गिरीश्वर मिश्र
वैश्विक स्तर पर भारत सदियों से अनेक देशों के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहा है । यह तथ्य अनेक साक्ष्यों से बहुश: प्रमाणित है कि प्राचीन भारत की भौतिक समृद्धि से प्रभावित हो खिंचे आए विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत का अनेक प्रकार से शोषण और दोहन किया और अनैतिक ढंग से विभिन्न क्षेत्रों में और विभिन्न अवधि के लिए अपना अनधिकृत आधिपत्य जमाया। इस प्रक्रिया में भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य और जीवन पद्धति में अनेक परिवर्तन आए। इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी के रूप में बर्तानवी (अंग्रेजी) उपनिवेश की लगभग दो सौ वर्षों की त्रासदी थी। यह इस अर्थ में विशेष अर्थ रखती है कि इस दौर में देश को न केवल भौतिक और आर्थिक क्षति पहुँची अपितु दुर्भाव के साथ उसमें मानसिक रूप से भी बदलाव भी लाया गया ।
शिक्षा के क्षेत्र में जो हस्तक्षेप किया गया उसके बड़े दूरगामी परिणाम हुए जिनसे हम आज तक नहीं उबर सके हैं। इस हस्तक्षेप के अंतर्गत भारतीय चिंतन , ज्ञान-परम्परा और भारतीय विश्व दृष्टि को अप्रासंगिक ठहरा कर उसे हाशिये पर डाल दिया गया। भारतीय प्रतिभा , कौशल और ज्ञान संपदा का समूचा अवदान कालबाह्य घोषित कर दिया गया। इस अहैतुक उपेक्षा का सीधा परिणाम यह हुआ कि हमारा आत्मबोध और हमारी पहचान पश्चिम के आलोक में परिभाषित की जाने लगी। पश्चिमी चिंतन “वैज्ञानिक“ और “आधुनिक“ कहलाते हुए मुख्यधारा बनकर हम सब पर थोप दिया गया। दूसरी तरफ़ भारतीय दृष्टि उस मुख्यधारा से विचलन के रूप में अग्राह्य और व्यर्थ मानी जाने जाने लगी। उसकी ओर सतत उपेक्षा और वितृष्णा की प्रवृत्ति ने एक ऐसा माहौल बनाया जो हमें सोच-विचार और अपनी निर्णय- क्षमता के लिए पर निर्भर कर दिया। हमने आचार-व्यवहार के लिए मानक भी उधार लेने शुरू कर दिए। हीनता और अपर्याप्तता की तीव्र अनुभूति से ग्रस्त हो कर बहुतों ने भारतीयता की अवधारणा को प्रश्नांकित कर डाला । फलत: भारत की मौलिक अस्मिता संशयग्रस्त बनने के लिए अभिशप्त हो गई, इतनी कि जब देश स्वतंत्र हुआ तो नामकरण का निश्चय करते समय हमने भारत शब्द को अपर्याप्त मान लिया। अंतत: भारतवर्ष के लिए “इंडिया दैट इज भारत“ का नाम संविधान में दर्ज किया गया।
घटनाक्रम कुछ ऐसा भी हुआ कि पश्चिमी जगत का आर्थिक और राजनैतिक वर्चस्व निरंतर बढ़ता चला गया। हम उसे अपनाते चले गए और उसी में ही गौरव बोध अनुभव करने की आदत डाल ली। दूसरी और हमारा देशज चिंतन जो स्वयं अपना निजी चिंतन था और हमारे अनुकूल था, हमसे दूर होता हुआ अपरिचित होता गया। महात्मा गांधी के “हिन्द स्वराज “ के स्वर जो १९०९ में उठे थे वे तेज़ी से मद्धिम पड़ने लगे। आर्थिक योजनाएं, शैक्षिक व्यवस्थाएं, सांस्कृतिक नीतियाँ सबकुछ महात्मा गांधी के स्वप्न के विपरीत दिशा में चलने वाला हो चला। परिणाम यह हुआ कि देश के स्वतंत्र होने के बाद भी देश के शैक्षिक आयोजन में गुलामों के लिए बनाया गया पुराना औपनिवेशिक ढाँचा ही बदस्तूर चलता रहा। यदा-कदा कुछ सतही बदलाव लाने का प्रयास जरूर हुआ पर वह आयोजन मुख्य रूप से पश्चिम से आयातित ढाँचा लेकर ही आगे बढ़ता रहा। इसका परिणाम शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में भारत के पिछड़ने के रूप में सामने आया।
आज भारत विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश हो चुका है। साथ ही वह ऐसा देश भी है जिसमें युवा वर्ग की जनसंख्या का अनुपात विश्व में सबसे अधिक है। देश के लिए यह निश्चित रूप से लाभ की स्थति हो सकेगी बशर्ते हमारा युवा वर्ग योग्य और कुशल हो। यह चर्चा इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि भारत वर्ष २०४७ तक विकसित देश की कोटि में आने के लिए तत्पर और प्रयासरत है। इस पूरे परिदृश्य में “भारत “ को समझना, उसे अंगीकार करना आज भी प्रमुख प्रश्न हो जाता है। भारत की अच्छी-बुरी अनेक छवियाँ प्रचलित हैं जो भिन्न भिन्न प्रयोजनों से समय-समय पर गढ़ी गई हैं। एक भौगोलिक संरचना के रूप में किसी देश की परिधि और उपलब्धता राजनैतिक संकल्पों और घटनाक्रमों के साथ भी जुड़ी रहती है। भारत जो कभी अखंड था हम सबके देखते-देखते बीसवीं सदी में ही दो बार खंडित हुआ। पहला विभाजन तब हुआ जब पाकिस्तान बना था और दूसरा तब जब बांग्लादेश के निर्माण के साथ हुआ। देखें तो भूमि तो वही रही और वहीं रही जहाँ पहले थी परंतु उस भूमि का अर्थ, उपयोग, उससे संबंध और संलग्नता का आशय लगातार बदलता रहा। भारत जो कभी प्रकृति की गोद में समुद्र और हिमालय के बीच स्थित स्वत:सिद्ध इकाई के रूप में स्वीकृत था परिभाषाओं की प्रतीक्षा करने लगा। उसकी अनेक परिभाषाएँ दी जाती रहीं। आज जब एक सशक्त और आत्मनिर्भर भारत की कल्पना को हम साकार करने को तैयार हो रहे हैं तो हमें यह भी सोचना होगा हम किस भारत की प्रतिमा के साथ चल रहे हैं। वह भारत कैसा होगा?
यह सुखद आश्चर्य है कि उसकी एक अतुल्य छवि डेढ़ सौ साल पहले बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के “आनंद मठ” में आए गीत वंदे मातरम् में प्रतिध्वनित हुई थी। प्रकृति की सारी सुषमा से समन्वित, सारी कामनाओं को पूरा करने वाली, मधुर वाणी वाली, निर्मल, अतुलनीय, ज्ञान और शक्ति से परिपूर्ण भारत माता की छवि सारे भेदभावों से परे एक आत्मीय प्रतिमा को रूपायित करती है। इस छवि का स्मरण और मन में धारण करना निजी स्वार्थ से परे सबके लिए समग्र जीवन की दिशा में समर्पण के लिए अग्रसर कराता है।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
