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सावित्री बाई इस महामारी से पीड़ितों को चिकित्सालय में लेकर आतीं, जहाँ उनका बेटा उन रोगियों का इलाज करता था। रोगियों की सेवा करते हुए वह वह स्वयं भी इस महामारी की चपेट में आ गयीं। 10 मार्च 1897 को सावित्री बाई का निधन हो गया।
उनका पूरा जीवन समाज के वंचित वर्ग विशेषकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता।
उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने- लिखने की प्रेरणा देकर जाति बंधन तोड़ने और रुढ़िवादी ग्रंथों को फेंकने की बात करती थीं। उनकी शिक्षा पर लिखी मराठी कविता का हिंदी अनुवाद पढ़ें
"जाओ जाकर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती
काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो
ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं
इसलिए, खाली ना बैठो,जाओ, जाकर शिक्षा लो
दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो, तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है
इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो "
सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा ने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी। उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा भी शुरू की और इस संस्था के द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर 1873 को कराया गया। 28 नवंबर 1890 को बीमारी के चलते ज्योतिबा की मृत्यु हो गई थी।
ज्योतिबा के निधन के बाद सत्यशोधक समाज का उत्तरदायित्व सावित्रीबाई फुले पर आ गया। उन्होंने जिम्मेदारी से इसका संचालन किया। सावित्रीबाई एक निपुण कवयित्री भी थीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत भी माना जाता है। वे अपनी कविताओं और लेखों में सदैव सामाजिक चेतना की बात करती थीं।
आधुनिक भारत में 19वीं शताब्दी में सावित्री बाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षक के रूप में स्वीकार की जाती हैं। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समाज के वंचित वर्ग विशेषकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में एवं पीड़ितों की सेवा लिए अर्पित कर दिया। एतदर्थ सावित्रीबाई फुले सदैव अविस्मरणीय रहेंगी।
लेखक:- डॉ. आनंद सिंह राणा