शिक्षाप्रद कहानी: - कृतज्ञता की पराकाष्ठा Date : 21-Dec-2024 भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र अपनी उदारता के कारण लगभग कंगाल हो चुके थे | एक समय ऐसा आया कि जब उनके पास इतने भी पैसे नहीं थे कि आये हुए पत्रों का उत्तर भेज सकें | जो पत्र आते थे, उनके उत्तर लिखकर लिफाफे में बंद कर भारतेंदु जी मेज पर रख देते थे | उन पर टिकट लगाने को पैसे हों तो पत्र भेजे जाएँ | उनकी मेज पर पत्रों की एक ढेर एकत्र हो गयी थी | उनके एक मित्र ने उन्हें पांच रूपए में डाक टिकट लाकर दिए, तब वे लेटर बॉक्स में डाले गए | कुछ समय बाद भारतेंदु जी की स्थिति थोड़ी ठीक हुई | जब-जब वे मित्र से मिलते थे, तब-तब भारतेंदु जी जबरदस्ती उनकी जेब में पांच रूपये डाल देते थे और कहते- “आपको स्मरण नहीं, आपके पांच रूपये मुझ पर ऋण हैं |“ अंत में मित्र ने एक दिन कहा-“मुझे अब आपसे मिलना बंद कर देना पड़ेगा |” भारतेंदु बाबू के नेत्र भर आये | वे बोले-“भाई तुमने मुझे ऐसे समय पांच रूपये दिए थे कि मैं जीवनभर तुम्हें प्रतिदिन अब पांच रूपये देता रहूँ, तो भी तुम्हारे ऋण से छूट नहीं सकता |” यह थी कृतज्ञाता की पराकाष्ठा |