अधिक मास पूर्णिमा के दिन दान-पुण्य और नदी में नहाने का विधान है। इस दिन श्री लक्ष्मी नारायण की पूजा भी की जाती है। साथ ही कई लोग पूर्णिमा के दिन या एक दिन पहले श्रीसत्यनारायण व्रत भी करते हैं। अधिक मास पूर्णिमा का महत्व बहुत अधिक है।
हिंदु धर्म ग्रंथों में पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) की पूर्णिमा के दिन पवित्र नदी या तीर्थ स्थानों पर स्नान और दान का बहुत महत्व बताया गया हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन किये हुये दान का पुण्यु कई गुणा बढ़ जाता हैं। इस दिन जरूरतमंदों को दिये गये दान से अर्जित पुण्य अक्षुण रहता हैं। उसका कभी क्षय नही होता। इस दिन स्नान, दान, जप और तप करने से मनुष्य के जीवन के समस्त कष्टों का नाश हो जाता हैं। उसे संसार के सभी सुखों की प्राप्ति होती हैं। और मृत्यु के उपरांत उत्तम लोक को चला जाता हैं।
लक्ष्मी नारायण की पूजा के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये और उन्हे यथासम्भव दान-दक्षिणा देकर संतुष्ट करना चाहिये। इस दिन निर्धन को दान करना भी विशेष पुण्य दायक कर्म हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन ब्राह्मण को दान देने से जातक को मरणोपरांत ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती हैं।
इस दिन पितरों के निमित्त आप जो भी दान देते है, वो उनको वो जिस भी लोक और योनि में हो, वहाँ उन्हे प्राप्त होता हैं। इससे उन्हे संतुष्टि होती है और वो प्रसन्न होते हैं। इसलिये इस दिन पितरों के निमित्त किये दान से जातक को पितरों का और अन्य देवी-देवताओं का आशीर्वाद मिलता हैं।
क्या है अधिकमास का पौराणिक आधार
अधिकमास से जुड़ी पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने कठोर तप से ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अमरता का वरदान मांगा. लेकिन अमरता का वरदान देना निषिद्ध है इसीलिए ब्रह्मा जी ने उसे कोई और वरदान मांगने को कहा.
तब हिरण्यकश्यप ने ब्रह्मा जी से कहा कि, आप ऐसा वरदान दे दें, जिससे संसार का कोई नर, नारी, पशु, देवता या असुर उसे मार ना सके और उसे वर्ष के सभी 12 महीनों में भी मृत्यु प्राप्त ना हो. उसकी मृत्यु ना दिन का समय हो और ना रात को. वह ना ही किसी अस्त्र से मरे और ना किसी शस्त्र से. उसे ना घर में मारा जाए और ना ही घर से बाहर. ब्रह्मा जी ने उसे ऐसा ही वरदान दे दिया.
लेकिन इस वरदान के मिलते ही हिरण्यकश्यप स्वयं को अमर और भगवान के समान मानने लगा. तब भगवान विष्णु अधिकमास में नरसिंह अवतार (आधा पुरुष और आधे शेर) के रूप में प्रकट हुए और शाम के समय देहरी के नीचे अपने नाखूनों से हिरण्यकश्यप का सीना चीन कर उसे मृत्यु के द्वार भेज दिया.
पूजन की विधि
1. अधिक मास की पूर्णिमा का व्रत स्त्री – पुरूष दोनों ही कर सकते हैं।
2. इस दिन व्रत करने वाले को प्रात: काल सूर्योदय से पूर्व ही उठकर घर की साफ-सफाई करके स्वयं स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहियें। यदि सम्भव हो तो बिना सिला पीले रंग का वस्त्र धारण करें।
3. फिर उगते हुये सूर्य को जल चढ़ायें।
4. अगर शुभ मुहुर्त हो तो यह पूजा दोपहर से पहले के मुहुर्त में करना श्रेष्ठ माना जाता हैं।
5. पूजास्थान पर स्वच्छ करके एक चौकी स्थापित करें। उस पर कोरा (नया / बिना इस्तेमाल किया) लाल और पीला वस्त्र बिछायें। कपड़ा बिछाते समय इस बात का ध्यान रखें कि पीला वस्त्र चौकी के दाहिने तरफ बिछा हों और लाल वस्त्र बायीं तरफ बिछा हो।
6. स्वयं पूर्व की ओर मुख कर के पूजास्थान पर रखी चौकी के सामने बैठ जायें।
7. फिर लाल कपड़े पर माँ लक्ष्मी की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें और पीले वस्त्र पर भगवान विष्णु की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें। यदि आपके पास दोनों की अलग-अलग प्रतिमा या तस्वीर ना होकर दोनों की एक ही प्रतिमा या तस्वीर हो तो आप उसे दोनों कपड़ों के मध्य में स्थापित कर सकते हैं।
8. फिर लक्ष्मीनारायण के समक्ष हाथ में पुष्प, अक्षत, सुपारी और जल लेकर व्रत का संकल्प करें। और जो भी आपकी मनोकामना हो उसका विचार करके उसे पूरी करने के लिये ईश्वर से निवेदन करें।