दक्षिण भारत के प्रसिद्ध संत स्वामी वादिराज जी के अनेक शिष्य थे, किन्तु स्वामी जी अपने अन्त्यज शिष्य कनकदास पर अधिक स्नेह रखते थे | उच्च वर्ण के शिष्यों को यह बात खटकती थी | शिष्यों के हृदय में यह बात बैठती नहीं थी कि कनकदास स्वामी जी का सच्चा भक्त है | स्वामी जी वादिराज ने एक दिन अपने सब शिष्यों को एक – एक केला देकर कहा –“ आज एकादशी है | लोगों के सामने फल खाने से भी आदर्श के प्रति समाज में अश्रद्धा बढती है | इसलिए जहाँ कोई न देखे , ऐसे स्थान पर जाकर इसे खा लो|”
थोड़ी देर में सब शिष्य केले खाकर गुरूजी के समीप आ गये | केवल कनकदास के हाथ में केला ज्यों का त्यों रखा था | गुरु जी ने पूछा –“ क्या कनकदास ! तुम्हे कहीं एकांत स्थान नही मिला|”
कनकदास ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया –“ भगवन् ! प्रभू तो सर्व व्यापक है फिर एकांत कहीं कैसे मिलेगा ?” गुरुजी ने तिरछी नजर से अन्य शिष्यों को देखा , वे लज्जित अनुभव कर रहे थे | इसके बाद शिष्यों ने उससे ईर्ष्या करना छोड़ दिया |