस सिख बचे थे तो सबने कहा, आप निकलिए गुरुजी! पंथ के लिए आपका निकलना आवश्यक है। बलिदानियों के बीच निकलते भाई दया सिंह जी ने कहा, गुरुजी रुकिये! साहिबज़ादों की दिव्य देह को अपनी चादर से ढक दूँ। गुरुजी ने कहा, तुम्हारे पास छत्तीस चादरें हैं? अगर मेरे छत्तीस सिखों के शव पर चादर डाल सकते हो तो डाल दो, नहीं तो साहबजादे अजीतसिंघ और जुझारसिंघ की देह भी अन्य सिक्खों की तरह खाली ही रहेगी। इस मिट्टी को याद रहना चाहिए कि उसके लिए उसके बच्चों ने कैसा बलिदान दिया है।

सरसा नदी के किनारे बिछड़े परिवार में से श्री गुरुजी के छोटे सुपुत्र साहिबज़ादा जोरावरसिंघ जी और साहिबज़ादा फतेहसिंघ जी अपनी दादी मातागुजरी जी के साथ चले गए। छोटे साहिबज़ादे जंगल पार करते हुये माता गुजरी जी के साथ गुरबाणी का पाठ करते हुए आगे बढ़ते रहे। एक धोखेबाज़ गंगू नामक खोटे सिक्के की मुखबिरी के कारण मुरिण्डे के मुग़ल कोतवाल ने माताजी के साथ दोनों साहिबज़ादों को गिरफ्तार कर कैद में ले लिया। कड़कड़ाती ठंड में हवालात में कैद माताजी ने साहिबज़ादों को गुरुनानक देवजी, गुरु तेगबहादुर जी की बहादुरी के बारे में बताया और गुरुग्रंथ साहिब जी का पाठ करके वह सो गए।

 ठंडे बुर्ज़ की कैद - 24 दिसंबर सन 1704

अगली सुबह उन्हें जनी खान-मनी खान द्वारा बैलगाड़ी में बैठाकर सरहंद के बस्सी थाने ले जाया गया। लोगों की भीड़ भी साथ चल रही थी। माता जी और छोटे साहिबजादों को निडर देख लोग कह रहे थे 'ये वीर पिता के वीर सपूत हैं'। सरहिंद पहुंचकर पूस की कड़कड़ाती रात को माता गुजरी जी और दोनों साहिबजादों को शाही किले के ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया गया। चारों ओर से खुले तथा ऊंचाई वाली इस जगह पर बने ठंडे बुर्ज से ही माता गुजरी जी ने छोटे साहिबजादों बाबा जोरावरसिंघ जी व बाबा फतेहसिंघ जी को धर्म की रक्षा के लिए शीश ना झुकाते हुए बलिदान देने का महान पाठ पढ़ाया जिसके अनुसार दोनों छोटे साहिबजादे लगातार तीन दिनों तक नवाब की कचहरी में अनेकों धमकी व प्रलोभन के बाद भी खुशी खुशी स्वधर्म पर डटे रहे।

ठंडा बुर्ज किले का वह खुला स्थान होता है जहाँ सर्दियों की ठंडी रातों में हाड़ कंपा देने वाली ठंडी हवाएं बेहद पीड़ादायक होती है जो किसी भी व्यक्ति को कमजोर बना सकती हैं, लेकिन छोटे साहिबज़ादे 9 साल के बाबा जोरावरसिंघ जी और 7 साल के बाबा फतेहसिंघ जी अपने इरादों पर अडिग रहे। कड़कड़ाती पूस की जानलेवा ठण्ड भी पिता दशमेश के वीर पुत्र छोटे साहिबज़ादों के हौसले कमज़ोर नहीं कर पाई | 




छोटे साहिबज़ादों की स्वधर्म निष्ठा और बाबा मोती मेहरा जी का बलिदान - 25 दिसंबर 1704

रात भर ठंड में ठिठुरने के बाद सुबह होते ही दोनों साहिबज़ादों को वजीर खां के सामने पेश किया गया, जहां भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा गया। कहते हैं सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों साहिबज़ादों ने ज़ोर से जयकारा लगाया "वाहेगुरुजी दा खालसा, वाहेगुरुजी दी फतेह"..

यह देख सब दंग रह गए, वजीर खां की मौजूदगी में कोई ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता लेकिन गुरु जी के नन्हे वीर बालक ऐसा करते समय एक पल के लिए भी नहीं डरे। सभा में मौजूद मुलाजिम ने साहिबज़ादों को वजीर खां के सामने सिर झुकाकर सलामी देने को कहा, लेकिन इस पर उन्होंने जो जवाब दिया वह सुनकर सबने चुप्पी साध ली। दोनों ने सिर ऊंचा करके जवाब दिया कि ‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा के महान त्याग और बलिदान को बर्बाद नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर शीश कटवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं।

वजीर खां ने दोनों साहिबजादों को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम कबूल करने के लिए राज़ी करना चाहा, लेकिन दोनों अपने निर्णय पर अटल थे। श्री गुरु महाराज के नन्हे वीर सपूतों ने स्वधर्म रक्षा के लिए मृत्यु चुनना पसंद किया। आखिर में दोनों साहिबज़ादों को जिंदा दीवारों में चुनवाने का ऐलान किया गया। फतवा सुनाकर साहिबज़ादों को वापस ठंडा बुर्ज भेज दिया गया, जहां उन्होंने दादी माता गुजरी जी को कचहरी में हुई सारी बात सुनाई। सरहिंद के निवासी बाबा मोती मेहरा जी ने पहरेदारों को रिश्वत देकर माताजी और साहिबज़ादों को ठंडे बुर्ज में जाकर गर्म दूध पहुंचाया, बाद में यह बात उजागर होने पर वज़ीर खान के सिपाहियों द्वारा बाबा मोती मेहरा को ज़िंदा कोल्हू में पीस दिया गया था। 

छोटे साहिबज़ादों और माता गुजरी जी का बलिदान - 26 दिसंबर 1704

सरहिंद के नवाब वज़ीर खान ने काजी को हुक्म दिया कि बच्चों को दीवार में चिनवाने के लिए जल्लाद का इंतजाम किया जाए। अगले दिन साहिबजादों को दोबारा कचहरी लाया गया और फिर से धर्म बदलकर मुसलमान बनने को कहा गया, लेकिन वह अपने इरादों पर अटल रहे। जब 26 दिसम्बर 1704 में छोटे साहिबजादों को दीवारों में चिनवाया जाने लगा। जब दीवार श्री गुरू महाराज के लाडलों के घुटनों तक पहुंची तो घुटनों की चपनियों को तेसी से काट दिया गया ताकि दीवार टेढी न हो जाये। जल्लादों ने पूरी दीवार बना दी। साहिबजादे बाबा जोरावरसिंघ जी और साहिबजादे बाबा फ़तेहसिंघ जी ने धर्मरक्षा के लिये इतनी कम आयु में सर्वोच्च बलिदान को स्वीकार किया। छोटे साहिबजादों के बलिदान की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने अरदास कर अपने प्राण त्याग दिए। धार्मिक स्वतंत्रता का दमन और अत्याचार की ऐसी पराकाष्ठा कहीं देखने को नहीं मिलती। बाबा जोरावरसिंघ जी, बाबा फतेहसिंघ जी का यह बलिदान विश्व इतिहास में अद्वितीय है, जब तक यह दुनिया है यह बलिदानी गाथा अमर रहेगी।

पहले भय और अब लालच में अपना धर्म छोड़ रहे लोग आज भूल गए कि कैसे वीरों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर धर्म बचाया है। इस देश, धर्म, धरा पर हम सब पर छोटे साहिबज़ादे बाबा जोरावरसिंघ जी, बाबा फतेहसिंघ जी, का अनगिनत ऋण है। 2022 में भारत सरकार द्वारा छोटे साहिबज़ादों के बलिदान दिवस 26 दिसंबर को "वीर बाल दिवस" के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया है।

धन धन बाबा जोरावरसिंघ जी
धन धन बाबा फतेहसिंघ जी

दीवान टोडरमल जी द्वारा माताजी और साहिबज़ादों का अंतिम संस्कार - 27 दिसंबर 1704

वज़ीर खान ने छोटे साहिबजादों को बेरहमी से जिंदा दीवार में चिनवाने के बाद उनकी दिव्य देह और माता गुजरी जी के पार्थिव शरीर को किले के पीछे जंगल में रखवा दिया। इसी क्षेत्र के धनी व्यक्ति तथा मुगल दरबार के मुलाज़िम दीवान टोडरमल जी जैन जो गुरु गोविंद सिंघ जी एवं उनके परिवार के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार थे, उन्होंने वज़ीर खान से साहिबज़ादों के दिव्य पार्थिव शरीर की माँग करते हुये उनकी अंत्येष्टि करने की इच्छा प्रकट की। वज़ीर खान ने धृष्टता दिखाते हुए भूमि देने के लिए एक अटपटी और अनुचित माँग रखी। उस ज़ालिम ने कहा कि इस ज़मीन पर सोने के सिक्के बिछाने पर जितनी मोहरें आएँगी वही इस भूमि का दाम होगा। दीवान टोडर मल जी ने अपने सारे भंडार ख़ाली करके जब मोहरें भूमि पर बिछानी शुरू कीं तो वज़ीर खान ने नीचता की हद पार करते हुए कहा कि मोहरें बिछा कर नहीं बल्कि खड़ी करके रखी जाएँगी। दीवान टोडर मल जी ने अपना सब कुछ बेच कर और मोहरें इकट्ठी की तथा 78000 सोने की मोहरें  देकर चार गज़ भूमि को ख़रीदा ताकि गुरु जी की माताजी और साहिबज़ादों का अंतिम संस्कार वहाँ किया जा सके। बाबा मोती मेहरा जी और दीवान टोडरमल जैन जी के निस्वार्थ त्याग और भक्ति की ऐसी मिसाल कोई और नहीं है।

जहाँ छोटे साहिबज़ादों का बलिदान हुआ आज गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब है और जहाँ उनका और माताजी का अंतिम संस्कार हुआ उस जगह गुरुद्वारा ज्योतिस्वरूप विद्यमान है जिसके बेसमेंट हाल का नाम स्मृतिस्वरूप दीवान टोडरमल जैन हॉल रखा गया है।

सरबंसदानी दशमेश पिता गुरुगोविंद सिंघ जी के सिंह शावकों ने अल्पायु में ही ऐसा बलिदान दिया जिसकी कोई मिसाल इस दुनिया में न है न कभी होगी। माता गुजरी जी का त्याग अप्रतिम है जिन्होंने अपने नन्हे पोतों को धर्म और स्वत्व रक्षा के लिये बलिदान का पाठ पढ़ाया। 

मन के अतीव श्रद्धाभाव से इस अतुलनीय बलिदान की गाथा आप सभी तक पहुंचे इस उद्देश्य से यह महान गाथा लिखकर मेरी लेखनी धन्य हुई, मैं कृतार्थ हुआ। युगों युगों तक जिनकी कीर्ति अमर रहेगी ऐसे सरबंसदानी पिता दशमेश के चारों वीर सहिबज़ादों को सारी सृष्टि नमन करती है। 
    
धनधन बाबा अजीतसिंघ जी
धनधन बाबा जुझारसिंघ जी
धनधन बाबा फतेहसिंघ जी
धनधन बाबा जोरावरसिंघ जी



लेखक - अभिषेक तिवारी
 
 
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