बात उस वक्त की है जब देश में अंग्रेजों का शासन था। एक भारतीय शख्स किसी जरूरी काम से एक अंग्रेज ऑफिसर से मिलने जाता है। वह भारतीय कोई आम इंसान नहीं था, बल्कि वह संस्कृत कॉलेज का प्रधानाध्यापक था। जब प्रिंसिपल महोदय उस अंग्रेज अफसर के कमरे में दाखिल होते हैं तो देखते हैं कि वह अंग्रेज जूता पहने हुए मेज पर पैर पसार कर बैठा था। किसी आगंतुक को आया देखकर भी उस अंग्रेज ने अपने पैर को मेज के ऊपर से हटाना मुनासिब नहीं समझा। उस भारतीय ने अपनी जरूरी बात समाप्त की और लौट आया। कुछ दिनों बाद संयोग ऐसा होता है कि उस अंग्रेज ऑफिसर को भारतीय प्रधानाध्यापक महोदय से कोई ज़रूरत पड़ती है और वह संस्कृत कॉलेज उनसे मिलने पहुंच गया। उस अंग्रेज को देखकर प्रिंसिपल महोदय ने चप्पल पहने हुए अपने पैर को उठाकर मेज पर रख लिया और अंग्रेज ऑफिसर की तरफ देखा भी नहीं। प्रिंसिपल के इस रवैया से अंग्रेज ऑफिसर अपने आप को बेइज्जत महसूस करने लगा और वहां से गुस्से में चला गया। उसने इसकी शिकायत अपने वरिष्ठ अधिकारी से कर दी। वरिष्ठ अधिकारियों ने जब प्रिंसिपल से इस बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि कुछ दिन पहले मैं जब उनसे मिलने गया था तो ये भी इसी तरह से बैठे थे। तो मैंने समझा कि शायद यह अंग्रेजी शिष्टाचार का एक हिस्सा है। इसीलिए मैंने भी उनका आवभगत इसी तरह से किया। इस घटना पर वह अंग्रेज आफिसर बहुत शर्मिंदा हुआ और प्रिंसिपल से माफी मांगी। जैसे को तैसा जवाब देने वाला यह शख्स और कोई नहीं बल्कि महान समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर थे।
समाज सुधार
ईश्वर चंद विद्या सागर जी ने अपने आदर्शों को नियमित लेखों के माध्यम से प्रसारित किया जो उन्होंने पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के लिए लिखे थे। वह ‘तत्त्वबोधिनी पत्रिका ’, ‘ सोमप्रकाश’, ’सर्बशुभंकरी पत्रिका’ और ‘हिंदू पैट्रियट ’जैसे प्रतिष्ठित पत्रकार प्रकाशनों से जुड़े थे। उन्होंने कई किताबें लिखीं जो बंगाली संस्कृति में प्राथमिक महत्व रखती हैं।
उन्होंने पूरे बंगाल में महिलाओं के लिए 35 स्कूल खोले और 1300 छात्रों के नामांकन में सफल रहे। यहां तक कि उन्होंने नारी शिक्षा भंडार की शुरुआत की, जो नारी शिक्षा के लिए सहायता देने के लिए एक कोष था। उन्होंने 7 मई, 1849 को बेथ्यून स्कूल, भारत में पहले स्थायी कन्या विद्यालय की स्थापना की। जिसके लिए जॉन इलियट ड्रिंकवाटर बेथ्यून को अपना समर्थन दिया था ।
विद्यासागर को आधुनिक बंगाली भाषा का जनक भी कहा जाता है। बंगाली की कई वर्णमालाओं में उन्होंने संशोधन किया। उनकी बंगाली पुस्तक ‘बोर्नो पोरिचोय’ को आज भी बंगाली अक्षर सीखने के लिये एक महत्वपूर्ण किताब मानी जाती है।
अपने समाज सुधार योगदान के अंतर्गत ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने देशी भाषा और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूलों की एक श्रृंखला के साथ ही कलकत्ता में 'मेट्रोपॉलिटन कॉलेज' की स्थापना भी की। उन्होंने इन स्कूलों को चलाने में आने वाले खर्च का बीड़ा उठाया और अपनी बंगाली में लिखी गई किताबों, जिन्हें विशेष रूप से स्कूली बच्चों के लिए ही लिखा गया था, की बिक्री से फंड अर्जित किया। ये किताबें हमेशा बच्चों के लिए महत्त्वपूर्ण रहीं, जो शताब्दी या उससे भी अधिक समय तक पढ़ी जाती रहीं। जब विद्यासागर जी कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज के प्रधानाचार्य बनाये गए, तब उन्होंने कॉलेज सभी जाति के छात्रों के लिए खोल दिया। ये उनके अनवरत प्रचार का ही नतीजा था कि 'विधवा पुनर्विवाह क़ानून-1856' आखिरकार पारित हो सका। उन्होंने इसे अपने जीवन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना था। विद्यासागर जी ने अपने इकलौते पुत्र का विवाह भी एक विधवा से ही किया। उन्होंने 'बहुपत्नी प्रथा' और 'बाल विवाह' के ख़िलाफ़ भी संघर्ष किया ।
"मनुष्य कितना भी बड़ा क्यों ना बन जाए , उसे हमेशा अपने अतीत को याद करते रहना चाहिए " - ईश्वर चंद विद्या सागर जी