सारे विश्व ने भारत से सीखा परोपकार
Date : 26-Oct-2024
रतन टाटा के निधन के पश्चात उनके परोपकारी कामों की विस्तार से चर्चा हो रही है। वैसे, जरा गौर करें तो न केवल टाटा समूह बल्कि भारत के हरेक छोटे-बड़े लाखों कारोबारी या उद्योगपति अपने स्तर पर कुछ न कुछ परोपकार से जुड़े कामों में लगे मिल जायेंगे। यह कहना सरासर गलत होगा कि परोपकार की भावना हमने यूरोप से सीखी है। यह कुछ नासमझ अज्ञानियों का प्रचार भर है। भारत में परोपकार की परंपरा प्राचीनकाल से ही गहरी जड़ें जमाए हुए है। हम “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया“ में विश्वास करने वाले हैं। अभी भी आपको “पहली रोटी गौ माता को“ में विश्वास करने वाले लाखों लोग मिल जायेंगे। धर्म, संस्कृति और समाज के हरेक पहलू में दान, सेवा और परोपकार का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।
वेद और उपनिषद् जैसे ग्रंथों में परोपकार को "दान" और "सेवा" के रूप में वर्णित किया गया है। हिन्दू धर्म में दान और सेवा का बहुत महत्व है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास: इन चार आश्रमों में से वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में परोपकार को ही जीवन का मुख्य लक्ष्य माना गया है। जैन धर्म में "दान" को "अहिंसा" के सिद्धांत के साथ जोड़ा गया है।
भारत भूमि की देन बौद्ध धर्म में भी "दान" का खासा महत्व है जो सभी प्राणियों के कल्याण के लिए होता है। भगवान बुद्ध ने अपने जीवनकाल में दान, सेवा और अहिंसा का मार्ग दिखाया। गांधीजी ने "सर्वोदय" के सिद्धांत पर बल दिया और ग्रामीणों की सेवा और विकास के लिए जीवनभर काम किया। मदर टेरेसा ने भी गरीबों, बीमारों और जरूरतमंदों की सेवा करके मानवता की सेवा की।
रतन टाटा की तरह बिड़ला समूह, अजीम प्रेमजी, नंदन नीलकेणी, शिव नाडार जैसे सैकड़ों उद्योगपति परोपकार से जुड़े कार्यों के लिए हर साल हजारों करोड़ रुपया दान देते हैं। भारत के कारोबारियों के डीएनए में "समाज सेवा" है। टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा की दूरदृष्टि से स्थापित इस समूह ने शुरू से ही समाज सेवा को अपने कार्यों का अभिन्न अंग बनाया। जमशेद जी के परोपकार के प्रेरणा स्रोत स्वामी विवेकानंद थे, जिसे अब उनकी तीसरी पीढ़ी भी निभा रही है। इसी तरह जिस फक्कड़ संन्यासी के आशीर्वाद से घनश्याम दास बिड़ला ने अपना उद्योग जमाया, उस संन्यासी के आशीर्वाद से “करनी और बरनी“ का काम आज भी बिड़ला समूह अपना रहा है। यह अपने धर्मार्थ कार्यों के माध्यम से भारत में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सकारात्मक प्रभाव डालता है, जो देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है।
जमशेदजी टाटा को यह प्रेरणा स्वामी विवेकानंद जी से प्राप्त हुई थी। शिकागो के सर्वधर्म सम्मेलन में जाने के पूर्व जब वे दक्षिण भारत का भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें यह बात खली कि दक्षिण भारत में विज्ञान की उच्चतर शिक्षा प्रदान करने वाला कोई संस्थान नहीं है। तब उन्होंने विचार किया कि इस काम में टाटा स्टील के संस्थापक जमशेदजी नसरवानजी टाटा उपयुक्त व्यक्ति होंगे और उन्होंने शिकागो जाने के पूर्व उन्हें एक पत्र लिखा। स्वामीजी ने टाटा को लिखा कि “आप बिहार के जमशेदपुर से अच्छा पैसा कमा रहे हो। मेरी शुभकामना है कि और ज़्यादा धन अर्जित करो और ज़्यादा लोगों को रोज़गार दो। लेकिन, विज्ञान की उच्चतर शिक्षा से वंचित दक्षिण भारत की भी थोड़ी चिंता करो और दक्षिण भारत में कहीं भी विज्ञान की ऊँची पढ़ाई और रिसर्च का कोई बढ़िया संस्थान स्थापित करो। मैं जानता हूँ कि तुम यह कर सकते हो और विश्वास है कि तुम ऐसा ही करोगे।”
स्वामी विवेकानंद जी की इस प्रेरक चिट्ठी पढ़ने के बाद जमशेदजी इतने प्रेरित हुए कि उन्होंने बैंगलुरु में तत्काल विज्ञान का एक बढ़िया संस्थान शुरू कर दिया जो आज “इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस“ के नाम से विश्वविख्यात है और जो प्रतिभाशाली बच्चे वैज्ञानिक बनाना चाहते हैं या रिसर्च या अध्यापन कार्य में अपना करियर बनाना चाहते हैं वे किसी भी आईआईटी में जाने से ज़्यादा आईआईएस में जाना ज़्यादा पसंद करते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने "दीन-दुखिया जन" के लिए सेवा को सर्वोच्च धर्म बताया। उनका मानना था कि सामाजिक सेवा ही सच्चा धर्म है। विवेकानंद ने सर्वधर्म समभाव और मानवतावाद का संदेश देते हुए, हर व्यक्ति के कल्याण के लिए काम किया। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जो आज भी भारत में विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक सेवाएं प्रदान करता है।
महात्मा बुद्ध, गुरुनानक और अन्य संतों ने भी परोपकार पर जोर दिया। मध्ययुगीन भारत में राजाओं और धनिकों द्वारा अनेक धर्मार्थ संस्थानों की स्थापना की गई जो स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और गरीबों की सहायता के लिए समर्पित थे। आपको हरेक गांव, कस्बे, शहर वगैरह में गैर सरकारी प्रयासों से चल रहे स्कूल, कॉलेज, धर्मशालाएं, लंगर और प्याऊ वगैरह मिल जाते हैं।
अभी कुछ दिन पहले शारदीय नवरात्र समाप्त हुए। इस दौरान देश की राजधानी दिल्ली समेत देश के तमाम शहरों में भंडारे चलते रहे। आप कह सकते हैं इस दौरान भंडारों की बहार थी। सब भंडारे के प्रसाद को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर रहे थे। भंडारों में समाजवादी व्यवस्था वास्तव में बहुत प्रभावशाली होती है। भंडारों में प्रसाद के रूप में बंटते हैं छोले, कुलचे, हलवा, पूड़ी-आलू, ब्रेड पकोड़ा आदि। कुछ भंडारों में खीर का प्रसाद भी वितरित होता है। देश की राजधानी दिल्ली भंडारों की भी राजधानी है। कहने वाले कहते हैं कि कैसेट किंग गुलशन कुमार ने भंडारा संस्कृति का पुनर्जागरण किया था। उन्होंने वैष्णो देवी में भंडारे का आयोजन शुरू किया था। तब दिल्ली वाले वैष्णो देवी जाकर गुलशन कुमार की तरफ से चलने वाले भंडारे में भोग अवश्य लगाया करते थे। यहां से ही भंडारा संस्कृति ने पैर जमाए थे।
भंडारे के प्रसाद की बात ही अलग होती है। इसका स्वाद अतुलनीय होता है। ये भंडारे की महिमा ही मानी जाएगी। भंडारा अपने आप में जात-पात और वर्ग की दीवारों को तोड़ता है। इसमें सब प्रेम से प्रसाद लेते हैं। भंडारे का प्रसाद पूरे अनुशासन से लिया जाता है। कनॉट प्लेस में रोज हजारों लोग नवरात्रों के दौरान भंडारे का प्रसाद खाते हैं। जो भंडारा आयोजित करते हैं, वे या तो हनुमान मंदिर के आगे से प्रसाद खरीद कर बांट देते हैं या फिर खुद ही कहीं से बनवा कर लाते हैं। भंडारों की एक खास बात ये भी है कि इनसें प्रसाद हिन्दू, मुसलमान,सिख, ईसाई सब ग्रहण करते हैं।
साउथ दिल्ली के पिलंजी गांव में कुछ युवकों ने कुछ साल पहले ‘बालाजी कुनबा’ नाम से संगठन स्थापित किया। इसका मकसद जरूरतमंदों की भूख मिटाना है। ये हर रोज एम्स, सफदरजंग अस्पताल, राम मनोहर लोहिया अस्पातल के आगे बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश वगैरह से रोगियों के साथ आए तीमारदारों को भरपेट भोजन करवाते हैं। कौन हैं बालाजी कुनबा के सदस्य? यह सब हनुमानजी के भक्त हैं। इनकी कारों पर हनुमानजी की तस्वीर वाला बैनर लगा होता है। जिस पर 'बालाजी कुनबा- एक परिवार भूख के खिलाफ' लिखा रहता है। भंडारे के लिए पैसे का जुगाड़ पिलंजी गांव के लोग करते हैं। ये अधिकतर गुर्जर समाज से संबंध रखते हैं। आप भंडारा संस्कृति को भी तो जन सेवा ही कहेंगे। क्या अब भी किसी को बताने की जरूरत है कि परोपकार औस समाज सेवा हरेक भारतीय के जीवन का हिस्सा है। यकीन मानिए आपको अमेरिका या यूरोप में कहीं कोई भंडारा नहीं मिलेगा। अब आप भारत और यूरोप अंतर को समझ गए होंगे।
लेखक:- आर.के. सिन्हा