इंदौर की बेबस तलाकशुदा शाहबानो 1980 के दशक में भारत में मुस्लिम औरतों की बेबसी के प्रतीक के रूप में सामने आई थीं। उसके बाद के कालखंड में जब भी ऐसा लगने लगता है कि देश उन्हें भूलने लगा है, फिर से किसी न किसी रूप में शाहबानो प्रकरण की चर्चा शुरू हो जाती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में संसद में संविधान के 75 साल पूरा होने पर हुई चर्चा के दौरान शाहबानो प्रकरण का जिक्र करते हुए कहा कि 'सुप्रीम कोर्ट से शाहबानो को हक़ मिला था, राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट की उस भावना को नकार दिया। वोटबैंक की राजनीति की ख़ातिर संविधान की भावना की बलि चढ़ा दी।' यह सच है कि इंसाफ के लिए तड़प रही एक महिला की बजाय राजीव गांधी ने इस्लामिक कट्टरपंथियों का खुलकर साथ दिया था। संसद में अपनी बहुमत के बल पर आनन-फानन में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फै़सले को एक बार फिर पलट दिया गया था।
दरअसल, शाहबानो केस भारत की राजनीतिक और कानूनी प्रणाली में महत्वपूर्ण मोड़ था। यह मामला 1985 में सामने आया था और इसने देश में एक बड़ी बहस छेड़ दी थी। शाहबानो इंदौर की मुस्लिम महिला थीं, जिन्हें उनके पति ने तलाक दे दिया था। उन्होंने गुजारा भत्ता (भरण-पोषण) की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया। निचली अदालतों ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया। लेकिन उनके पति ने इस फैसले को मानने की बजाय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे डाली। सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। अदालत ने यह भी कहा कि यह कानून सभी धर्मों के लोगों पर लागू होता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने देश में राजनीतिक भूचाल-सा ला दिया। मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों ने इस फैसले का विरोध किया और इसे अपने धार्मिक कानूनों में हस्तक्षेप माना। उन्होंने सरकार पर मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव का आरोप लगाया। वे किसी भी रूप में शाहबानो के हक में खड़े होने को तैयार नहीं थे। शाहबानो एक बुजुर्ग महिला थीं, उनका साथ देने के लिए कोई भी मुस्लिम संगठन खड़ा नहीं हुआ। सबने उसे अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया था।
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने इस मामले में अत्यंत ही विवादास्पद कदम उठाया। उन्होंने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया। इस अधिनियम ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया और तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी उसके पति के बजाय उनके परिवार या वक्फ बोर्ड पर डाल दी। वक्फ बोर्ड ने किसकी किसकी कब मदद की, यह बात न राजीव गांधी को पता थी और न उनके करीबियों को। राजीव गांधी सरकार के फैसले की व्यापक आलोचना हुई। कई लोगों ने इसे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण और लैंगिक न्याय के खिलाफ माना। जो सच भी था। इस मामले ने भारतीय राजनीति में धार्मिक और लैंगिक मुद्दों को केंद्र में ला दिया।
शाहबानो केस ने धार्मिक आधार पर भारतीय समाज को ध्रुवीकृत कर दिया। इसने भारत में महिला अधिकारों और लैंगिक न्याय पर नई बहस छेड़ दी। शाहबानो केस ने राजनीतिक दलों की भूमिका और अल्पसंख्यकों के प्रति उनके दृष्टिकोण को उजागर किया। देश के आम अवाम को समझ आ गया कि कांग्रेस मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए किसी भी हद तक समझौता कर सकती है।
शाहबानो केस भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण घटना बनी हुई है, जो आज भी प्रासंगिक है। यह मामला बताता है कि कैसे धार्मिक और राजनीतिक मुद्दे सामाजिक न्याय और समानता को प्रभावित कर सकते हैं। शाहबानो केस में मुस्लिम संगठनों का असली चेहरा सामने आ गया। वे तलाकशुदा मुस्लिम महिला को अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता पाने का हकदार नहीं मानते थे। उनका तर्क था कि यह फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप करता है। इसके बाद ही, राजीव गांधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था।
कांग्रेस ने इस मामले में मुस्लिम समुदाय को खुश करने के लिए तुष्टिकरण की नीति अपनाई। इसके चलते कांग्रेस को देश ने नकारना शुरू कर दिया। शाहबानो केस में कांग्रेस के स्टैंड से सख्त नाराज होकर वरिष्ठ कांग्रेस नेता और केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने पार्टी छोड़ी थी। आरिफ साहब की पहचान मुस्लिम और हिंदू धर्मग्रंथों के विद्वान एवं स्वतंत्र विचारों वाले व्यक्ति के रूप में रही है। वे उदार और बुद्धिजीवी व्यक्ति हैं। आरिफ मोहम्मद खान राजीव गांधी की कैबिनेट में होने के बावजूद शाहबानो मामले में उनसे भिड़ गए थे और मंत्रिपद से इस्तीफा देकर विरोध में खड़े हो गए थे।
राजीव गांधी के तुष्टिकरण भरे फैसले ने शाहबानो को झकझोर कर रख दिया। सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को पलट कर जिसमें तलाकशुदा शाहबानो को गुजारा भत्ता दिए जाने का निर्देश दिया गया था, इसके लिए उन्हें नया कानून बनाना पड़ा। उद्देश्य था- कट्टरपंथी मौलवियों को खुश करना। अर्थ था- संविधान के ऊपर शरीयत की वरीयता। ऐसे में बोलना तो पड़ेगा, विशेषकर कांग्रेस को और उससे भी ज़्यादा राहुल गांधी को, जो हर मौके पर हाथ में संविधान की प्रति लेकर खतरा-खतरा चिल्लाते रहते हैं। उन्हें फैसला करना पड़ेगा कि वे संविधान के पक्ष में हैं या शरीयत के? मुल्ला मुस्लिम पर्सनल लॉ के या तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के गुजारा भत्ते के? बड़ी मुश्किल डगर है- एक तरफ कुआं, दूसरी तरफ खाई, किधर जाएगी कांग्रेस ? सच यह है कि वक्त आने पर मुस्लिम महिलाओं के हक में तीस्ता सीतलवाड़ से लेकर वे तमाम लेखक और कैंडल मार्च निकालने वाले बुद्धिजीवी भी नदाराद रहते हैं, जो बात-बात पर मुसलमान औरतें के हक में सोशल मीडिया पर लिखते-बोलते रहते हैं।
दूसरी तरफ, भाजपा को हर वक्त बुरा-भला कहने वाले यह जान लें कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने ही अपने कार्यकाल में अभी तक मुस्लिम औरतों के हक में तमाम बड़ी योजनाएं लागू की हैं। मोदी सरकार की ही पहल पर मुस्लिम औरतों को तीन तलाक से मुक्ति मिली। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया। इसने मुस्लिम औरतों को तीन तलाक की बर्बर कुप्रथा से मुक्ति दिलाई। हालांकि, कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन ट्रिपल तलाक जारी रखने की पुरजोर वकालत कर रहे थे। यह वही लोग थे, जिन्होंने शाहबानो की लड़ाई का विरोध किया था।
लेखक:- डॉ. आर.के. सिन्हा