श्रुत्वा धर्म विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम |
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात ||
आचार्य चाणक्य यहां सुनकर ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सुनकर ही मनुष्य को अपने धर्म का ज्ञान होता है, सुनकर ही वह दुर्बुद्धि का त्याग करता है | सुनकर ही उसे ज्ञान प्राप्त होता है और सुनकर ही मोक्ष मिलता है |
अभिप्राय यह है कि अपने पूज्य लोगों या महापुरुषों के मुंह से सुनकर ही मनुष्य को अपने धर्म, अर्थात् कर्तव्य का ज्ञान होता है, जिससे वह पतन के मार्ग पर ले जानेवाले कार्य को त्याग देता है | सुनकर ही ज्ञान तथा मोक्ष भी मिलता है | अत: स्पष्ट है कि बात को पढ़कर समझने की अपेक्षा उसे किसी ज्ञानी गुरु के मुख से सुनकर अधिक ग्राह्य माना जाता है | ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने श्रवण मात्र से बहुत कुछ जाना | अत: मनुष्य का कर्तव्य है यदि वह स्वयं शास्त्र न पढ़ सके तो धर्मोपदेश को सुनकर ग्रहण करे तो भी उसे पूरा लाभ मिलेगा |