गुरुदत्त जी का जन्म 1892 में आजाद भारत के लाहौर में हुआ था। दत्त जी ,स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनन्य भक्त थे और आर्य समाज में पले-बढ़े लेखक-साहित्यकार थे। एमएससी किए विज्ञान के विद्यार्थी और पेशे से वैद्य होने के बावजूद गुरुदत्त जी अपने पहले उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे । विज्ञान की पृष्ठभूमि पर वेद, उपनिषद्, दर्शन इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया तो उनको ज्ञान का अथाह सागर देख उसी में रम गये। वेद, उपनिषद् तथा दर्शन शास्त्रों की विवेचना एवं अध्ययन अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत करना गुरुदत्त जी की ही विशेषता है। उपन्यासों में भी शास्त्रों का निचोड़ तो मिलता ही है, रोचकता के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त है कि उनका कोई भी उपन्यास पढ़ना आरम्भ करने पर समाप्त किये बिना छोड़ा नहीं जा सकता।
स्वाधीनता के पथ पर’ से आरम्भ हुआ उनका उपन्यास-जगत् का सफर लगभग दो सौ उपन्यासों के बाद तीन खण्डों में ‘अस्ताचल की ओर’ पर समाप्त होने से पूर्व सिद्ध कर दिया गया कि वैद्य गुरुदत्त उपन्यास-जगत् के बेताज बादशाह माने जाते थे । इन रचनाओं के माध्यम से उन्होंने वेद-ज्ञान को जन-जन तक पहुंचने की इस प्रयास को लोगों ने काफी सराहना भी किया ।उनके सभी उपन्यासों का उद्देश्य केवल मनोरंजन ही नहीं बल्कि जन-शिक्षा के लिए भी लोगो को जागरूक करना भी रहा उनकी यह दृढ़ धारणा थी कि आदिकाल से भारतवर्ष में निवास करने वाला आर्य-हिन्दू समाज ही देश की वैभव और समृद्धि के लिए समर्पित हो क्योंकि उनका ही इस देश की धरती से मातृवत् सम्बन्ध है। उनके विचार थे कि शाश्वत धर्म के रूप में यदि किसी को मान्यता मिलनी चाहिए तो वह एकमात्र ‘वैदिक धर्म ही हो सकता है।
राष्ट्रसंघ के साहित्य-संस्कृति संगठन ‘यूनेस्कोके अनुसार गुरुदत्त जी हिन्दी भाषा के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखक थे। लेकिन दुख इस बात का है कि इतना विपुल साहित्य रचने के बाद भी गुरुदत्त जी को न तो कोई साहित्यिक व राजनीतिक अलंकरण मिला, न ही उनके साहित्य को विचार-मंथन करने योग्य समझा गया। ऐसे व्यक्तित्व के धनी गुरुदत्त जी का 8 अप्रैल वर्ष 1989 को निधन हो गया। सम्पूर्ण हिंदी साहित्य में दिए उनके योगदान को हिंदी-संसार हमेशा याद करेगा।