प्रत्येक वर्ष वैशाख मास की पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा के रूप में श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाता है। इस बार यह शुभ दिन 23 मई को मनाया जाएगा। माना जाता है कि 563 ईसा पूर्व वैशाख पूर्णिमा के दिन ही शाल वृक्षों के बीच लुम्बिनी वन में सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ था, जिन्होंने आगे चलकर बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे इसी दिन बुद्धत्व की प्राप्ति की। यही कारण है कि यह दिन बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए अत्यंत पवित्र माना जाता है।
गौतम बुद्ध का जन्म नाम सिद्धार्थ था और वह एक क्षत्रिय कुल में जन्मे थे। गौतम उनका गोत्र था, किंतु कालांतर में वे महात्मा बुद्ध, भगवान बुद्ध, तथागत जैसे कई नामों से विख्यात हुए। बचपन से ही सिद्धार्थ एकांतप्रिय थे और ध्यान में लीन रहते थे। हालांकि उन्होंने युवावस्था में विवाह किया और पुत्र जन्म के बाद कुछ समय तक राजसी जीवन जिया, लेकिन धीरे-धीरे उनका मन इन भौतिक सुखों से विरक्त होता गया।
एक दिन वे अपने सारथी छेदक के साथ नगर भ्रमण पर निकले और वहाँ उन्होंने जीवन के चार कटु सत्य देखे—एक बीमार व्यक्ति, एक वृद्ध, एक मृतक की शव यात्रा और एक साधु। इन दृश्यों ने उनके मन को गहराई से झकझोर दिया और उन्होंने महसूस किया कि जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु—मनुष्य जीवन के अनिवार्य सत्य हैं। जब उन्होंने एक शांत साधु को देखा, तो उनके मन में यह धारणा बनी कि जीवन के इन दुखों से मुक्ति का मार्ग त्याग और साधना में ही निहित है।
इसके बाद सिद्धार्थ ने मोह-माया और राजसी वैभव का त्याग कर दिया और रात्रि में पत्नी यशोधरा व पुत्र राहुल को सोता छोड़ संन्यास मार्ग पर निकल पड़े। वे ज्ञान और सत्य की खोज में वर्षों तक जंगलों में तप करते रहे, लेकिन जब कठोर तप से भी उन्हें समाधान नहीं मिला, तो उन्होंने मध्यम मार्ग अपनाया। बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे उन्होंने सात सप्ताह तक ध्यान में लीन रहकर गहन चिंतन किया और वैशाख पूर्णिमा के दिन प्रातः काल उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई। तभी से उन्हें 'बुद्ध' कहा गया—अर्थात जाग्रत व्यक्ति।
बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद उनके पांच शिष्यों ने उन्हें 'तथागत' कहकर संबोधित किया, जिसका अर्थ है—जिसने सत्य को जान लिया है। जिस पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, वह 'बोधिवृक्ष' कहलाया और वह स्थान 'बोधगया' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके पश्चात महात्मा बुद्ध ने 80 वर्ष की आयु तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए धर्म का प्रचार किया और लोगों को जीवन के दुखों से मुक्ति का मार्ग दिखाया। वे करुणा, अहिंसा और मन की साधना को जीवन का मूल आधार मानते थे और सभी जीवों के प्रति दया भाव रखने का संदेश देते थे।